फासीवाद के विरुद्ध युद्ध के विजय के 80 वर्ष और फासीवादी उभार

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9 मई 1945 को फासीवादी जर्मनी के आत्मसमर्पण करने के बाद फासीवाद के विरुद्ध युद्ध में विजय मिल गयी थी। हालांकि इस विजय के चार महीने बाद जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में अमरीका द्वारा परमाणु बम गिराने के बाद द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति की घोषणा हुयी थी। द्वितीय विश्व युद्ध में अकेले समाजवादी सोवियत संघ के 2 करोड़ 70 लाख लोग मारे गये थे। यह समाजवादी सोवियत संघ ही था जिसने हिटलर के नाजीवाद को पराजित करने में निर्णायक भूमिका निभायी थी। अमरीका सहित पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी देश द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने के पहले से हिटलर के युद्ध उद्योग को बढ़़ाने में मदद कर रहे थे। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के पहले से ही समाजवादी सोवियत संघ फासीवाद के विरुद्ध एक व्यापक मोर्चा बनाने की मांग कर रहा था। इस मांग को संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस लगातार ठुकरा रहे थे। बल्कि, इसके उलटा वे हिटलर के जर्मनी के साथ समझौता कर रहे थे। वे लगातार हिटलर को पूर्व की ओर, सोवियत समाजवादी संघ के ऊपर हमला करने के लिए उकसा रहे थे। समाजवादी सोवियत संघ और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल 1935 से फासीवाद के विरुद्ध मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहा था। जब समाजवादी सोवियत संघ की मांग इन पश्चिमी ताकतों ने नहीं मानी, तब सोवियत संघ ने जर्मनी के साथ अनाक्रमण संधि यह जानते हुए भी की कि हिटलर कभी भी सोवियत संघ पर आक्रमण कर सकता है। आखिरकार, 1941 में हिटलर ने सोवियत संघ पर बड़े पैमाने का आक्रमण कर दिया। 
    
हिटलर द्वारा सोवियत संघ पर हमला करने के बाद भी अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस की घोषित नीति थी कि जर्मनी और समाजवादी सोवियत संघ को एक दूसरे से लड़ने दो और दोनों में जो जीतेगा, उसके विरुद्ध वे लड़ने के लिए उतरेंगे। समाजवादी सोवियत संघ ने लगातार पश्चिम में एक नया फासीवाद विरोधी मोर्चा खोलने की इन ताकतों से मांग की। लेकिन समाजवादी सोवियत संघ की मांग को अनसुना कर दिया गया। इस दौरान यानी 1941 से लेकर 1943 तक समाजवादी सोवियत संघ ने अपने उद्योगों को पश्चिम से ले जाकर पूर्व की ओर कर दिया। समूचा पश्चिमी इलाका खाली कर दिया गया। पश्चिमी इलाकों में छापामार युवा गार्ड की टुकड़ियों को फासीवादियों के विरुद्ध कार्रवाइयां करने के लिए छोड़ दिया गया। इन दो वर्षों के दौरान हिटलर की फासीवादी सेनायें सोवियत संघ को रौंदते हुए आगे बढ़़ती गयीं। 1943 में जाकर सोवियत संघ की लाल सेना ने प्रत्याक्रमण करना शुरू किया। इस दौरान फासिस्ट जल्लादों ने सोवियत संघ की अवाम पर बेरहमी से अत्याचार किये। गांव के गांव जला डाले। लाखों लोगों की हत्यायें कीं और यातना शिविरों में प्रताड़ित किया। जब समाजवादी सोवियत संघ की लाल सेना ने प्रत्याक्रमण शुरू किया और हिटलर की फासीवादी सेना को खदेड़ते हुए बर्लिन की ओर वे गये तो उन्हें अलग-अलग देशों के फासिस्ट विरोधी छापामार संगठनों का व्यापक समर्थन मिला। इसमें यूगोस्लाविया का नाम विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। आज उसी यूगोस्लाविया को साम्राज्यवादियों ने कई-कई टुकड़ों में बांट दिया है। 
    
अमरीका सहित पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने उस समय पश्चिम में मोर्चा खोला, जब समाजवादी सोवियत संघ की लाल सेना बर्लिन की ओर कूच कर रही थी। 1944 में नारमण्डी में अमरीकी और ब्रिटिश फौज उतरी। उनको यह भय था कि कहीं फासीवाद के विरुद्ध युद्ध का श्रेय अकेले सोवियत समाजवादी संघ को न चला जाए। 1944 में विश्व युद्ध में मित्र शक्तियों- अमरीका और ब्रिटेन के उतरने का यह भी मकसद था कि युद्ध की समाप्ति के बाद की दुनिया में अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को आगे बढ़ाया जाये।
    
