छुट्टा पूंजीवाद, भ्रष्टाचार और राजनेता

पूंजीवाद में हमेशा से ही भ्रष्टाचार की कानूनी और गैर-कानूनी सीमा रेखा अत्यन्त धुंधली रही है। कानूनी गैर-कानूनी तथा गैर-कानूनी कानूनी बनता रहा है। इसी के हिसाब से भ्रष्टाचार सदाचार और सदाचार भ्रष्टाचार बनता रहा है। पूंजीवादी अदालतों का ढेर सारा समय कानूनी को गैर-कानूनी से अलग करने में खपता रहा है। क्या भ्रष्टाचार है और क्या सदाचार यह वकीलों की दलीलों और न्यायाधीश की समझ से तय होता रहा है।

छुट्टे पूंजीवाद के इस दौर में कानूनी और गैर-कानूनी का, भ्रष्टाचार और सदाचार का यह खेल एक बार फिर बहुत बढ़ गया है। स्थितियां पूंजीवाद के शुरूआती दौर की या फिर सं.रा. अमेरिका के ‘राबर बैरन’ (डकैत दौलतिये) के दौर की स्थितियों में जा पहुंची हैं।

पूंजीपति वर्ग द्वारा बच्चों को सुनाई जाने वाली नानी की कहानी यानी ‘लोटा-डोरी’ की कहानी से अलग पूंजीपतियों का इतिहास हमेशा से बहुत कुत्सित रहा है। आज भारत के सम्मानित टाटा-बिड़ला घरानों ने अपनी शुरूआत अफीम के व्यापार से की थी जिसमें कानूनी को गैर-कानूनी से अलग करना तब भी मुश्किल था। अंबानी घराने के धीरू भाई अंबानी के कारनामे तो जगजाहिर हैं। आज रिलायंस इंडस्ट्रीज एक सम्मानित व्यावसायिक घराना बन गया है और उसने लूट-पाट की विरासत अडाणी घराने को सौंप दी है।

अतीत में जायें तो जिन यूरोपीय कंपनियों ने एशिया, अमेरिका में व्यापार की शुरूआत की थी (ईस्ट इंडिया कंपनी, इत्यादि) उन्होंने कभी भी यह नहीं देखा कि कानूनी क्या है और गैर-कानूनी क्या। भारत के लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के इतिहास से बखूबी परिचित हैं। स्थिति इतनी विकट थी कि इसके अफसरों पर दिखावे के लिए इंग्लैण्ड में मुकदमा चलाना पड़ा था। यह जग-जाहिर बात है कि इन कंपनियों द्वारा एशिया-अमेरिका की लूट के बल पर ही यूरोप में पूंजीवाद का तेजी से विकास हुआ था।

अफ्रीका के काले लोगों को गुलाम बनाये जाने और उन्हें यूरोप-अमेरिका में बेचने का जिक्र किये बिना पूंजीवाद की कहानी अधूरी रहेगी। इसमें क्या कानूनी था और क्या गैर-कानूनी, क्या भ्रष्टाचार था और क्या सदाचार यह आज पूंजीवाद के घनघोर समर्थक भी नहीं बता सकते। और यह सब तब हुआ था जब इसी पूंजीपति वर्ग के विचारक अपने को सभ्यता का अग्रदूत बता रहे थे।

लेकिन यूरोपीय पूंजीपति वर्ग ने तब यह लूटमार केवल बाहर नहीं मचाई थी। आदिम पाप तो उन्होंने स्वयं अपने यहां ही किया था। इंग्लैण्ड में देहातों से भारी मात्रा में किसानों की बेदखली और उस इलाके का भेड़पालन के लिए चारागाहों में रूपान्तरण ही तथाकथित आदिम संचय का मूल स्रोत था। यह सामंतों ने सर्वथा गैर-कानूनी तरीके से किया था जो स्वयं को पूंजीपतियों में रूपान्तरित कर रहे थे। तब से किसानों-आदिवासियों की बेदखली और उनका सम्पत्तिहरण आज तक जारी है। यही बेदखली और सम्पत्तिहरण यूरोप से अमेरिका जाकर बसे लोगों ने किया था वहां के मूल निवासियों के खिलाफ। सं.रा.अमेरिका इसी लूटमार से बसा, विकसित हुआ और आज तक सारी दुनिया में यह कर रहा है।

