किसी भी कीमत पर चुनावी जीत हासिल करने की साजिश

भारतीय जनता पार्टी किसी भी कीमत पर लोकसभा के चुनाव जीतना चाहती है। विपक्षी पार्टियों के नेताओं को जेल में डालना, नेताओं की खरीद-फरोख्त, विपक्षी पार्टियों के बैंक खातों को जब्त करना आदि तौर-तरीके से भाजपा चुनाव को जीतने के लिए हर वैध-अवैध तरीका अपना रही है। जिन विपक्षी नेताओं को भाजपा कल तक महाभ्रष्टाचारी कहकर उनकी निन्दा व उनका अपमान करती थी, उन नेताओं को ठीक चुनाव के पहले उसने न केवल अपनी पार्टी में शामिल (नवीन जिन्दल, गीता कोड़ा इत्यादि) कर लिया बल्कि उनको अपनी पार्टी का उम्मीदवार ही बना दिया है। 
    
नवीन जिन्दल, गीता कोड़ा जैसे भ्रष्टाचारी अरबपति-करोड़पति राजनेता आज भाजपा की आंख के तारे बन गये हैं। चाल, चरित्र जैसी तमाम नैतिकता की बातें करने वाला हिन्दू फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एकदम मौन है। और यह कोई छुपी बात नहीं है कि यह सब करने वाले उसी की पाठशाला से निकले हैं। मोदी, शाह के कारनामों से संघ को न कल गुरेज था और न आज है। इनकी नैतिकता की बातें खोखली और अवसरवादी हैं। 
    
किसी भी कीमत पर किसी भी तरह से चुनाव जीतने की मंशा भाजपा-संघ के फासीवादी चरित्र के अनुरूप है। और वे जानते हैं कि यदि वे सत्ता से बाहर हुए तो उनके विरोधी भी उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेंगे। जो कुछ मोदी-शाह-भागवत एण्ड कम्पनी ने सत्ता में रहने के दौरान विपक्षी पार्टियों के साथ किया है अपनी बारी में उन्हें इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। किसी भी कीमत पर किसी भी तरह से चुनाव जीतने की कोशिश भय के साथ-साथ छुपी हुयी हताशा का भी इजहार कर रही है। 
    
छुपी हुयी हताशा ही तो उन्हें मजबूर कर रही है कि ये विपक्षी पार्टियों के साथ इस तरह का व्यवहार करें अन्यथा अपने को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहने वाली भाजपा को क्यों विपक्षी पार्टियों के नेताओं को आयात करना पड़ रहा है या उनके खिलाफ क्रूर कार्यवाहियां ठीक चुनाव के पहले करनी पड़ रही हैं। दिल्ली, झारखण्ड के मुख्यमंत्री क्यों जेल में ठूंस देने पड़े हैं। 
    
एक वजह यह भी है कि कई राज्य ऐसे हैं जहां भाजपा पिछले दो चुनावों में हासिल बढ़त को खोती हुयी सी दिख रही है। हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, दिल्ली ऐसे राज्य हैं जहां भाजपा अपना पहले वाला प्रदर्शन शायद ही दुहरा सके। राजस्थान, गुजरात, बिहार, हिमाचल, उत्तराखण्ड आदि ऐसे राज्य हैं जहां वह शिखर पर रही है परन्तु कोई आश्चर्य की बात नहीं कि वह यहां अपने शिखर से फिसल जाये। वह अपना पिछला प्रदर्शन या शिखर पर अपनी स्थिति को तभी बरकरार रख सकती है जब वह किसी भी कीमत पर किसी भी तरह से चुनाव जीतने की अपनी मंशा को हकीकत में उतारे। और उसने इस साधारण सी बात को बहुत दिन हुए समझ लिया था कि वह इन राज्यों में अपना पूर्व प्रदर्शन आसानी से नहीं दुहरा सकती है। कदाचित यही वजह है कि उसने महाराष्ट्र में पहले शिवसेना और फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में पूरे धन बल, छल बल के साथ फूट करवाई। और ठीक ऐसा ही काम कुछ बदले रूप में बिहार में नीतिश कुमार के साथ किया। जयंत चौधरी जैसी ‘‘चवन्नियां’’ तो पूरे भारत में पहले से ही थीं जो इन फासीवादियों के इशारे पर हमेशा पलटने को तैयार रहती हैं। और ऐसी कई चवन्नियां इस वक्त भाजपा की जेब में हैं। 
    
मोदी-भाजपा-संघ का दस साल का शासन उन्हें उनके चुनाव जीतने की गारण्टी नहीं देता है। समय के साथ जहां एक ओर इनके चरित्र का उद्घाटन होता गया वहां दूसरी ओर इनके क्रूर और काले कारनामे उजागर होते गये। इलेक्टोरल बाण्ड के हालिया खुलासे ने मोदी-शाह, भाजपा-संघ के काले कारनामों को एक बार फिर उजागर कर दिया। इलेक्टोरल बाण्ड पर मोहन भागवत की चुप्पी अपने आप बहुत कुछ कह देती है। अन्यथा तो यह व्यक्ति पूरे भारत को आये दिन नैतिकता, शुचिता, चरित्र निर्माण, अन्तयोदय न जाने किस-किस पर पाठ पढ़ाता फिरता है।
    
