चीन : नई साम्राज्यवादी ताकत

बीते लगभग एक दशक में चीन विश्व रंगमंच पर एक प्रमुख ताकत के बतौर उभरा है। आज अगर अमेरिकी साम्राज्यवादी चीन को अपने प्रमुख प्रतिस्पर्धी के बतौर चिन्हित कर रहे हैं तो यह यूं ही नहीं है। बात चाहे चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध की हो चाहे जापान द्वारा चीन को खतरा मानते हुए सैन्य बजट बढ़ाने की, चाहे मौजूदा रूस-यूक्रेन युद्ध में चीन के रूस के समर्थन में खड़े होने की या फिर अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा चीन को घेरने के लिए एक के बाद एक हथकंडे अपनाने की, ये सभी तथ्य दिखला रहे हैं कि चीन न केवल एक साम्राज्यवादी ताकत में तब्दील हो गया है बल्कि भविष्य में वह अमेरिकी साम्राज्यवादियों को चुनौती देने की संभावनायें भी लिए हुए है। शी जिनपिंग के सत्ता संभालने के साथ ही चीन ने साम्राज्यवादी ताकत के तौर पर खुद को प्रदर्शित करना शुरू कर दिया।

पिछली सदी की शुरूआत में महान सर्वहारा नेता लेनिन ने साम्राज्यवाद को परिभाषित करते हुए बतलाया था कि साम्राज्यवाद इजारेदार पूंजीवाद है, कि पूंजीवाद स्वतंत्र प्रतियोगिता के युग से एकाधिकार या साम्राज्यवाद की मंजिल में पहुंच गया है।

साम्राज्यवाद के युग में इजारेदार संगठन (पहले ट्रस्ट-कार्टेल आदि के रूप में और आज बहुराष्ट्रीय निगमों/राष्ट्रपारी निगमों के रूप में) अतीव महत्व ग्रहण कर लेते हैं। अपनी एकाधिकारी हैसियत का लाभ उठा जहां एक ओर वे औसत लाभ से अधिक उच्च एकाधिकारी लाभ प्राप्त करते हैं वहीं अपनी ऊंची उत्पादक शक्तियों के चलते दूसरे देशों से अति लाभ भी निचोड़ते हैं। इस तरह साम्राज्यवाद के दौर में एकाधिकारी संगठन अपने देश के छोटे उत्पादकों, मजदूरों-किसानों की आय का एक हिस्सा हड़पने के साथ-साथ अन्य देशों के मजदूरों की श्रम शक्ति का भी एक हिस्सा हड़प लेते हैं।

लेनिन द्वारा पिछली सदी में साम्राज्यवाद की 5 विशेषताएं चिन्हित की गयी थीं। (1) उत्पादन तथा पूंजी का संकेद्रण विकसित हो इतनी ऊंची अवस्था में पहुंच गया है कि उसने इजारेदारियों को जन्म दिया है जिनकी आर्थिक जीवन में निर्णायक भूमिका है। (2) बैंक पूंजी और औद्योगिक पूंजी का मिलकर एक हो जाना और इस तरह बनी ‘वित्त पूंजी’ के आधार पर वित्तीय अल्पतंत्र का कायम होना। (3) माल निर्यात से भिन्न पूंजी निर्यात का अतीव महत्व ग्रहण कर लेना। (4) अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर इजारेदार पूंजीवादी संघों द्वारा दुनिया का आपस में बंटवारा करना। (5) सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा दुनिया का क्षेत्रीय बंटवारा पूरा होना।

साम्राज्यवादी मुल्कों के बीच दुनिया का क्षेत्रीय बंटवारा पूरा होने के चलते जैसे ही नई साम्राज्यवादी शक्तियां सामने आईं तो नये सिरे से बंटवारे की जरूरत पैदा हुई जो अपनी बारी में 2 विश्व युद्धों तक दुनिया को ले गयी। जब तक दुनिया में साम्राज्यवाद मौजूद है तब तक विश्व युद्ध फिर से पैदा होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

