इंकलाब जिंदाबाद -रामवृक्ष बेनीपुरी

23 मार्च : भगत सिंह के शहादत दिवस पर

(इस लेख को लिखने के कारण रामवृक्ष बेनीपुरी जी को ब्रिटिश सरकार ने डेढ़ साल सख्त कारावास की सजा दी थी।)

अभी उस दिन की बात है हिंदुस्तान की नामधारी पार्लियामेंट- लेजिस्लेटिव असेंबली में बम का धड़ाका हुआ। उसका धुआं विद्युत तरंग की तरह भारत के कोने-कोने में फैल गया। बड़े-बड़े कलेजे वालों के होश गायब हुए, आंखें बंद हुई, मूर्च्छा की हालत में कितना ही के मुंह से अंट-संट बातें भी निकलीं।

उस धुएं में एक पुकार थी, जो धुएं में विलीन हो जाने पर भी लोगों के कानों को गुंजित करती रही। वह पुकार थी- ‘इंकलाब जिंदाबाद’।

‘लान्ग लिव रिवाल्यूशन’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘विप्लव अमर रहे’, इस पुकार में ना जाने क्या खूबी थी कि असेम्बली से निकल कर भारत की झोंपड़ी-झोंपड़ी को इसने अपना घर बना लिया। देहात के किसी तंग रास्ते में जाइए, खेलते हुए कुछ बच्चे आपको मिलेंगे। अपने धूल के महल को मिट्टी में मिला कर उनमें से एक उछलता हुआ पुकार उठेगा- ‘इंकलाब’। एक स्वर में उसके साथ ही जवाब देंगे- ‘जिंदाबाद’, फिर छलांग भरते हुए, वे नौ-दो-ग्यारह हो जाएंगे।

सरकार की नजर में यह पुकार राजद्रोह की प्रतिमा थी, हमें से कुछ के विचार में इसमें हिंसा की बू थी। इसके दबाने की चेष्टाएं हुईं। किंतु सारे प्रयत्न व्यर्थ हुए। लाहौर कांग्रेस के सभापति पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषण को इसी पुकार से समाप्त कर इस पर वैधता की मुहर लगा दी। अब तो यह हमारी राष्ट्रीय पुकार हो गई है।

हम नौजवान इस पुकार पर क्यों आशिक हैं? क्रांति को हम चिरंजीवी क्यों देखना चाहते हैं? क्या इसमें हमारी विनाशप्रियता की गंध नहीं है?

युवक समझते हैं कि हमारी सरकार, हमारा समाज, हमारा परिवार आज जिस रूप में है वह बर्दाश्त करने लायक, निभाने लायक, किसी तरह काम चलाने लायक भी नहीं है। उसमें व्यक्तित्व पनप नहीं सकता। बंधुत्व और समत्व के लिए उसमें स्थान नहीं, मनुष्य के जन्म सिद्ध अधिकार-स्वातंत्र्य तक का वह दुश्मन है। आज मनुष्यता इस मशीन में पिस रही है, छटपटा रही है, कराह रही है। कुछ जोड़-तोड़, कुछ कांट-छांट, कुछ इधर-उधर से अब काम चलने वाला नहीं। यह घर कभी अच्छा रहा हो, किंतु अब जान का खतरा हो चला है। अतः हमें इसे ढहा देना चाहते हैं, जमींदोज कर देना चाहते हैं। क्योंकि इस जगह पर, हम अपने लिए एक नया सुंदर हवादार मकान बनाना चाहते हैं। हम विप्लव चाहते हैं, क्या सलाह-सुधार से हमारा काम नहीं चल सकता।

और हम चाहते हैं विप्लव अमर हो, क्रांति चिरंजीवी हो, क्यों? क्योंकि मनुष्य में जो राक्षस है, उसकी हमें खबर है। और खबर है, इस बात की कि यह राक्षस, राक्षस की तरह बढ़ता और मनुष्य को आत्मसात कर लेता- उसे राक्षस बना छोड़ता है। इसलिए यह राक्षस शक्तिसंचय ना करने पाए, मनुष्यता को कुचलने ना पाए। हम क्रांति का कुठार लिए, उसके समक्ष सदा बद्धपरिकर रहना चाहते हैं। क्रांति अमर हो, मानवता पर राक्षस का राक्षस राज ना हो। क्रांति अमर हो, जिसमें कंटीले ठूंठ, विश्व वाटिका के कुसुम कुंजों को कंटक कानन न बना डालें; क्रांति अमर हो जिसमें संसार में समता का जल निर्मल रहे, कोई सेंवार उसे गंदला और विषैला ना कर दे। प्रवंचना, पाखंड, धोखा, दगा के स्थान पर सदाशयता, सहृदयता, पवित्रता और प्रेम का बोलबाला हो- इसलिए विप्लव अमर हो, क्रांति चिरंजीवी हो।

विनाश के हम प्रेमी नहीं किंतु विनाश की कल्पना-मात्र से ही हममें कंपकंपी नहीं लाती क्योंकि हम जानते हैं कि बिना विकास के काम नहीं चल सकता। इंकलाब जिंदाबाद का प्रवर्तक आज हममें नहीं रहा, विप्लव के पुजारी की अंतिम शैय्या सदा से फांसी की टिकटी रही है। भगत सिंह अपने वीर साथियों- सुखदेव और राजगुरू के साथ हंसते-हंसते फांसी पर झूल गया। हंसते-हंसते, गाते-गाते- मेरा रंग दे बसंती चोला। सुना है उसने मजिस्ट्रेट से कहा- तुम धन्य हो मजिस्ट्रेट कि यह देख सके कि विप्लव के पुजारी, किस तरह हंसते-हंसते मृत्यु का आलिंगन करते हैं। सचमुच मजिस्ट्रेट धन्य था, क्योंकि न केवल हमें, किंतु उसके मां-बाप, सगे-संबंधियों को भी उनकी लाश तक देखने को न मिली। हां, सुनते हैं कि किरासन के तेल में अधजले मांस के कुछ पिंड, हड्डियों के कुछ टुकड़े और इधर-उधर बिखरे खून के कुछ छींटे मिले हैं। जहे किस्मत!

भगत सिंह नहीं रहा, गांधी का आत्मबल, देश की सम्मिलित भिक्षावृत्ति, नौजवानों की विफल चेष्टाएं- कुछ भी, उसे नहीं बचा सका। खैर भगत सिंह ना रहा, उसकी कार्यपद्धति आज देश को पसंद नहीं, किंतु उसकी पुकार तो देश की पुकार हो गई है। और केवल इस पुकार के कारण भी वह देश के लिए अजर-अमर हो गया।

आज भारत का जर्रा-जर्रा पुकार रहा है- इंकलाब जिंदाबाद !

आलेख

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तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

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यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।