दुनिया में बढ़ रहा सैन्य टकराव और कूटनीतिक चालें

रूसी राष्ट्रपति पुतिन फिर से राष्ट्रपति बन गये हैं। रूस ने द्वितीय विश्व युद्ध में विजय को विजय दिवस के रूप में समूचे रूस में मनाया। इस विजय दिवस समारोह में रूस ने अपनी सैन्य शक्ति का, आणविक हथियारों सहित अपने आधुनिक हथियारों का प्रदर्शन किया। यद्यपि, पुतिन समाजवादी सोवियत संघ के घोर विरोधी हैं, तथापि सोवियत संघ की द्वितीय विश्व युद्ध में विजय को वे मौजूदा पूंजीवादी निजाम के लिए इस्तेमाल करने में जोर-शोर से कोशिश करते रहे हैं। इस विजय दिवस से पहले और उसके बाद उन्होंने अमरीकी साम्राज्यवादियों और नाटो के सदस्य देशों को रूस के विरुद्ध आणविक हथियारों से घेरेबंदी करने के विरुद्ध चेतावनी दी और कहा कि रूस को अगर उकसाया गया तो वह थर्मोन्यूक्लीयर हथियारों का इस्तेमाल करने से नहीं हिचकेगा। इसका असर पड़ा। फ्रांस जो पहले रूस में नाटो सैनिक भेजने की हिमायत कर रहा था, बल्कि फ्रांसीसी सैनिकों को यूक्रेन में रूस के विरुद्ध भेज भी चुका था। अब पीछे हटने की ओर बाध्य हो गया। 
    
इसके पहले मास्को में आतंकवादी हमले में सैकड़ों नागरिक मारे गये। इस हमले को लेकर और नाटो के सैनिकों की यूक्रेन में उपस्थिति और लम्बी दूरी की मार करने वाली मिसाइलों की यूक्रेन में आपूर्ति को लेकर रूस ने फ्रांस और ब्रिटेन के राजदूतों को बुलाकर चेतावनी दी कि उनकी इन हरकतों से यूक्रेन युद्ध का विस्तार नाटो देशों तक हो जायेगा और इसके परिणाम भयावह होंगे। 
    
इधर अमरीकी साम्राज्यवादियों ने यूक्रेन को और ज्यादा आधुनिक हथियारों से लैस करने के लिए 61 अरब डालर की और अतिरिक्त राशि मुहैय्या कराने की योजना पेश की है। इसके अतिरिक्त पोलैण्ड ने अपने यहां आणविक हथियारों की तैनाती की भी मांग अमरीकी साम्राज्यवादियों से की है। पोलैण्ड की इस मांग पर रूस ने चेतावनी दी है कि इससे पोलैण्ड भी रूस के हमले का निशाना बन सकता है। 
    
अमरीकी साम्राज्यवादियों के एक पूर्व सैन्य अधिकारी ने, जो नाटो का पूर्व शीर्ष अधिकारी रह चुका है, कहा है कि कालीलिनग्राद को निष्क्रिय करने के काम को नाटो और अमरीका को प्राथमिकता में हाथ में लेना चाहिए। कालीनिनग्राद रूस की मुख्य भूमि से अलग बाल्टिक सागर के किनारे एक छोटा सा रूसी क्षेत्र है। यहां रूस की मिसाइलें और आणविक हथियार मौजूद हैं। रूस इस क्षेत्र से बाल्टिक सागर में नाटो की सैन्य तैनाती पर निगरानी रखता है और जवाबी कार्रवाई की तैयारी रखता है। इस इलाके से सटे हुए लिथुआनिया, लाटविया, इस्टोनिया बाल्टिक देश हैं जो रूस के विरुद्ध नाटो के सहयोगी हैं। 
    
अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं। 
    
रूस के इर्द गिर्द अमरीकी साम्राज्यवादी उसके नाटो के सहयोगी आणविक हथियारों सहित सैनिक घेरेबंदी कर रहे हैं। रूसी साम्राज्यवादी बेलारूस के साथ मिलकर जवाबी युद्धाभ्यास कर रहे हैं। वे इसके जवाब में अपनी सैनिक तैयारी कर रहे हैं।
    
लेकिन ऐसा लगता है कि अमरीकी साम्राज्यवादी खुद अपने विनाश को रोकने के लिए किसी बड़े परमाणु युद्ध की ओर दुनिया को नहीं ले जाना चाहेंगे। रूसी साम्राज्यवादी भी इसे नहीं चाहेंगे। लेकिन जिस तरह से तनाव बढ़ता जा रहा है और यूक्रेन में पश्चिम साम्राज्यवादियों को सैन्य पराजय दिखाई पड़ रही है, इस पराजय को ढंकने के लिए युद्ध का विस्तार करना अमरीकी साम्राज्यवादियों और उसके नाटो सहयोगियों की मजबूरी बनती जा रही है। अमरीकी साम्राज्यवादियों के सैन्य उद्योग का इससे फायदा हो रहा है। लेकिन यूरोप के देश इस युद्ध से तबाह हो रहे हैं। उनके अंदर समय-समय पर इस तबाही के चलते असंतोष व्यक्त होता रहा है। यूरोप के देशों की मजदूर-मेहनतकश आबादी इस युद्ध के विरोध में है। शासकों के भीतर भी अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ एक हद तक टकराव दिखाई पड़ता है। 
    