पूंजीवाद के इतिहास की ये कुछ बानगियां ही यह दिखाने के लिए पर्याप्त हैं कि भ्रष्टाचार का पूंजीवाद से क्या संबंध रहा है। दिक्कत तब हो जाती है जब मध्यमवर्गीय सोच में भ्रष्टाचार सरकारी बाबुओं की घूसखोरी तक सीमित हो जाता है और बड़े पैमाने की लूटमार को इतिहास की सामान्य गति मान लिया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे एक व्यक्ति की हत्या जघन्य अपराध मानी जाती है और लाखों-करोड़ों की हत्या राष्ट्रीय गौरव।

लेकिन मध्यम वर्गीय सोच से अलग स्वयं पूंजीपति वर्ग अपने इस खूनी अतीत से पीछा छुड़ाने का लगातार प्रयास करता रहा है। इसीलिए वह ‘लोटा-डोरी’ वाली कहानी गढ़ता रहा है कि कैसे पूंजीपति हमेशा अपनी मेहनत और किफायत से बड़े बनते रहे हैं। यही नहीं, वह स्वयं अपनी व्यवस्था के दूरगामी भविष्य के मद्देनजर अपनी आंतरिक लूटमार पर लगाम लगाने का प्रयास करता रहा है। निजी सम्पत्ति की रक्षा में तमाम नियम-कानूनों का यही मकसद रहा है।

लेकिन इसी में पूंजीवाद का सबसे गहन अंतर्विरोध छिपा है। निजी सम्पत्ति की दूसरी अन्य व्यवस्थाओं की तरह पूंजीवाद भी दूसरों के श्रम के शोषण पर टिका है। सामंतवाद में सामंती वर्ग बेहद नंगे तरीके से किसानों या भू-दासों की मेहनत के फल के एक हिस्से को हड़प लेते थे। पूंजीवाद में यही होता है पर छिपे तरीके से। पूंजीपति मजदूरों के श्रम के फल के एक हिस्से को हड़प लेते हैं जिसे वे अपनी पूंजी का मुनाफा कहते हैं। ऊपरी तौर पर मजदूर को मजदूरी मिल जाने के कारण इसमें कुछ गलत नहीं लगता। पर होता यह शोषण ही है। पूंजीवाद में मजदूर के श्रम की यह वह लूट है जो कानूनी है ठीक इसी तरह जैसे सामंतों द्वारा तब किसानों या भू-दासों के श्रम की लूट कानूनी होती थी। आज वह कानूनी नहीं मानी जाती।

पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों के श्रम की यह लूट भले ही कानूनी हो पर है तो यह लूट ही। यह लूट अन्य तरह की कानूनी और गैर-कानूनी लूट को प्रेरित करती है। पहले तो पूंजीपति मजदूरों के श्रम की इसी लूट को हर गैर-कानूनी तरीके से बढ़ाना चाहते हैं। श्रम कानूनों के उल्लंघन का यही मतलब होता है चाहे वह मजदूरी को न्यूनतम से घटाने, काम के घंटे तय सीमा से बढ़ाने, बोनस-भत्ते न देने, यूनियन न बनने देने का मामला हो या कुछ और। इससे भी आगे बढ़कर पूंजीपति स्वयं कानूनों में बदलाव के जरिये आज की गैर-कानूनी लूट को कानूनी बनाना चाहते हैं। श्रम कानूनों में आज हो रहे संशोधन का यही मतलब है।

यहां से आगे बढ़कर पूंजीपति मजदूरों के श्रम की इस लूट (मुनाफे) के आपस में बंटवारे को लेकर आपस में उलझते हैं और इसमें हर संभव तरीके का इस्तेमाल करते हैं। यहां भी कानूनी, गैर-कानूनी की केवल उतनी ही परवाह की जाती है कि पकड़ में न आयें। कर चोरी से लेकर शेयर बाजार की धांधली तक सब इसी श्रेणी में आते हैं। आपसी खरीद-बेच में धोखाधड़ी इसी का हिस्सा है।

मजदूरों के श्रम की लूट पर खड़ी इस पूंजीवादी व्यवस्था से उम्मीद करना कि इसमें इस लूट में तथा फिर लूट के बंटवारे में धांधली नहीं होगी, ‘बेईमानी का धंधा ईमानदारी से होगा’, परले दरजे की मासूमियत होगी। पूंजीवाद में यह अपवाद स्वरूप ही होगा कि लूट का यह धंधा कानूनी तरीके से सम्पन्न हो।