साम्राज्यवाद पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था होने के साथ ही अंतिम अवस्था भी है। यह मरणासन्न पूंजीवाद है। साम्राज्यवाद के काल में पूंजीवाद के सभी अंतरविरोध काफी तीखे हो जाते हैं। पूंजी व श्रम का अंतरविरोध, साम्राज्यवाद और गरीब मुल्कों के बीच अंतरविरोध व साम्राज्यवादियों के बीच आपसी अंतरविरोध सभी तीखे हो उठते हैं। इन्हीं अंतरविरोधों के तीखे होने का लाभ उठाकर ये संभव हो जाता है कि अनुकूल परिस्थितियां पैदा होने पर मजदूर वर्ग बाकी मेहनतकशों को साथ ले पूंजी के शासन को पलट दे और क्रांति कर समाजवाद की ओर बढ़ जाये। इसीलिए साम्राज्यवाद को सर्वहारा क्रांतियों की पूर्वबेला कहा गया। पिछली सदी में रूस से शुरू होकर कई देशों में ऐसी क्रांतियां सम्पन्न भी हुईं।

लेनिन के द्वारा साम्राज्यवाद की चिन्हित ज्यादातर विशेषतायें आज भी जस की तस लागू होती हैं। बस आज साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा दुनिया के क्षेत्रीय बंटवारे का स्वरूप पहले सा नहीं रहा है। पहले साम्राज्यवादी ताकतें कमजोर-पिछड़े देशों को उपनिवेश-नवउपनिवेश बना कर गुलाम बना लेती रही हैं। पर बीते 100 वर्षों में समाजवादी आंदोलन व राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के रूप में जनता ने साम्राज्यवाद को पीछे हटने को मजबूर किया है। साम्राज्यवाद को पीछे धकेल कर आज की आर्थिक नव औपनिवेशिक दुनिया तक पहुंचा दिया गया है। जहां ज्यादातर मुल्क राजनैतिक तौर पर स्वतंत्र हैं। साम्राज्यवादी आज इन देशों का आर्थिक तौर-तरीकों से शोषण करने को मजबूर हुए हैं। हालांकि साम्राज्यवादियों की चौतरफा प्रभुत्व कायम करने की इच्छा जस की तस है और वे सामरिक हस्तक्षेप से लेकर राजनैतिक दबाव कायम करने की कोशिश करते रहते हैं। पर बीते 2-3 दशकों में इराक-अफगानिस्तान को गुलाम बनाने की अमेरिकी साम्राज्यवादियों की कोशिशों की विफलता बताती है कि आज साम्राज्यवादी चाह कर भी किसी देश को गुलाम नहीं बना सकते हैं। ऐसे में साम्राज्यवादी परस्पर प्रतिस्पर्धा में प्रभाव क्षेत्र ही कायम कर पा रहे हैं। यह प्रभाव क्षेत्र तरह-तरह की संधियों-गठबंधनों के जरिये कायम किये जा रहे हैं। इसके आगे ही यह भी हुआ है कि साम्राज्यवादियों का तीसरी दुनिया के गरीब देशों में सामाजिक आधार भी बदल गया है। पहले के सामंती-कबीलाई अभिजातों की जगह आज गरीब देशों का शासक पूंजीपति वर्ग अपने यहां साम्राज्यवाद का सामाजिक आधार बन चुका है। साम्राज्यवादी पूंजी को वही अपने यहां बुला रहा है। इन देशों का शासक पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवाद का कनिष्ठ साझेदार बन गया है। वह खुद पूर्णतया प्रतिक्रियावादी वर्ग में तब्दील हो गया है।

जहां औपनिवेशिक-नवऔपनिवेशिक दुनिया में जिसमें गरीब मुल्क साम्राज्यवादियों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष गुलामी के शिकार थे वहीं आज की आर्थिक नव औपनिवेशिक दुनिया में ये मुल्क राजनैतिक तौर पर स्वतंत्र हैं पर साम्राज्यवादियों के हर तरह के दबाव व धौंसपट्टी को उन्हें झेलना पड़ता है। औपनिवेशिक-नवऔपनिवेशिक दुनिया में यह संभव नहीं था कि कोई गुलाम देश विकसित हो साम्राज्यवादी बन जाये पर आज की आर्थिक नव औपनिवेशिक दुनिया में यह संभव हो गया है कि अनुकूल परिस्थितियों का लाभ उठा अपनी उत्पादक शक्तियों को उन्नत कर कोई देश साम्राज्यवादी देश के स्तर पर पहुंच जाये।

