पिछले दो महीने से ज्यादा समय से इजरायल की नेतन्याहू सरकार न्यायपालिका के अधिकारों में कटौती करने की योजना पर आगे बढ़ने का प्रयास कर रही है। इसके विरुद्ध विरोधी पार्टियों के नेतृत्व में लोग बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इजरायल की धुर दक्षिणपंथी यहूदी नस्लवादियों से मिलकर बनी सरकार न्यायपालिका के परों को कतरने की योजना के तहत ये बदलाव यह कहकर कर रही है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र से आगे जाकर राजनीतिक मामलों में दखलंदाजी कर रहा है। दक्षिणपंथी सरकार चाहती है कि न्यायपालिका के फैसलों को उलटने का अधिकार संसद के पास होना चाहिए। इसी प्रकार, न्यायालयों के न्यायाधीशों के चयन में सरकार की निर्णायक भूमिका रखने की सरकार की योजना है। कुल मिलाकर यह दक्षिणपंथी सरकार चाहती है कि न्यायालय कार्यपालिका के अधीन हो। विरोधी पार्टियां इसी का विरोध कर रही हैं। वे इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कुचलने और तानाशाही लादने की कोशिश बता रही हैं।
इजरायल के राष्ट्रपति भी सरकार से इस नये कानून को लागू करने से पहले संसद में आम सहमति बनाने की अपील कर रहे हैं। राष्ट्रपति की अपील का विरोधी पार्टियों ने इस शर्त के साथ स्वागत किया है कि तब तक सरकार इस कानून को संसद में पेश न करे। नेतन्याहू की दक्षिणपंथी सरकार इस कानून को लागू करने पर आमादा है। उसके मंत्री राष्ट्रपति की अपील को पाखण्डपूर्ण करार दे रहे हैं। इसके बावजूद, नेतन्याहू की सरकार ने एक सप्ताह के लिए इस कानून को संसद में पेश करने से रोक दिया है। लेकिन वह भी हर हालत में इस कानून को लागू करने के लिए आमादा है।
असल में इस विवाद का और इस कानून को पेश करने का तात्कालिक कारण नेतन्याहू के एक मंत्री को न्यायालय द्वारा सजा सुनाये जाने के बाद भी मंत्री बनाये जाने से रोकने सम्बन्धी फैसला है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि नेतन्याहू पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे हुए हैं। और इन आरोपों में उन्हें सजा न हो सके इसलिए ऐसा कानून पारित करना चाहते हैं। विरोधी पार्टियों का यह भी कहना है कि आगे चल कर नेतन्याहू सरकार ऐसा कानून ला सकती है कि प्रधानमंत्री के विरुद्ध उस समय भी उनके प्रधानमंत्रित्व काल से सम्बन्धित कोई मुकदमा न चल सके, जब वे प्रधानमंत्री न रह जायें।
विरोधी पार्टियां भी इजरायल के अंदर फिलीस्तीनी आबादी के प्रति किये गये जा रहे दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार और फिलिस्तीनी इलाकों में जबरदस्ती उनको उजाड़कर यहूदी बस्तियों को बसाने वाले कारनामों के बारे में कोई विरोध नहीं कर रही हैं। उनका इस मामले में भी कोई विरोध नहीं हैं कि इजरायली सेना और यहूदी नस्लवादी लगातार फिलीस्तीन के इलाके में खूनी हमले कर रहे हैं। न ही विरोधी पार्टियों का नेतृत्व मजदूरों को अधिकार विहीन करने की इजरायली सरकार की कोशिशों का विरोध कर रहा है। वे धुर दक्षिणपंथी यहूदी नस्लवाद की जगह नरमपंथी यहूदी नस्लवाद को कायम करना चाहते हैं और ऐसा न होने पर इसी को जनतंत्र पर हमला बता रहे हैं। उनका जनतंत्र भी खाते-पीते यहूदी नस्लवादियों के लिए है। इसी सीमा के भीतर वे न्यायपालिका की स्वतंत्रता चाहते हैं।
जबकि हकीकत यह है कि इजरायल और फिलिस्तीन के गाजापट््टी व पश्चिमी किनारे के इलाके जिस पर इजरायल ने कब्जा कर रखा है व पूर्वी जेरूशलम में इस समय 68 लाख फिलीस्तीनी रहते हैं। और लगभग इतनी ही आबादी इजरायली यहूदियों की है। इजरायली यहूदी सुविधाप्राप्त हैं और फिलीस्तीनी आबादी के साथ भेदभाव किया जाता है। कुछ इलाकों में फिलीस्तीनी आबादी की अधिकार विहीनता व भेदभाव इतना विकराल है कि वह मानवता के विरुद्ध अपराध की श्रेणी में आता है। यह नस्लीय भेदभाव और प्रताड़ना फिलीस्तीनियों के लिए रोजमर्रा की बात है।
