नया संसद भवन

28 मई 2023 को नई संसद का उद्घाटन हो गया। इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री ने किया। इसके उद्घाटन के कार्यक्रम में सभी राजनैतिक दलों को सरकार की ओर से न्यौता भेजा गया। परन्तु लगभग 20 दलों ने संसद भवन के उद्घाटन समारोह से खुद को अलग कर लिया। वे राष्ट्रपति के द्वारा इस भवन का उद्घाटन चाहते थे जो कि सरकार की प्रधान होती हैं। 
    

खैर! मान लीजिए राष्ट्रपति जी अगर इस भवन का उद्घाटन कर देतीं तो क्या होता? इससे भारतीय जनता को क्या हासिल होता?sansad
    

ऐसा माना जाता है कि सेंट्रल विस्टा प्लान के तहत बनने वाली संसद को तैयार करने में 1200 करोड़ रुपये से अधिक खर्चा आया। इसकी लागत और बढ़ भी सकती है। नये संसद भवन का क्षेत्रफल 64,500 वर्ग मीटर है। इसके निर्माण कार्य में लगभग 2.5 वर्ष से अधिक समय लग चुका है। 
एक ऐसे देश में जहां नागरिकों को जीवन जीने की बुनियादी सुविधायें तक न हों, एक ऐसे देश में जहां इस वर्ष के बजट में ही शिक्षा और स्वास्थ्य पर बजट का आवंटन घटा दिया गया हो, एक ऐसा देश जहां विश्वविद्यालयों और विद्यालयों के पास बेहतर पुस्तकालय के लिए भी धन की कमी है, एक ऐसे देश में जहां बच्चों के पोषण की योजनायें तक पैसे की कमी से जूझ रही हों, जिस देश में पीने योग्य पानी तक का बंदोबस्त सरकार न कर पा रही हो उस देश की सरकार अगर नये संसद भवन पर 1200 करोड़ रु. से अधिक की राशि खर्च करती है तो यह बताता है कि सरकार की प्राथमिकता क्या है? जिस देश की दो तिहाई से भी अधिक आबादी भुखमरी की कगार पर हो वहां पहले से मौजूद संसद की जगह नये संसद भवन का निर्माण भारतीय मेहनतकश जनता के प्रति अपराध है। 
    

आलीशान नयी संसद भारतीय मेहनतकश जनता की गरीबी, बदहाली और लूट का पहले से भी ज्यादा प्रतिनिधित्व करती है तो पिछले 7 दशकोंpoverty में मेहनतकशों की लूट से तैयार नये कारपोरेट घरानों के वैभव की भी नुमाइश है। 
    

इस नयी संसद का उद्घाटन उस प्रधानमंत्री के द्वारा किया गया जिसने स्वयं संसद को ही बंधक बना लिया है। एक ऐसी सरकार ने इस संसद को तैयार कराया है जो फासीवादी है और जो वस्तुतः देश में निरंकुश तानाशाही स्थापित करना चाहती है। जिस सरकार व प्रधानमंत्री को पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था तक में जरा भी आस्था न हो वह नयी संसद का उद्घाटन करता है। देश की संसद के उद्घाटन के वक्त इससे बड़ा विरोधाभास क्या होगा?
    

इस नयी संसद में भी वही लोग बिराजेंगे जिन्होंने राजनीति के अपराधीकरण को नई बुलंदियों तक पहुंचाया है। पूंजीवादी राजनीति के विगत 10 वर्ष इस बात के लिए जाने जायेंगे कि जिस संसद में स्वयं पूंजीवादी नेताओं तक को बोलने की आजादी न हो वो संसद मेहनतकश जनता की आवाज को कैसे सुन सकेगी? सरकार के कामों का तरीका अपराधी समूहों जैसा हो चुका है और प्रधानमंत्री व गृहमंत्री मान्यता प्राप्त बंबइया भाई जैसे। जिस देश में सरकार के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को डराया, धमकाया और यहां तक कि मिटा तक देने की संस्कृति जारी हो उस संसद के भवन को बदलने से क्या होगा? ये नयी संसद भारतीय गण से पहले से भी दूर होगी। 
    

ये नई संसद शायद इस बात का उद्घोष है कि अब संविधान की प्रस्तावना से औपचारिक मुक्ति का समय आ गया है। सत्ताधारी इसकी भरपूर कोशिशें कर भी रहे हैं। नई संसद उदारीकरण के दौर की राजनीति का प्रतीक है जिसमें गण के लोकतांत्रिक अधिकार शायद उतने भी सुरक्षित नहीं रह पायेंगे जितने अधिकार आजादी के बाद की संसद ने दिये थे। देश की राजनीति पर इस समय जो विचारधारा हावी है उसका नायक गोडसे है। गोडसे वाली राजनीति की जरूरत है नयी संसद। ताकि परिसीमन के आधार पर इस गोडसे वाली राजनीति के सांसदों की संख्या को बढ़ाकर गांधी को गोडसे से प्रतिस्थापित किया जा सके। सो नई संसद सिर्फ नया भवन भर नहीं है। वह उससे कहीं ज्यादा है। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।