आखिर आज किसी देश को साम्राज्यवादी कहने के क्या मापदण्ड हो सकते हैं। आज थोड़ा गहराई से देखें तो दुनिया के ज्यादातर देशों में पूंजीवाद का विकास हो चुका है और ज्यादातर देशों में शासक इजारेदार घराने ही हैं। तीसरी दुनिया के ज्यादातर बड़े देशों में वित्तीय अल्पतंत्र का शासन है और ये देश कुछ न कुछ पूंजी का निर्यात भी करते हैं और इनकी एकाध कम्पनियां विश्व की शीर्ष कंपनियों में भी हैं। ऐसे में महज इन आधारों पर किसी देश को साम्राज्यवादी कहना उचित नहीं होगा। दरअसल तीसरी दुनिया के किसी देश को तभी साम्राज्यवादी कहा जा सकता है जब इन सभी चीजों की मात्रा बढ़ते-बढ़ते गुणात्मक स्तर तक पहुंच जाये।

इस रूप में देखें तो हम पाते हैं कि यद्यपि बीते 2-3 दशकों से चीन, भारत, द.अफ्रीका, ब्राजील आदि सभी देशों की वैश्विक हैसियत बढ़ रही है पर केवल चीन ही उस गुणात्मक स्थिति को हासिल कर सका है कि उसे साम्राज्यवादी मुल्क कहा जा सके।

अगर साम्राज्यवाद की विशेषताओं के संदर्भ में चीन की स्थिति को देखें तो हम पाते हैं कि ढेरों मसले में तीसरी दुनिया के बड़े देश उसके सामने कहीं नहीं ठहरते। यहां तक कि ढेरों मामलों में फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, रूस सरीखे साम्राज्यवादी भी उसके आगे नहीं ठहरते। केवल अमेरिकी साम्राज्यवादी ही चीन से हर मामले में अग्रणी कहे जा सकते हैं।

चीन में इजारेदारियों की स्थिति को देखें तो 2022 के फार्चून ग्लोबल 500 कंपनियों की सूची में सबसे ज्यादा 136 कंपनियां चीन की हैं। जबकि अमेरिका की इस सूची में 124, ब्रिटेन की 18 व जर्मनी की 28 व जापान की 47 कंपनियां हैं। चीनी कंपनी टेसेंट होल्डिंग दुनिया की 5वीं शीर्ष टेक कम्पनी है। अलीबाबा दुनिया की तीसरी शीर्ष रिटेल कंपनी है। ग्लोबल डिफेंस के मामले में दुनिया की शीर्ष दो कंपनियां चीनी हैं। निर्माण क्षेत्र में दुनिया की शीर्ष 6 कंपनियां चीनी हैं। ऑटोमोटिव कंपनियों में चीनी कंपनी 9वें स्थान पर है। चीन में अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। 2022 में दुनिया के कुल 2668 अरबपतियों में अमेरिका के 735 तो चीन के (मकाउ व हांगकांग समेत) 607 अरबपति थे। इंटरनेट के क्षेत्र में टेसेंट, बायडू, सोशल मीडिया में बाइट डांस व 5 जी तकनीक में दुबेई वैश्विक पहचान वाली कंपनियां हैं। सोलर पैनल व हाईस्पीड रेल के मामले में चीन अग्रणी तो स्मार्टफोन, इलेक्ट्रिक गाड़ियों के क्षेत्र में चीन का प्रमुख स्थान है। स्पष्ट है कि चीन में न केवल राज्य नियंत्रित संस्थानों के रूप में बल्कि निजी क्षेत्र में भी इजारेदारियां तेजी से बढ़ रही हैं।

अगर बैंकिंग व वित्त पूंजी के मसले में देखें तो दुनिया के शीर्ष 10 बैंकों में 7 चीनी हैं। चीनी इंश्योरेंस कम्पनी पिंग एन इंश्योरेंस ग्रुप दुनिया में अग्रणी है। चीन में शेयर बाजार तेजी से बढ़ रहा है। चीनी शेयर बाजार का कुल बाजार पूंजीकरण अप्रैल 22 में 11100 अरब डालर था जिसमें विदेशी भागेदारी 600 अरब डालर थी। चीन की भारी भरकम निवेश परियोजना ‘वन बेल्ट वन रोड’ भारी भरकम चीनी बैंकों के सहारे ही आगे बढ़ रही है।

चीन यद्यपि मालों का दुनिया में सर्वप्रमुख व्यापारकर्ता है पर बीते वर्षों में चीन द्वारा दुनिया के तमाम देशों को पूंजी निर्यात तेजी से बढ़ा है। वन बेल्ट वन रोड परियोजना के ढेरों भागीदार देशों ने चीन से भारी कर्जे ले रखे हैं। चीन ने दुनिया के 165 देशों को कर्ज बांट रखा है। इसके अतिरिक्त चीन न केवल गरीब देशों बल्कि विकसित साम्राज्यवादी देशों में भी विदेशी निवेश तेजी से बढ़ा रहा है। चीन का ज्यादातर निवेश मैनुफैक्चरिंग, खनन, निर्माण, विद्युत-गैस उत्पादन-वितरण में हो रहा है।

