इस लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा को हराने की इच्छा रखने वाला उदारवादी बुद्धिजीवियों का समूह आंख मूंद कर इंडिया गठबंधन की तारीफों में जुटा रहा। चुनाव में इस गठबंधन के बेहतर प्रदर्शन से भाव विभोर हो अब यह समूह पहाड़ सी उम्मीदों की आस इससे लगाये हुए है। उम्मीदों के इस पहाड़ से राहुल-अखिलेश मुग्ध हैं। वे जानते हैं कि जिन कारनामों की उनसे उम्मीद की जा रही है उन्हें अंजाम देने की न तो उनकी कोई इच्छा है और न ही उनमें हिम्मत है। पर फिर भी वे अपने को ‘महानायक’ की छवि में पाकर खुश हैं।
सड़ते-गलते पूंजीवाद के आज के दौर में रीढ़विहीन बौने नायक ही पैदा हो सकते हैं। मोदी-शाह से लेकर राहुल-अखिलेश-ममता आदि ऐसे ही बौने नायक हैं। ऐसे में विपक्षी गठबंधन के राहुल-अखिलेश से पूंजीवाद के क्रांतिकारी दौर के नायकों सरीखे कारनामों की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। पर किसी भी तरह संघ-भाजपा को पटखनी देने को उतारू उदारवादियों को इन बौने नायकों से उथल-पुथल की उम्मीद रखने के अलावा कुछ सूझ ही नहीं रहा है।
इन बौने नायकों से जो उम्मीदें पाली जा रही हैं उनकी फेहरिस्त काफी लम्बी है। कोई उनसे जनहित में बेकारी-महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरने की उम्मीद कर रहा है तो कोई उनसे उस संविधान की रक्षा की उम्मीद पाले है जिस पर बीते 10 वर्षों की मोदी नीत सत्ता ने काफी हद तक चलना बंद कर दिया है। इस संविधान को संघी नेता हर रोज किसी न किसी ओर से थप्पड़ जड़ रहे हैं। ऐसे में राहुल गांधी से संविधान को बचाने की उम्मीद की जा रही है। उम्मीद करने वाले भूल चुके हैं कि जिससे वे बदलाव की उम्मीद पाले हैं वह जनता के पाले का नहीं पूंजीपतियों के पाले का बौना नायक है।
कांग्रेस पार्टी से लेकर समाजवादी पार्टी, तेजस्वी यादव से लेकर ममता बनर्जी सभी विपक्षी नेता किसी जनहित के लिए चुनावी रण में इंडिया गठबंधन में नहीं बंधे थे। वे इसलिए गठबंधन में एकजुट हुए थे ताकि येन केन प्रकारेण सत्ता मिल जाये। सत्ता इनको मिल भी सकती थी बशर्ते चुनाव आयोग से लेकर बाकी संस्थायें, मीडिया मोदी सरकार का एजेंट न बन जाते। पर हाथ में सत्ता आते-आते रह जाने का दर्द इन नेताओं को जरूर सता रहा है। और अब उम्मीदों के पहाड़ को सर पर उठाये ये आसमन की ओर ताक रहे हैं कि कब चमत्कार होगा और नीतिश-नायडू पलटी मार उन्हें सत्ता तक पहुंचा देंगे। उनकी यह आस पूरी होगी यह नहीं ये तो वक्त बतायेगा।
ये बौने नायक फ्रांसीसी क्रांति के राब्सपियरे बनना तो दूर भारत के नेहरू-गांधी भी नहीं बन सकते। चुनाव पश्चात इनका व्यवहार यही दिखलाता है कि मोदी-शाह की नकल कर ये झूठे ही सही करिश्मा हो जाने की कवायद कर रहे हैं। बौने नायक हाथ में संविधान पकड़ इस भ्रम को पैदा करने में जुटे हैं कि वे मोदी-शाह के हाथों से इसे बचा लेंगे। पर संविधान थाम कर उसकी रक्षा की नौटंकी ही दिखलाती है कि इन्हें संविधान की रक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। अगर संविधान इनके लिए इतना ही पूज्य होता तो इनके पुरखे नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक संविधान में इतने संशोधन नहीं करते।
दरअसल राहुल एण्ड कम्पनी प्रतीकों की राजनीति का सहारा ले पूंजीवादी संविधान को मजदूरों-मेहनतकशों के हित के पर्याय के रूप में पेश कर रहे हैं जिन्हें संघी ध्वस्त करना चाहते हैं। ऐसा करके वे एक ऐसी पुस्तक को स्थापित कर व्यवस्था की सेवा कर रहे हैं जिसे शासक वर्ग की मजदूरों-मेहनतकशों पर तानाशाही को सुनिश्चित करने के लिए रचा गया है और जिसमें 100 के करीब संशोधन बीते 70 वर्षों में हो चुके हैं।
मजदूर-मेहनतकश जन बेकारी, महंगाई से त्रस्त हैं। वे रोटी-रोजगार चाहते हैं। महिलायें बढ़ती यौन हिंसा से परेशान हैं। छोटे व्यवसायी जीएसटी की मार से त्रस्त हैं। ऐसे में इन सभी मुद्दों को संसद से लेकर सड़क तक उठाने के बजाए ये बौने नेता संविधान की पुस्तक आगे कर जनता व उदारवादी बुद्धिजीवियों की नासमझी पर मुस्करा रहे हैं।
मोदी एण्ड शाह कम्पनी इन बौने नायकों की चाल को बखूबी जानते हैं। इसीलिए वे भी संविधान के कसीदे पढ़ते हुए उसे बदलने के एक के बाद एक कानून बनाये जा रही है।
शीघ्र ही बौने नायकों की असलियत उजागर हो जायेगी तब ही बुद्धिजीवियों-उदारवादियों की समझ में आयेगा कि असली नायक आज मेहनतकश जनता ही बन सकती है। वही क्रांतिकारी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में संघी मण्डली को चुनौती पेश कर सकती है और वही पूंजीवादी लूट का अंत कर जनहित की व्यवस्था कायम कर सकती है। आज जरूरत संसद में बैठे ‘बौने नायकों’ के पीछे घिसटने की नहीं मेहनतकश जनता के खुद नायक बनने की है।
‘बौने नायकों’ से पहाड़ सी उम्मीद
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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।