और जब पूंजीवादी व्यवस्था के मुख्य स्तम्भ यानी स्वयं पूंजीपति कानूनी, गैर-कानूनी का निरन्तर उल्लंघन कर रहे हों तो यह सहज समझ में आने वाली बात है कि इस व्यवस्था के अन्य खिलाड़ी भी इसमें लिप्त हो जायें यानी वे लोग जिन पर इन नियमों-कानूनों को बनाने और लागू करने की जिम्मेदारी होती है। पूंजीवाद में राज्य सत्ता के विभिन्न स्तर के कारकून यह जिम्मेदारी उठाते हैं जिसमें राजनेता, नौकरशाह, पुलिस-सेना के अफसर तथा न्यायाधीश आते हैं। इनके नीचे इनके सहायक भी होते हैं- अदने से दरबान और चपरासी तक। ये सारे भी अपनी-अपनी हैसियत और पहुंच के हिसाब से भ्रष्टाचार में लिप्त होते हैं। पूंजीपतियों और इन कारकूनों में कौन भ्रष्टाचार का मांगकर्ता है और कौन आपूर्तिकर्ता यह कहना मुश्किल है।

बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध में जब पूंजीवाद दो-दो विश्व युद्धों और महामंदी की विभीषिका से बाहर आया तो इसकी वैधानिकता पर बड़े सवालिया निशान खड़े हो चुके थे। समाजवाद तब एक वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर इसे चुनौती दे रहा था। ऐसे में इसे नियमित करने की लम्बी-चौड़ी व्यवस्था की गई। यह सब ‘कल्याणकारी राज्य’ के नाम पर किया गया। इस ‘कल्याणकारी राज्य’ को पूंजीपति वर्ग ने आवश्यक बुराई के तौर पर ही स्वीकार किया तथा उसके एक हिस्से ने इसके खिलाफ जंग जारी रखी।

‘कल्याणकारी राज्य’ के इस दौर में पूंजीपति वर्ग की लूटमार पर एक अंकुश रहा और ठीक इसी कारण भ्रष्टाचार पर भी। सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार बना रहा पर उस पर एक अंकुश भी रहा। भारत में 1991 से पहले के दौर को भले ‘लाइसेन्स-परमिट राज’ का नाम दिया गया हो पर उस दौरान उस तरह के भ्रष्टाचार के मामले सामने नहीं आये जैसे बाद में आये।

यह बिन्दु महत्वपूर्ण है। जब सारी दुनिया में निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां लागू की गईं तो इसके लिए एक बड़ा तर्क यह भी दिया गया कि इससे भ्रष्टाचार कम होगा। कहा गया कि भ्रष्टाचार का कारण हर क्षेत्र में सरकार का नियंत्रण है जिसके जरिये सरकारी कारकूनों को भ्रष्टाचार करने का मौका मिलता है। अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप में कमी से यह मौका कम हो जायेगा।

पर व्यवहार में अमेरिका से लेकर भारत तक यह पाया गया कि निजीकरण-उदारीकरण के दौर में भ्रष्टाचार बेहद बढ़ गया। सरकारी सम्पत्तियों की बिक्री में धांधली से लेकर शेयर-बाजार तक सब जगह गैर-कानूनी गतिविधियों की आंधी चलने लगी। इतने बड़े-बड़े घोटाले सामने आने लगे जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। कानूनी, गैर-कानूनी के बीच फर्क एकदम मिट सा गया। इसी ने 2007-08 के भयंकर आर्थिक संकट को जन्म दिया जिसमें वैश्विक अर्थव्यवस्था ध्वस्त होते-होते बची।

भारत की बात करें तो 1990 के पहले जिस सबसे बड़े घोटाले की चर्चा रही वह बोफोर्स घोटाला था। आज ज्यादातर लोगों की याद नहीं कि इसमें घोटाले की राशि सौ करोड़ रुपया भी नहीं थी यानी आज के हिसाब से एक हजार करोड़ रुपये से कम। इसके मुकाबले पिछले दस-बारह सालों में जिन घोटालों की चर्चा हुई है उनकी राशियां लाखों करोड़ की रही हैं। गौतम अडाणी पर जिन सम्पत्तियों को लुटाये जाने की चर्चा है उनकी कीमत लाखों करोड़ रुपया बैठती है। इसी तरह 2-जी स्पेक्ट्रम या कोयला घोटाले की राशियां लाखों करोड़ रुपया थीं।