जहां एक समय फिलीस्तीनियों के संघर्ष का अधिकांश अरब देशों के शासक समर्थन करते थे, वहीं वर्तमान में अधिकांश शासक अब इजरायल के साथ अपने संबंधों को ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं। इन्हीं अरब शासकों ने इजरायल के साथ मिलकर अमरीकी साम्राज्यवादियों की छत्रछाया में अब्राहम समझौता किया था। इस समझौते के तहत इजरायली शासक साउदी अरब के साथ सम्बन्धों को सामान्य कर रहे हैं। इजरायली शासकों ने संयुक्त अरब अमीरात, बहराइन, मोरक्को और सूडान के साथ भी रिश्ते सामान्य करने के समझौते किये हुए हैं।
जहां वर्तमान विरोध आंदोलन न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए हो रहा है, वहीं फिलीस्तीनियों की हत्यायें और नरसंहार भी हो रहे हैं। 2022 में फिलीस्तीनी आबादी के 171 लोगों की हत्यायें संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार इजरायली सशस्त्र बलों द्वारा की गयी हैं। इजरायल वस्तुतः एक नस्लीय भेदभाव वाला राज्य है। इस राज्य के भीतर फिलीस्तीनी आबादी को कोई भी जनतांत्रिक अधिकार नहीं हैं।
वर्तमान समय में 1967 से इजरायल द्वारा कब्जा किया गये फिलीस्तीनी क्षेत्र में अत्यन्त भेदभाव भरी दोहरी कानूनी और राजनीतिक प्रणालियां हैं, जिसमें पूर्वी जेरूसलम और पश्चिमी किनारे की गैर कानूनी तौर पर बसी 300 बस्तियों में करीब 7 लाख सुविधाग्रस्त यहूदी बसे हुए हैं। वहीं करीब 30 लाख फिलीस्तीनी संस्थागत भेदभाव भरे दमनकारी शासन के अंतर्गत रहते हैं। इन्हें वह फिलीस्तीनी राज्य नहीं मिला है जिसका वायदा इनसे किया गया था। वास्तव में इजरायली राज्य में ऐसी राजनीतिक हुकूमत है जिसमें सचेत तरीके से और प्राथमिकता देकर ऐसा बुनियादी राजनीतिक, कानूनी और सामाजिक तंत्र खड़ा किया गया है जिसमें नस्ल के आधार पर आबादी का एक हिस्सा दूसरे पर अपनी प्रभुता कायम किये हुए है।
यह कोई अकारण नहीं है कि इजरायल ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 28 प्रस्तावों का उल्लंघन किया है। ये ऐसे प्रस्ताव हैं जिन्हें मानना सदस्य देशों के लिए कानूनी तौर पर बाध्यकारी हैं।
यह इसलिए संभव होता रहा है क्योंकि इजरायल के पीछे अमरीकी साम्राज्यवादियों की ताकत खड़ी रही है। आज भी अमरीकी साम्राज्यवादी और उनके सहयोगी यूरोपीय साम्राज्यवादी देश इजरायल को पश्चिमी एशिया में एकमात्र जनतांत्रिक देश घोषित करते हैं।
अमरीकी साम्राज्यवादियों की फौज ने अभी हाल में ही इजरायली फौज के साथ संयुक्त सैन्याभ्यास किया है। वे पश्चिमी एशिया में अपनी धौंसपट्टी बनाये रखने के लिए अभी भी एक मजबूत सहयोगी के बतौर इजरायल को देखते हैं। वे विश्व व पश्चिमी एशिया में अपना दबदबा बनाये रखने की कोशिश में रूस-चीन और ईरान के बीच बने गठबंधन के लिए इजरायली यहूदी नस्लवादी हुकूमत को हर तरह से मजबूत कर रहे हैं।
अभी हाल ही में ब्लिंकन ने इजरायल में जाकर हो रही हिंसा पर चिंता जाहिर की। फिलीस्तीनी प्राधिकार के नेता मोहम्मद अब्बास से हिंसा समाप्त करने की बात की। लेकिन फिलीस्तीनी राज्य की स्वतंत्रता के बारे में चुप्पी साधे रखी। अमरीकी राष्ट्रपति बाइडेन ने भी इजरायली हुकूमत द्वारा न्यायपालिका पर किये जा रहे हमलों के बारे में यह कहा कि वहां की सरकार को विरोधी पार्टियों से सहमति बनाकर ऐसे सुधार लागू करने चाहिए।
यानी अमरीकी साम्राज्यवादी फिलीस्तीनी आबादी के साथ भेदभाव, अन्याय, उत्पीड़न और नरसंहार करने वाली इजरायली हुकूमत के पतन के साथ घनिष्ठता से जुड़ी हुई है। इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने का काम इजरायली और फिलीस्तीनी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में ही किया जा सकता है। मौजूदा न्यायपालिका की स्वतंत्रता के विरुद्ध संघर्ष यदि इस व्यापक संघर्ष का हिस्सा नहीं बनता, तो यह वस्तुतः जनतंत्र के लिए संघर्ष नहीं होगा।