रूस के विरुद्ध लगाये गये आर्थिक प्रतिबंधों का वांछित नतीजा नहीं निकल रहा है। रूस ने अपनी गैस और तेल के लिए नया बाजार तलाश लिया है। रूस और चीन की साझेदारी और व्यापार भारी मात्रा में बढ़ा है। रूस और चीन ने अपना संयुक्त सैन्याभ्यास भी बढ़ाया है। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने चीन पर रूस की मदद न करने के बारे में बड़े पैमाने पर कूटनीतिक दबाव डालने की नाकाम कोशिशें की हैं। 
    
अमरीकी साम्राज्यवादी चीन को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वन्द्वी मानते हैं। वे दक्षिणी चीन सागर और एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीन को घेरने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। इस क्षेत्र के देशों के साथ चीन के कई विवाद भी हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी इन विवादों का इस्तेमाल करके चीन के विरुद्ध मोर्चाबंदी कर रहे हैं। चीनी साम्राज्यवादी इस स्थिति से निपटने के लिए न सिर्फ एशिया-प्रशांत क्षेत्र में बल्कि यूरोप, पश्चिम एशिया और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अमरीकी साम्राज्यवादियों की घेरेबंदी के विरुद्ध और अपने साम्राज्यवादी हितों को आगे बढ़ाने में कूटनीतिक अभियान को और तेज करते जा रहे हैं। 
    
अभी हाल ही में चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने यूरोप के तीन देशों- फ्रांस, हंगरी और सर्बिया- की यात्रा की। जहां फ्रांस के साथ बातचीत में चीन के राष्ट्रपति ने यूक्रेन मसले पर अमरीकी साम्राज्यवादियों और उसके नाटो सहयोगियों को मसले के शांतिपूर्ण समाधान में मुख्य बाधा माना और यह स्पष्ट तौर पर घोषित किया कि वह रूस की किसी भी तरह की सैन्य मदद नहीं कर रहा है। उन्होंने रूस के साथ चीन के सम्बन्धों की बढ़ती घनिष्ठता की हिमायत की और घोषित किया कि उनके रूस के साथ सम्बन्ध किसी तीसरे देश के विरुद्ध केन्द्रित नहीं हैं। शी जिन पिंग ने यह भी कहा कि रूस के हितों की, उसके सुरक्षा हितों की अनदेखी करके रूस-यूक्रेन युद्ध का कोई समाधान नहीं निकल सकता। दोहरे उपयोग वाले सेमी कण्टक्टर और चिप्स की रूस को आपूर्ति करके रूसी हथियारों के निर्माण में मदद करने के फ्रांसीसी आरोपों को चीन ने खारिज कर दिया। इसी प्रकार, इलेक्ट्रिक गाड़ियों की ‘अतिरिक्त क्षमता’ के सवाल पर चीन ने मैक्रां के आरोपों को गलत बताया। ताइवान के मसले पर चीन के एक चीन के सिद्धांत को मैक्रां ने सही माना। इन सवालों के अतिरिक्त द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ाने के सम्बन्ध में कई समझौते हुए। इस प्रकार, चीन ने एक हद तक फ्रांस के साथ अपने कूटनीतिक प्रयासों में सफलता हासिल की। 
    
हंगरी की सत्ता पहले से ही रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को पूरी तौर पर ठीक नहीं मानती रही है। चीन के साथ बातचीत में शी जिन पिंग ने ताइवान, दक्षिणी चीन सागर में अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा की गयी आक्रामक कार्रवाइयों की चर्चा की और एक चीन के सिद्धांत पर हंगरी ने सहमति व्यक्त की। दक्षिण चीन सागर और एशिया प्रशांत क्षेत्र में आवागमन की स्वतंत्रता के नाम पर जंगी जहाजों और इस क्षेत्र का सैन्यीकरण करने की अमरीकी साम्राज्यवादियों की कोशिशों को भड़काने वाली कार्रवाई बताया। 
    
चीन की सर्बिया की यात्रा इस मामले में ज्यादा महत्वपूर्ण रही कि नाटो द्वारा यूगोस्लाविया के टुकड़े-टुकड़े करने की साजिश यहीं से शुरू हुई थी। चीनी दूतावास पर अमरीकी साम्राज्यवादियों ने 1999 में बमबारी की थी। इसकी 25वीं वर्षगांठ के अवसर पर शी जिन पिंग की यह यात्रा थी। 
    
