नस्लवादी संसद

देश के पूंजीवादी लोकतंत्र ने 70 से अधिक वर्ष पूरे कर लिये। अप्रैल 1952 को पहली चुनी संसद अस्तित्व में आयी थी। इन 70 बरसों में भारतीय संसद ने खुद को रसातल में ले जाने का कार्यभार पूरा कर लिया। नेहरूयुगीन संसद जिसमें एक स्तर की पूंजीवादी प्रगतिशीलता, पूंजीवादी नैतिकता और साम्राज्यवाद विरोधी चेतना थी। वह अब मोदी युगीन संसद तक पहुंच चुकी है। मोदीयुगीन संसद प्रतिक्रियावाद, अनैतिकता, साम्राज्यवाद परस्त, नस्लवाद और ब्राह्मणवाद का एक जीता जागता स्मारक है। 
    
एक मायने यह अच्छा ही है कि नयी संसद ने पुरानी संसद और पुराने संविधान से खुद को मुक्त करना शुरू कर दिया है। नयी संसद में सांसदों को जो संविधान की उद्देशिका की प्रतियां बांटी गयीं उसमें से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द गायब था। आखिर यह अंतर्विरोध कब तक जारी रह सकता था। फासीवाद के दौर में नस्लवाद की आत्मा वाले संसद भवन की जरूरत थी जिसे पूरा कर दिया गया। 
    
नये संसद भवन की आधारशिला से लेकर उसके उद्घाटन और पहले संसद सत्र ने यही दिखाया कि कैसे वह अब हिन्दुस्तान के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी, वित्तीय पूंजी के मालिकों की सबसे ज्यादा नग्न तानाशाही और मेहनतकश जनता के अथाह शोषण और उत्पीड़न का केन्द्र बनने को तैयार है। 
    
जिस संसद भवन के भूमि पूजन और उद्घाटन में और यहां तक कि नयी संसद के पहले सत्र तक में राष्ट्रपतियों को उनकी दलित और आदिवासी पृष्ठभूमि के कारण आमंत्रित न किया जा रहा हो वह सत्ता के सवर्ण ब्राह्मणवादी मनुवाद की पुनर्स्थापना का द्योतक है। देश की नयी संसद ने दलितों और आदिवासियों को उनका स्थान बता दिया है। 
    
भरी संसद में रमेश बिधूडी ने दानिश अली को जो आतंकवादी, मुल्ला, कटुआ जैसे विशेषणों से नवाजा वह ब्राह्मणवाद पर आधारित हिन्दू फासीवाद की सोच की वास्तविक अभिव्यक्ति थी। बिधूडी की नस्लवादी गालियों पर समस्त भाजपा सांसदों का अट्ठाहस और विपक्षी सांसदों का गौण प्रतिरोध हमारे भारतीय समाज के बहुलांश के वैचारिक, नैतिक और सांस्कृतिक सोच की पतनशीलता की सबसे भौंडी संसदीय अभिव्यक्ति थी। 
    
एक संस्था के तौर पर राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभाध्यक्ष का ऐसी नस्लभेदी गालियों पर मन ही मन आह्लादित होना और कोई भी सार्वजनिक प्रतिवाद न करना इन संस्थाओं के निर्लज्ज पतन की पराकाष्ठा का द्योतक था। 
    
नयी संसद का चेहरा तो देखें-
1. प्रधानमंत्री - गुजरात में अल्पसंख्यकों के नरंसहार में राज्य के प्रमुख के तौर पर संलिप्त होने का आरोप
2. गृहमंत्री - गुजरात से लेकर दिल्ली दंगों के पीछे का प्रमुख मास्टरमाइंड और षड्यंत्रकारी होने का कथित आरोप
    - तडीपार तथा जज लोया और इशरत जहां मर्डर केस में नाम उछला।
3. खेलमंत्री - ‘देश के गद्दारों को/गोली मारो सालों को’ जैसे नस्लीय नारे लगाकर भीड़ को उकसाने का आरोप
4. ग्रामीण विकास मंत्री - बात-बात पर अल्पसंख्यकों को पाकिस्तान भेजने की धमकी।
5. प्रज्ञा ठाकुर (सांसद) - मालेगांव विस्फोट की प्रमुख आरोपी, गांधी के हत्यारे गोडसे को संसद में देशभक्त पुकारना
6. प्रवेश वर्मा - मुसलमानों के सार्वजनिक बहिष्कार का आह्वान
7. ब्रजभूषण शरण सिंह - महिला पहलवानों के लैंगिक शोषण व उत्पीड़न का आरोप
8. केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री - इनका बेटा किसानों को कार से कुचलने का आरोपी
9. अनंत हेगड़े - भारतीय संविधान बदलने को लेकर बयान देने वाले
    