यही कारण है कि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अमरीकी साम्राज्यवादी यूरोप को बांटने में लग गये। जैसे ही विश्वयुद्ध समाप्त हुआ, समाजवादी सोवियत संघ की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी थी। पूर्वी यूरोप के देशों में फासिस्ट विरोधी सरकारें आयीं। लेकिन साम्राज्यवादी अमरीका ने शीतयुद्ध की शुरूवात कर दी। कम्युनिज्म के खतरे से निपटने के लिए, उसे रोकने के लिए उसने समूची दुनिया में फौजी गठबंधन बनाये। तब से लेकर आज तक अमरीकी साम्राज्यवादियों का दुनिया के अलग-अलग इलाकों में कठपुतली सरकारों को बनाने, तख्तापलट कराने, सैनिक तानाशाहियों को स्थापित करने तथा ‘‘हुकूमत परिवर्तन’’ कराने का रक्त रंजित इतिहास है। 
    
आज जब फासीवाद के विरुद्ध युद्ध में विजय के 80 वर्ष बीत चुके हैं, तब डोनाल्ड ट्रम्प यह दावा करते हैं कि फासीवाद के विरुद्ध युद्ध में अमरीका ने सबसे बड़ी भूमिका निभायी थी, तो यह कोरी बकवास और पाखण्ड के सिवाय कुछ नहीं है। अमरीका और पश्चिमी यूरोप द्वारा निभाई गयी भूमिका की ऊपर चर्चा की जा चुकी है। 
    
हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 
    
यहां यह भी ध्यान में रखने की बात है कि महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध के दौरान समाजवादी सोवियत संघ द्वारा गौरवशाली भूमिका निभाई गयी। रूस के मौजूदा पूंजीवादी शासक राष्ट्रपति पुतिन अपने आप को इस गौरवशाली भूमिका के उत्तराधिकारी के रूप में पेश करते हैं। राष्ट्रपति पुतिन रूस के अंदर इजारेदार पूंजीपतियों के प्रतिनिधि हैं जबकि महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध समाजवादी सोवियत संघ की लाल सेना द्वारा लड़ा गया था। मजदूर-मेहनतकश वर्ग के राज्य ने फासीवाद को पराजित किया था। यह राज्य रूस के अंदर पूंजीपति वर्ग और अन्य प्रतिक्रियावादी वर्गों को बलात सत्ता से हटाकर अस्तित्व में आया था। आज पुतिन रूस के अंदर उन्हीं वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनको सत्ता से हटाकर समाजवादी सोवियत संघ अस्तित्व में आया था। पुतिन का यूक्रेन में आक्रमण किसी पवित्र आकांक्षा से नहीं बल्कि एक साम्राज्यवादी विस्तार की आकांक्षा का परिचायक है। वह यूक्रेन में रूसी साम्राज्यवाद का प्रभुत्व चाहते हैं। जबकि नाटो और अमरीका अपना साम्राज्यवादी विस्तार यूक्रेन तक करना चाहते थे। अब तो यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है कि यूक्रेन के जेलेन्स्की को मोहरा बनाकर अमरीकी साम्राज्यवादी और उसके नाटो सहयोगी उसे अपने प्रभुत्व के अंतर्गत लाना चहते थे। वे चाहते थे कि इसके जरिए रूस को कमजोर किया जाए या उसके कई टुकड़े करके उसे भी अपने प्रभुत्व के अधीन ले आया जाये। 
    
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रूस पर तमाम आर्थिक प्रतिबंध लगाकर, उसे अलग-थलग करने की कोशिश की गयी। इस सबसे रूस का कुछ खास नहीं बिगड़ा। बल्कि इसके विपरीत नाटो और अमरीका द्वारा तमाम आधुनिक हथियारों की यूक्रेन को आपूर्ति करने के बावजूद युद्ध के मैदान में उन्हें रूस को हराना सम्भव नहीं लगा। 
    