2014 का चुनाव मोदी-शाह के लिए जीतना आसान था। सप्रंग के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर थी। मोदी के जुमले जनता के एक हिस्से में सर चढ़कर बोल रहे थे। अरविंद केजरीवाल का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मोदी-भाजपा-संघ के मन मुताबिक ढंग से अपना काम कर गया था। और सबसे ऊपर भारत के सबसे बड़े एकाधिकारी घराने खुलकर मोदी का समर्थन कर रहे थे। 
    
2019 के चुनाव में 2014 की जमीन तो थी ही साथ में पुलवामा का प्रायोजित हमला और तथाकथित बालाकोट की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का जादुई प्रभाव था। भाजपा की सीटें बढ़ीं। इसके बाद एकाधिकारी घरानों के लिए सरकार ने अपने खजाने के मुंह खोल दिये। टाटा को एयर इण्डिया औने-पौने दामों में बेच दी गयी। अडाणी का तो पूरे देश में ही सिक्का चल रहा है। अम्बानी के पास तो इतनी दौलत इकट्ठी हो गयी है कि वह अपने बेटे की सगाई में ही हजारों करोड़ रुपये यूं ही लुटा देता है। 
    
2024 में ‘‘जादुई प्रभाव’’ पैदा करने के लिए जल्दबाजी में आधे-अधूरे ढंग से बने राम मंदिर का उद्घाटन हिन्दू मान्यताओं और शंकराचार्यों को धता बताते हुए कर दिया गया। भाजपा-संघ को अब यह संदेह होने लगा है कि ‘‘जादुई प्रभाव’’ शायद राम के नाम पर न बन पाये। जादुई प्रभाव धारा-370 का खात्मा भी शायद न पैदा कर पाये। समान नागरिक संहिता, सीएए जैसे मुद्दे राजनैतिक चर्चा के उपादान तो बन सकते हैं परन्तु मतदाताओं को शायद ही आकर्षित कर पायें। 
    
2024 में मतदाता शांत हैं। वे भी शांत हैं जो भाजपा के मुखर व प्रखर समर्थक हैं। और वे भी जिन्हें संघ-भाजपा फूटी कौड़़ी नहीं सुहाती है। जो कुछ हलचल या तूफान है वह टेलीविजन चैनलों के ‘‘वार रूम’’ में है या फिर सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर है। सड़कें मुखर प्रचार से विहीन हैं। मोदी की अधिकांश सभाएं फीकी हैं। 
    
मोदी एण्ड कम्पनी उसी पिच पर खेल रही है जिसकी वे आदी हैं। राष्ट्रवाद की खोखली प्रायोजित बातें, हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के कुप्रयास, सेना का महिमामण्डन और खैराती लोकप्रिय योजनाएं भाजपा-संघ के आजमाये हुए हथियार हैं। विपक्षी पार्टियों को घेरने के लिए भ्रष्टाचार, परिवारवाद जैसे मुद्दे हैं परन्तु इस मामले में पूरे संघ परिवार का चेहरा भी उसी रंग में रंगा हुआ है जिस रंग में विपक्षी पार्टियों का चेहरा रंगा हुआ है। स्वयं मोहन भागवत के पिताजी संघ के समर्पित कार्यकर्ता थे। अमित शाह ने तो क्रिकेट के बारे में शून्य प्रतिभा व समझ रखने वाले अपने बेटे को दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का नियंता बना दिया है। ऐसी ही अनेकानेक कहानियां भाजपा के पाले-पोसे गये राज परिवारों और नेताओं की है। पीयूष गोयल, अनुराग ठाकुर जैसे केन्द्रीय मंत्री अपने बाप के बूते पर ही शीर्ष पर बैठे हुए हैं। 
    
2024 का आम चुनाव यदि भाजपा एण्ड कम्पनी जीतती है तो यह देश का खासकर मजदूरों-मेहनतकशों का दुर्भाग्य ही होगा। यह धार्मिक अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों के लिए और भी कठिनाई पैदा करेगा। देशी-विदेशी पूंजीपति मोदी की जीत पर अवश्य ही झूमेंगे परन्तु देश हिन्दू फासीवाद की और गिरफ्त में जायेगा। किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की मोदी एण्ड कम्पनी की चाल भारत को एक ऐसी अंधी सुरंग में डालेगी जहां से उसे बाहर निकालने के लिए भारत के मजदूरों-मेहनतकशों, शोषितों-उत्पीड़ितों को बहुत-बहुत अधिक संघर्ष करना और बलिदान देना होगा। हिन्दू फासीवादी संगठन और उनके द्वारा पैदा आंदोलन भारत के भविष्य के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है।  

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।