‘‘मेरे साथ के लोग मुझे पहचानते हैं’’

    यह कविता मैंने लगभग चार वर्ष पूर्व लिखी थी। अक्सर हम जैसे लोग जो समाज में बुनियादी तब्दीली करना चाहते हैं, वे अपने नेताओं को, शिक्षकों को, सिद्धान्तकारों को या रणनीतिकारों, मार्गदर्शकों को अपना आदर्श मानते हैं और उन्हीं की तरह एक नये समाज के निर्माण में योगदान करना चाहते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि जो लोग (संगठन के साथी) उपरोक्त सभी आदर्शों को हम तक पहुंचाते हैं उनकी मेहनत को हम कहीं न कहीं दरकिनार कर देते हैं। 
    

उन तमाम कामरेडों को समर्पित मेरे द्वारा रचित एक कविता जो जी जान से नये समाज निर्माण में अपनी भूमिका तय किये हुए हैं-

मेरे साथ के लोग मुझे जानते हैं, मेरे साथ के लोग मुझे पहचानते हैं
मेरे साथ के लोग मुझे जानते हैं, मेरे साथ के लोग मेरे अस्तित्व को पहचानते हैं
मेरे साथ के लोग मुझे टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं बल्कि पूरा का पूरा जानते हैं
मेरे साथ के लोग मेरी देखभाल करते हैं, मेरा ख्याल रखते हैं, मेरी परवरिश करते हैं 
एक छोटे पौधे की भांति
मेरे साथ के लोग मेरा ख्याल केवल इसलिए नहीं रखते हैं कि वो पौधा घर के आस-पास की क्यारियों में या घरों के ऊपर रखे हुए रंग-बिरंगे गमले की शोभा बढ़ाये
मेरे साथ के लोग मेरा ख्याल केवल और केवल इसलिए रखते हैं कि जब वो बड़ा हो 
एक विशाल वृक्ष की तरह, जो हर किसी को उसके हिस्से की छांव दे सके।
मेरे साथ के लोग मुझे जानते हैं, मेरे साथ के लोग मेरे अस्तित्व को पहचानते हैं 
    -पंकज कुमार, किच्छा
 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।