सर्बिया को आज भी नाटो गठबंधन के साथ बातचीत करने के लिए मजबूर किया जाता है। नाटो और यूरोपीय संघ सर्बिया पर लगातार इस बात के लिए दबाव डालते हैं कि वह रूस के साथ सम्बन्ध न रखे। सर्बिया (पूर्व यूगोस्लाविया) से उसके प्रांत कोसोवो और मेटोहिजा- को अलग करके उन्हें नाटो के अधीन ले लिया गया था। इसके अतिरिक्त, बोस्निया और हर्जेगोविना को सर्बिया से अलग करके वहां के सर्बों पर दबाव डाला जा रहा है। आज नाटो की शक्तियां सर्बिया का भयादोहन कर रही हैं और उसकी बांहें मरोड़ने की कोशिश कर रही हैं। इन सबके बावजूद सर्बिया अभी तक नाटो के अधीन नहीं आया है। 
    
सर्बिया एक छोटा यूरोपीय देश है। इसके चीन के साथ लम्बे समय से घनिष्ठ सम्बन्ध रहे हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने नाटो द्वारा यूगोस्लाविया पर हमला करके उसके टुकड़े-टुकड़े करने की आपराधिक कृत्य कहकर निंदा की। 1999 में चीनी दूतावास पर की गयी बमबारी को बर्बर कृत्य कहा। शी जिन पिंग ने कहा कि वर्षों पहले सर्बिया के साथ चीन के व्यापक रणनीतिक साझेदारी के समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। इस बार इस समझौते को और ऊंचा उठाकर वे ‘‘साझा भविष्य के साथ एक समुदाय का निर्माण करेंगे’’ सर्बिया मध्य और पूर्वी यूरोप में चीन का पहला व्यापक रणनीतिक साझेदार बन गया है। इस नये समझौते ने इस छोटे से यूरोपीय देश को पहला ऐसा देश बना दिया है जिसके साथ चीन ने ऐसा सम्बन्ध बनाया है। 
    
चीनी राष्ट्रपति की सर्बिया की यात्रा सर्बिया में नाटो द्वारा किये जा रहे तोड़फोड़, भयादोहन और बांहें मरोड़ने के प्रयासों के विरुद्ध मजबूती से खड़ा होने में मदद करेगा। यूरोप के भीतर रूस, बेलारूस, सर्बिया के साथ एकजुटता को मजबूत करते हुए चीन की भूमिका अमरीकी साम्राज्यवादियों, नाटो और यूरोपीय संघ के विरोध में बड़ी हो जायेगी। इसी प्रकार, यूरोप के ये देश दक्षिण चीन सागर, ताइवान और व्यापक एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा चीन को घेरने की नीति का ज्यादा एकजुटता के साथ सक्रिय विरोध करेंगे। 
    
इसी प्रकार, पश्चिम एशिया में गाजा पट्टी में इजरायली नरसंहार के विरुद्ध फिलिस्तीनियों के समर्थन में चीन और रूस, ईरान और सीरिया के साथ मिलकर किसी न किसी रूप में प्रतिरोध की धुरी की शक्तियों की मदद कर रहे हैं और इस क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवादियों के प्रभुत्व को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। 
    
इस तरह यह देखा जा सकता है कि दुनिया में दोनों साम्राज्यवादी खेमों में सैनिक टकराव और कूटनीतिक दांवपेंच बढ़ते जा रहे हैं। एक तरफ, अमरीकी साम्राज्यवादी, नाटो और यूरोपीय संघ के देश हैं और दूसरी तरफ रूसी और चीनी साम्राज्यवादी हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी समूची दुनिया के शासकों के बीच अपने सहयोगी तलाश रहे हैं। वहीं रूसी और चीनी साम्राज्यवादी अलग-अलग क्षेत्रीय संगठनों- ब्रिक्स, शंघाई सहकार संगठन इत्यादि का विस्तार कर रहे हैं। ये बाद वाले साम्राज्यवादी न सिर्फ सैनिक, राजनीतिक और कूटनीतिक तौर पर पहले वालों को चुनौती दे रहे हैं बल्कि आर्थिक, व्यापारिक और वित्तीय तौर पर भी चुनौती देने की स्थिति में आ रहे हैं। डालर आधारित दुनिया की मौद्रिक व्यवस्था का नया विकल्प बनाने की कोशिश कर रहे हैं। 
    
इस सबसे सभी क्षेत्रों में आगामी समय में दुनिया में टकराव, संघर्ष और प्रतिस्पर्धा और तेज होगी। इसके परिणामस्वरूप अमरीकी साम्राज्यवादियों का प्रभुत्व और कमजोर होने की ओर जा सकता है।  

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

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पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।