चीन यद्यपि अभी दुनिया में अमेरिकी या रूसी साम्राज्यवादियों की तरह धौंसपट्टी कायम नहीं कर रहा है पर बीते समय में उसने दुनिया के तमाम क्षेत्रों में अपनी आक्रामकता बढ़ायी है। खासकर अपने पड़ोस के एशियान देशों के साथ वह दक्षिणी चीन सागर में प्रभुत्व के लिए तेजी से टकराव मोल ले रहा है। दक्षिण एशिया में उसने भारत को पीछे ढकेलते हुए श्रीलंका-पाकिस्तान-नेपाल-मालदीव -बांग्लादेश सभी से मजबूत सम्बन्ध कायम कर लिए हैं। मध्य एशिया के पूर्व सोवियत देशों तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, किर्गिस्तान, तजाकिस्तान के भारी गैस भण्डार-यूरेनियम भण्डार को देखते हुए चीन यहां बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है। यही नहीं वह रूस के आर्कटिक क्षेत्र तक अपने पैर पसार रहा है। अफ्रीका व लातिन अमेरिका के देशों को उसने प्रमुख व्यापारिक साझीदार बना एक तरह से अपने लिए कच्चे मालों का प्रमुख स्रोत बना लिया है। कच्चे माल स्रोतों पर कब्जे की साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा में वह ढेरों जगह अमेरिकी-यूरोपीय साम्राज्यवादियों को पछाड़ चुका है। उसने 2017 में जीबूती में अपना सैन्य अड्डा कायम कर यह संकेत दे दिया कि जरूरत पड़ने पर वह सैन्य तैयारियों में भी पीछे नहीं है।

चीनी अर्थव्यवस्था आज दुनिया के दूसरे नम्बर की अर्थव्यवस्था है। क्रय शक्ति समतुल्यता के आधार पर तो वह पहले नं. की अर्थव्यवस्था है। चीन अपनी सैन्य तैयारियों में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है। अमेरिका के बाद सैन्य खर्च के मामले में वह दूसरे स्थान पर है। नाभिकीय हथियार, अंतरमहाद्वीपीय मिसाइलें, बैलेस्टिक मिसाइलों, एयरक्राफ्ट, युद्धपोतों के मामले में वह तेजी से प्रगति कर रहा है। वह भविष्य के अंतरिक्ष युद्ध व इलैक्ट्रानिक युद्ध की भी तेजी से तैयारी कर रहा है।

चीनी तकनीक ढेरों मामलों में आज विश्व स्तर की है। रिसर्च व डेवलपमेंट पर चीन में भारी निवेश हो रहा है।

साम्राज्यवादी चीन आज वैश्विक रंगमंच पर अमेरिकी साम्राज्यवाद के बाद दूसरी प्रमुख ताकत के रूप में उभर चुका है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों से उसकी प्रतिस्पर्धा व्यापार युद्ध, ताइवान से लेकर यूक्रेन ढेरों जगह नजर आ रही है।

तीसरी दुनिया का गरीब देश चीन अगर एक साम्राज्यवादी देश के बतौर विकसित होकर सामने आ सका तो इसमें उसके समाजवादी अतीत की महत्वपूर्ण निर्णायक भूमिका है। चीन के समाजवादी काल में ज्ञान-विज्ञान-तकनीकी विकास के साथ नये किस्म के वैज्ञानिक व पेशेवर रुख वाले जिस इंसान का निर्माण हुआ उसके बगैर चीन इस स्तर तक विकसित नहीं हो सकता था।

इसके साथ ही 80 के दशक से ही चीन में विकसित तकनीक लेकर आयी साम्राज्यवादी कम्पनियों ने भी चीन के मौजूदा विकास में एक भूमिका अदा की। इन कम्पनियों के आने व चीन के मैन्युफैक्चरिंग हब में रूपान्तरित होने से प्रतिस्पर्धा-चोरी आदि सभी तरीकों के इस्तेमाल से चीन उच्च तकनीकी स्तर हासिल कर सका।

