यूक्रेन पर हमले के 24 फरवरी 2023 को एक वर्ष पूरे हो गये हैं। एक वर्ष पूरे होने पर यूरोप के कई देशों में युद्ध के विरोध में प्रदर्शन हुए। एक वर्ष पूर्व 24 फरवरी को रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया था। इससे 3 दिन पूर्व 21 फरवरी को रूस ने यूक्रेन के नियंत्रण वाले रूसी बहुल भाषी क्षेत्र दोनेत्स्क व लुहांस्क जन गणराज्य को स्वतंत्र राज्य की मान्यता दे दी थी। 2014 में यूक्रेन में पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा आयोजित तख्तापलट के पश्चात से रूस-यूक्रेन के सम्बन्ध लगातार तनावपूर्ण रहे हैं। इस तख्तापलट जिसे पश्चिमी साम्राज्यवादी क्रांति का नाम देते हैं, के बाद रूस ने क्रीमिया को यूक्रेन से अलग कर उसको रूस में मिला लिया था। तब से अमेरिकी साम्राज्यवादी रूसी साम्राज्यवादियों को घेरने के लिए यूक्रेन को मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। अंततः यूक्रेन के नाटो में शामिल होने की बात पर रूसी साम्राज्यवादियों ने 24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर हमला बोल दिया।
अब तक इस युद्ध में यूक्रेन के 1 लाख से ऊपर सैनिक मारे जा चुके हैं। रूस के मारे गये सैनिकों की संख्या भी हजारों में है। यूक्रेन की भारी आबादी विस्थापन का शिकार हुई है। इस विस्थापित आबादी को भारी दुःख-कष्ट झेलने पड़े हैं।
युद्ध का दंश न केवल यूक्रेन की जनता को झेलना पड़ा है बल्कि पूरी दुनिया के बड़े हिस्से की अवाम को युद्ध की मार झेलनी पड़ी है। युद्ध के चलते यूक्रेन व रूस के गेहूं उत्पादन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। यूक्रेन का तो उत्पादन ही ठप हो गया। इसके चलते तमाम देश जिन्हें रूस-यूक्रेन से गेहूं निर्यात होता था उन्हें गेहूं की किल्लत या महंगे दामों पर गेहूं खरीदने को मजबूर होना पड़ा। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा रूस पर लगाये गये प्रतिबंधों का असर रूसी अर्थव्यवस्था पर पड़ा तो इन्हीं प्रतिबंधों के चलते यूरोप के ढेरों देशों को गैस की कमी का सामना करना पड़ा। युद्ध जन्य महंगाई ने यूरोपीय देशों ही नहीं बाकी देशों के आम जन के जीवन को भी दुष्कर बनाया।
समूची दुनिया व यूक्रेन की जनता को बीते एक वर्ष में युद्ध जन्य तकलीफों को केवल इसीलिए झेलना पड़ा है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी अपनी गिरती आर्थिक हैसियत की भरपाई सामरिक घेरेबंदी से करना चाहते रहे हैं। उन्हें पुनः चुनौती देते उभरते रूसी साम्राज्यवादी बर्दाश्त नहीं हुए और यूक्रेन को मोहरा बना वे पुतिन को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने के प्रयासों में जुट गये।
यह युद्ध अगर लम्बा खिंचता जा रहा है तो यह प्रकारान्तर से इसी बात की अभिव्यक्ति है कि आज दुनिया के पैमाने पर विश्व शक्ति संतुलन बदलता जा रहा है। चीनी शासक आज इस युद्ध में रूस के पीछे खड़े हैं और चीन व अमेरिका आज की दुनिया की 2 प्रमुख ताकतों के बतौर सामने आ चुके हैं। ऐसे में न तो रूस-चीन और न ही अमेरिकी शासक इस युद्ध में पीछे हटने को तैयार हैं। दोनों खेमे हर कीमत पर युद्ध में जीत कर विश्व शक्ति संतुलन में अपना दबदबा बनाना चाहते हैं।
युद्ध के एक वर्ष पूरा होने पर दोनों पक्ष अपनी-अपनी खेमेबंदी मजबूत करने पर जुटे रहे। जहां कुछ दिन पूर्व रूस व चीन के राष्ट्रपति आपस में मुलाकात कर रहे थे वहीं अमेरिकी सरगना बाइडेन अचानक कीव पहुंच जेलेंस्की का उत्साह बढ़ा रहे थे। अमेरिका, यूक्रेन की मदद के लिए नयी राशि जारी कर रहा है तो रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने युद्ध के एक वर्ष पूरे होने पर राष्ट्र को संबोधित कर घोषित कर दिया कि रूस को युद्ध में हराया नहीं जा सकता। इसी के साथ रूस ने परमाणु हथियार वाले देशों के साथ की गयी स्टार्ट न्यू ट्रीटी को निलम्बित करने की घोषणा कर दी है। इस संधि के तहत परमाणु हथियार वाले देशों ने परमाणु हथियारों की मात्रा पर लगाम लगाने के लिए परस्पर एक-दूसरे के यहां निरीक्षण करने की छूट देने का प्रावधान किया था। अमेरिकी साम्राज्यवादी पहले ही रूस पर इस संधि को भंग करने का आरोप लगाते रहे हैं।
इस बीच चीनी शासकों ने 12 सूत्रीय संधि प्रस्ताव अपनी ओर से पेश किया है जिसके तहत रूस पर थोपे प्रतिबंध हटाने, यूक्रेन की सम्प्रभुता को मान्यता देने आदि प्रस्ताव हैं। अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इस प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया है कि चीन खुद एक पक्ष है अतः उसका प्रस्ताव नहीं स्वीकारा जा सकता। इसी तरह का प्रस्ताव ब्राजील ने भी दिया है।
कुल मिलाकर युद्ध का एक वर्ष पूरा होने पर भी लड़ रहे खेमे युद्ध के खात्मे की ओर बढ़ने के बजाय और विनाश पैदा करने का इंतजाम कर रहे हैं। दुनिया भर की जनता युद्ध का और कहर झेलने को मजबूर की जा रही है।
युद्ध का एक वर्ष पूरा होने पर जर्मनी, फ्रांस, इटली के कई शहरों में युद्ध के विरोध में हजारों लोग सड़कों पर उतरे। इन प्रदर्शनों में जहां कुछ रूस विरोधी प्रदर्शन थे तो ढेरों नाटो, अमेरिका, रूस का विरोध व अपने शासकों द्वारा यूक्रेन को हथियार देने का भी विरोध कर रहे थे। इनमें कई प्रदर्शन शांतिवादियों के प्रभाव में थे तो कई का रुख साम्राज्यवाद विरोधी था। यद्यपि ये प्रदर्शन अलग-अलग सोच से संचालित थे पर ये युद्ध से हो रही परेशानियों का परिणाम थे। देर-सबेर जनता इस समझ पर पहुंच ही जायेगी कि साम्राज्यवाद-पूंजीवाद का अंत कर ही युद्ध का नामोनिशां मिटाया जा सकता है।