रेलवे को भारत की जीवन रेखा कहा जाता है। रेलवे भारत में सबसे बड़ा रोजगार प्रदान करने वाला क्षेत्र है। अगर रोजगार की बात छोड़ भी दें तो रेलवे गरीब मेहनतकशों के यातायात का सस्ता और सुगम साधन है। रेलवे से बड़ी भारी संख्या में आबादी अपने गांव घर से यात्रा करती है। पिछले कुछ दशकों से देश में प्रवासी मजदूर की संख्या बड़ी है इसलिए जब भी त्यौहार या छुट्टी आती है तो बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर अपने घरों की तरफ जाते हैं। ऐसे में रेलवे ही उनके लिए एक सस्ता और सुगम साधन बनता है। पर पिछले कुछ समय से रेलवे ने इस साधन में भी सेंध मारी शुरू कर दी हैं। ऐसा नहीं है कि पहले स्थिति बहुत बेहतर थी पर तब भी किसी तरीके से लटक कर धक्का-मुक्की के बाद लोग रेल में चढ़ अपने घरों तक पहुंच जाते थे, पर पिछले कुछ समय से रेलवे ने मजदूर मेहनतकशों की स्लीपर और जनरल डिब्बों की संख्या रेलगाड़ियों से कम कर एसी डिब्बों की संख्या को बढ़ा दिया है। इस कारण बड़ी भारी संख्या में यात्री इसमें चढ़ भी नहीं पाते और जो चढ़ जाते हैं उनकी स्थिति बुरी होती है। मजबूरी में लोगों को 3 टीयर एसी का महंगा किराया देना पड़ता है।
कोरोना के समय में रेलवे ने गाड़ियों को कम करने का जो तरीका अपनाया था उसे आपदा में अवसर में बदलकर उन्होंने अब इसे स्थाई कर दिया है। कोरोना के समय और उसके बाद से प्राइवेट बसों की भरमार है और गरीब मेहनत करने वालों को मजबूरी में इन साधनों से यात्रा करनी पड़ती है।
सरकार धीरे-धीरे मेहनत करने वालों के संसाधनों में लगातार सेंधमारी कर रही है। यह सारा कुछ रेलवे का निजीकरण करने की दृष्टि से हो रहा है। रेलवे कई गाड़ियों को प्राइवेट कर चुका है। -हरीश, गुड़गांव
गरीब मेहनतकशों के यातायात में रेलवे ने सेंध मारी
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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।