यहां यह महत्वपूर्ण है कि इन घोटालों में कानूनी; गैर कानूनी की सीमा रेखा गायब है। अदालत ने 2-जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले में आरोपियों को बरी कर दिया। तब की सरकार का यह दावा मान लिया गया कि इन घोटालों के पीछे का फैसला नीतिगत फैसला था जिसका सरकार को अधिकार था। इन घोटालों की चर्चा कर संसद में कांग्रेस को घेरने वाले मोदी की सरकार ने निचली अदालतों के फैसले के खिलाफ ऊपर अपील भी नहीं की। इसी तरह मोदी दावा कर सकते हैं कि उन्होंने गौतम अडाणी पर (और अंबानी पर भी) जो सरकारी सम्पत्तियां लुटाई हैं उनमें कुछ भी गैर-कानूनी नहीं है। यह वर्तमान सरकार की ‘नेशनल चैंपियन’ खड़ा करने की नीति का हिस्सा है। भ्रष्टाचार के मामले में आज यही महत्वपूर्ण बिन्दु है जिस पर जोर देने की आवश्यकता है। छुट्टे पूंजीवाद के इस दौर में कानूनी, गैर-कानूनी की सारी सीमाएं इतनी धुंधली हो गई हैं कि कानूनी को गैर-कानूनी से तथा भ्रष्टाचार को सदाचार से अलग नहीं किया जा सकता। अभी तक के श्रम कानूनों के हिसाब से जो सब गैर-कानूनी था उन्हें नयी श्रम संहिताओं ने कानूनी बना दिया है। पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों की जो बेलगाम लूट गैर-कानूनी और भ्रष्टाचार थी वह अब नयी श्रम संहिताओं के तहत कानूनी और सदाचार हो जायेगा। 1990 के पहले शेयर बाजार में जो विदेशी निवेश गैर-कानूनी था वह उसके बाद ‘पार्टिसिपेटरी नोट्स’ के जरिये कानूनी हो गया जिसके जरिये देश में पैदा हुआ काला धन धड़ल्ले से सफेद किया जा रहा है। सरकारी सम्पत्ति की जो हेरा-फेरी पहले गैर-कानूनी थी वह अब खुलेआम भांति-भांति के खुशनुमा नामों के तहत पूंजीपतियों को लुटाई जा रही है। ‘अवैध बस्तियों’ से गरीब मेहनतकशों को उजाड़ कर उसे ‘डिवलपर्स’ को सौंपा जा रहा है और इस तरह ‘स्मार्ट सिटी’ की परियोजना परवान चढ़ रही है।

पूंजीपति वर्ग इस सबको भ्रष्टाचार नहीं मानता। उच्च मध्यम वर्ग भी इसे भ्रष्टाचार नहीं मानता बशर्ते लूट की जूठन उसे भी मिलती रहे। मध्यम वर्ग के बाकी हिस्से इसे ‘विकास’ मान लेते हैं। इस तरह छुट््टे पूंजीवाद की बेलगाम लूटपाट जायज और वैध मान ली गई है।

ऐसे में भ्रष्टाचार का सारा मामला सरकारी बाबुओं के फुटकर भ्रष्टाचार तक सीमित हो जाता है। आम जन का वास्ता उसके वास्तविक जीवन में इसी भ्रष्टाचार से पड़ता है जिसमें वह लिप्त भी रहता है और जिससे वह दुःखी भी रहता है। और जब कभी कानूनी दांव-पेंच बड़े स्तर का भ्रष्टाचार सामने आता है तो वह भौंचक रह जाता है। सारा मामला उसकी समझ से परे चला जाता है। तब पूंजीवादी व्यवस्था के रक्षक सामने आते हैं और उसे भांति-भांति से समझाते हैं कि इस तरह के मामले अपवाद हैं, कि इसके लिए कुछ लोग दोषी हैं, कि सख्त कानूनों के जरिये इनसे निपटा जा सकता है, कि स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था का इससे लेना-देना नहीं है। कुछ इसे भौंड़े तरीके से करते हैं तो कुछ ज्यादा करीने से। कुछ इसे मोदी-शाह, अंबानी-अडाणी पर केन्द्रित कर करते हैं तो कुछ ढीले नियमों-कानूनों का हवाला देकर।

इन नीम-हकीमों के सारे प्रयास के बावजूद यह सच उजागर होकर रहेगा कि मोदी-शाह और अंबानी-अडाणी बस लक्षण हैं, रोग नहीं। जो चीज मनमोहन सिंह के जमाने में एक तरह से सामने आयी थी वही मोदी-शाह के जमाने में दूसरे तरीके से आ रही है। और वह चीज है पूंजीपति वर्ग द्वारा बेलगाम लूटपाट जिसमें कानूनी, गैर-कानूनी की सीमा रेखाएं बेहद धुंधली हो गई हैं। जिसमें गैर-कानूनी को अधिकाधिक कानूनी बनाया जा रहा है। जिसमें विधायिका, कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका तक सब शामिल हैं। मोदी-शाह की खासियत बस इतनी है कि उन्होंने अपनी नंगई और हेकड़ी से इसे अधिकाधिक सामने ला दिया है। हिन्दू फासीवादी इसके लिए बधाई के पात्र हैं!

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