चीन का समाजवादी अतीत व साम्राज्यवादी कम्पनियों का उच्च तकनीक लिए चीन में आना दो ऐसे तथ्य हैं जो चीन को तीसरी दुनिया की बाकी बड़ी ताकतों से अलग कर देते हैं। इनके बगैर चीन का इस स्तर तक का विकास असंभव था।

चीन के साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उभरने से दुनिया के शक्ति संतुलन पर गंभीर प्रभाव पड़ने की संभावना है। अंतर साम्राज्यवादी अंतरविरोध में सांठ-गांठ की जगह कलह का पहलू प्रधानता लेने की ओर बढ़़ सकता है जिससे दुनिया नये किस्म के शीत युद्ध की ओर भी भविष्य में बढ़ सकती है। अभी ही रूस-यूक्रेन युद्ध के मसले पर टकराव काफी बढ़ चुका है। कलह अपनी बारी में युद्ध- विश्व युद्ध की ओर भी ले जा सकती है।

यद्यपि आर्थिक नव औपनिवेशिक फ्रेमवर्क में चीन के साम्राज्यवादी होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा या साम्राज्यवादियों के टकराव बढ़ने से गरीब देशों को सौदेबाजी की ज्यादा बेहतर स्थिति हासिल होगी। उपरोक्त सभी संभावनायें तभी यथार्थ में बदलेंगी जब चीन मौजूदा गति से विकास करता रहे। पर चीनी अर्थव्यवस्था भी अंतरविरोधों से मुक्त नहीं है और वह तेजी से गोता भी लगा सकती है। हाउसिंग बूम, शेडो बैंकिंग, बैंकों का बढ़ता एनपीए, प्रांतीय सरकारों पर भारी कर्ज आदि कुछ ऐसे मसले हैं जो चीन की अर्थव्यवस्था को संकट की ओर धकेल सकते हैं। इसके अलावा मजदूरों की गुलामों की स्थिति, उइगर मुस्लिमों का क्रूर दमन आदि मसले भी चीनी समाज में विस्फोटक स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं।

चीनी साम्राज्यवाद में राज्य नियंत्रित संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए कुछ लोग इसे पिछली सदी के सोवियत साम्राज्यवाद की तरह सामाजिक साम्राज्यवादी चिन्हित करते हैं। यह सूत्रीकरण ठीक नहीं है। चीन में यद्यपि इन राज्य नियंत्रित संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका है पर वहां निजी पूंजी भी तेजी से विकसित हो रही है और भारी भरकम राज्य नियंत्रित संस्थान निजी पूंजी की सेवा में ही कार्यरत हैं। वैसे भी दुनिया के स्तर पर सभी राज्य अपनी इजारेदार पूंजी से अधिक सम्बद्ध हो राजकीय इजारेदार पूंजीवाद कायम किये हुए हैं। चीन भी इसी की एक किस्म है।

फिर भी चीनी साम्राज्यवाद बाकी साम्राज्यवादियों से कुछ मायनों में भिन्न है। पूंजीवाद की पतनशील अवस्था में नया उभरा साम्राज्यवादी चीन वह सामान्य उच्च जीवन स्तर हासिल नहीं कर सकता जो पिछली सदियों में उभरे साम्राज्यवादी देशों ने हासिल किया था। चीन में एक पार्टी शासन भी इसे बाकी साम्राज्यवादियों से अलग करता है। आज चीनी पूंजी के आपसी अंतरविरोध एक पार्टी के तहत हल हो रहे हैं। चीनी शासकों को श्रम की बेलगाम निर्मम लूट का भी अतिरिक्त लाभ हासिल है। चीन में आज भी एकसत्तावादी व्यवस्था है। चीनी पूंजी के अंतरविरोध गहराने पर चीन या तो बहुपार्टी व्यवस्था या फासीवाद की ओर बढ़ सकता है।

चीनी साम्राज्यवादी आज अगर वैश्विक रंगमंच पर अमेरिकी साम्राज्यवाद की तरह खूंखार व रक्त पिपासु नजर नहीं आ रहे हैं तो यह बस वक्त की बात है। चीनी पूंजी के हित उसे तेजी से आक्रामकता की ओर धकेलेंगे। ऐसे में नई साम्राज्यवादी शक्ति चीन दुनिया की मजदूर-मेहनतकश जनता की वैसी ही दुश्मन है जैसे अमेरिकी साम्राज्यवादी।

आलेख

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को

/philistini-pratirodha-sangharsh-ek-saal-baada

7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक

/bhaarat-men-punjipati-aur-varn-vyavasthaa

अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।