इस बात को समझकर ट्रम्प रूस के साथ समझौता करने के लिए जेलेन्स्की को मजबूर कर रहा है। जबकि यूरोपीय देश ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और पोलैण्ड जेलेन्स्की के पीछे खड़े होकर एकतरफा तौर पर रूस को चेतावनी दे रहे हैं कि या तो वह बिना शर्त 30 दिन का युद्ध विराम स्वीकार करे या साझे यूरोप के हमले के लिए तैयार रहे। स्वाभाविक है कि रूस ने इसे पूर्णरूपेण अस्वीकार कर दिया है। उसने जेलेन्स्की के समक्ष इस्तांबुल में समझौता वार्ता का प्रस्ताव रखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि ट्रम्प के दबाव के आगे जेलेन्स्की इस वार्ता के प्रस्ताव को मानने के लिए विवश हुआ है। 
    
चाहे रूस हो या यूक्रेन हो या यूरोप के अन्य देश सभी जगहों पर घोर दक्षिणपंथी ताकतें, यहां तक कि फासीवादी रुझान रखने वाली ताकतें मजबूत हो रही हैं। रूस के शासक पुतिन रूस के अंदर अंधराष्ट्रवाद की आंधी के जरिए इस समय ताकतवर दिखाई पड़ रहे हैं। जेलेन्स्की यूक्रेन में मार्शल कानून के जरिए शासन कर रहे हैं। उनका मूलमंत्र रूस विरोध है। रोमानिया में फासिस्ट प्रवृत्ति रखने वाले सज्जन चुनाव में पहले चक्र में आगे दिखाई दे रहे हैं। जर्मनी में एएफडी (घोर दक्षिणपंथी पार्टी) ताकतवर हो रही है। इटली में मेलोनी सरीखे घोर प्रतिक्रियावादी सत्ता में है। फ्रांस में ली पेन की पार्टी का प्रभाव पहले से ज्यादा मजबूत हुआ है। 
    
चीन के शी जिनपिंग बार-बार ‘अपमान की शताब्दी’ का राग अलापकर अपने विश्व प्रभुत्व की आकांक्षा को परवान चढ़ा रहे हैं। ‘‘अपमान की शताब्दी’’ की साम्राज्यवाद-विरोधी शब्दावली साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने का एक हथियार है। यहां भी वही फासीवादी प्रवृत्तियां उभर कर दिखाई दे रही हैं जिन्हें साम्राज्यवाद विरोध के पाखण्डपूर्ण नारों से ढंका जा रहा है। 
    
सर्वोपरि अमरीकी साम्राज्यवादी सरगना डोनाल्ड ट्रम्प अपनी धमकियों और चालों से दुनिया में उथल-पुथल के कारक बन रहे हैं। वे कभी गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को हटा कर वहां रिबेरा बनाने की बात करते हैं तो कभी ईरान को धमकी देते हैं कि यदि उसने अपने परमाणु कार्यक्रम नहीं रोके तो उसे नर्क बना देंगे। वे मैक्सिको, पनामा, ग्रीनलैण्ड और कनाडा को धमकी देकर अपने में मिलाने या अपने लिए विशेष सुविधा लेने की बात करते हैं। अपने देश के भीतर वे नागरिकों की निगरानी करने और अलकटराज जेल को फिर से खोलने की कार्रवाईयों में लगे हैं। वे घोर श्वेत नस्लवादी रवैय्या अपने यहां के नागरिकों के प्रति अपनाते हैं। 
    
एक समय में हिटलर ने 60 लाख यहूदियों का नरसंहार किया था। लेकिन आज यहूदी नस्लवादी इजरायली हुकूमत फिलिस्तीनियों का नरसंहार जारी रखे हुए है। समूची गाजापट्टी को धूल धूसरित किया जा चुका है। पश्चिमी किनारे में उसका कत्लेआम और निष्कासन जारी है। ये सारी हरकतें एक धुर दक्षिणपंथी सत्ता ही कर सकती है। 
    
यहां हमारे देश में हिन्दू फासीवादी सत्तानसीन हैं जो अल्पसंख्यकों विशेष तौर पर मुसलमानों पर हमले कर रहे हैं। उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने पर आमादा हैं। उनके धार्मिक स्थलों पर भगवाधारी गुण्डे अपने झण्डे फहरा रहे हैं। ये सारे कदम उनकी फासीवादी प्रवृत्ति को दर्शाते हैं। 
    
आज जब दुनिया भर में फासीवाद के विरुद्ध युद्ध की 80वीं वर्षगांठ मनायी जा रही है तो मौजूदा समय के फासीवाद के खतरे के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए उससे सबक लेने की जरूरत है। सबसे बड़ा मजाक यह है कि फासीवादी ताकतों का एक हिस्सा भी इस विजय दिवस को मना रहा है। इस पाखण्ड का पर्दाफाश करके फासीवाद विरोधी संघर्ष आगे बढ़ाना है। 

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