ये नई संसद के कुछ नस्लवादी राजनीति के चेहरे हैं। भाजपा के 303 सांसदों में से ज्यादातर रमेश बिधूडी से कम नस्लवादी नहीं हैं। अन्य पार्टियों के सांसद भी कम या ज्यादा मात्रा में नस्लवादी राजनीति पर ही विश्वास करते हैं। 
    
इस नस्लवादी संसद में क्या होता है इसे इस देश के प्रधानमंत्री के संसद में दिये गये भाषणों से समझा जा सकता है। कांग्रेस और उसके नेताओं पर कटाक्ष, हंसी, ठिठोली, अट्ठाहस, विरोधियों का उपहास उड़ाना, विरोधियों को डराना-धमकाना और बोलने न देना, बात-बात पर विरोधी सांसदों का निलंबन नस्लवादी संसद की चारित्रिक विशेषता है। 
    
संसद की यह चारित्रिक विशेषता यूं ही नहीं है। ऐसी संसद और सांसदों को समाज यूं ही स्वीकार नहीं कर रहा है। मोदी-शाह-भागवत अधिकांश हिन्दुओं के ऐसे ही नायक नहीं बन बैठे हैं। यह दोहरा रिश्ता है। संघ-भाजपा ने भारतीय समाज में एक सदी में जो जहर बांटा था, नागपुर के गिरोह के नस्लीय विचारों पर अधिकांश हिन्दुओं को खड़ा करने की जो कोशिशें की गई थीं, देश के राष्ट्रवाद को जिस तरह पाकिस्तान के विरुद्ध खड़ा किया गया उसने इस देश के काफी नागरिकों को भी नस्लीय बना दिया। नस्लवाद से वसुधैव कुटुंबकम को प्रतिस्थापित कर दिया गया। गांधी के अहिंसा के देश को नस्लवादी हिंसा के गुणगान वाले देश से प्रतिस्थापित कर दिया गया, नारी को देवी का दर्जा देकर छलने वाली संस्कृति को खुलेआम ‘बलात्कारियों के संरक्षक’  वाली संस्कृति से बदल दिया गया। मजदूरों-मेहनतकशों, दलितों-आदिवासियों के हित न पुरानी संसद में न नयी संसद में कोई स्थान रखते रहे हैं। 
      
ऐसे नस्लवादी समाज के प्रतिनिधि कोई भगतसिंह, अशफाक, बिस्मिल नहीं हो सकते हैं। ऐसा नस्लवादी समाज सीमान्त गांधी, बीना दास, कल्पना दत्त जैसों को पैदा नहीं कर सकता। ऐसा पूंजीवाद अपनी कोख से नेहरू व गांधी पैदा नहीं कर सकता। आम के पेड़ पर जामुन नहीं लगेंगे। 
    
नस्लवादी सोच वाले ऐसे समाज में नस्लवादी विचारों को पोषित-पल्लवित करने और ऐसे विचारों को फैलाने की जिम्मेदारी एकाधिकारी घरानों अडाणी, अंबानी जैसों ने संभाल रखी है। भारतीय समाज इतना जेहादी एकाधिकारी घरानों के प्रश्रय के बिना नहीं बन सकता था। संघ-भाजपा के वे न सिर्फ आर्थिक सहयोगी हैं वरन् उनके स्वयं के संचार साधन समाज को नस्लवाद के आगोश में ढकेलने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। 
    
ऐसी प्रतिक्रियावादी संसद से मजदूर-मेहनतकश जनता, दबी-कुचली जातियों, आदिवासियों-अल्पसंख्यकों को क्या उम्मीद रखनी चाहिए? 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।