साम्राज्यवादियों के बीच टकराहट का मैदान - अफ्रीका महाद्वीप

अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 13-15 दिसम्बर को अफ्रीकी महाद्वीप के 49 शासनाध्यक्षों और राज्याध्यक्षों की शीर्ष बैठक वाशिंगटन डीसी में आयोजित की। इन 49\ देशों के अलावा अफ्रीकी संघ के प्रतिनिधि को भी बैठक में आमंत्रित किया गया। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इस शीर्ष बैठक में उन कुछ अफ्रीकी देशों को नहीं आमंत्रित किया जिन्हें वे अपने मानदण्डों में खरा नहीं पाते। ये देश गुयाना, माली, सूडान, बुरकीना फासो और इरीट्रिया थे। ये देश अमरीकी साम्राज्यवादियों के ‘‘जनतांत्रिक मानदण्डों’’ को पूरा नहीं करते थे। लेकिन उन्होंने चाड को आमंत्रित किया जहां पर असंवैधानिक तरीके से सत्ता हासिल की गयी थी। यहां पर भी अमरीकी साम्राज्यवादियों ने दोगलेपन का परिचय दिया। चाड के शासकों को इसलिए आमंत्रित किया गया था क्योंकि वहां के शासक पश्चिमी साम्राज्यवादियों, मूलतया फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों के साथ ज्यादा जुड़े हुए हैं।

अमरीकी साम्राज्यवादी अफ्रीकी महाद्वीप में रूसी और चीनी प्रभाव के बढ़ते जाने को अपने लिए एक गम्भीर खतरा मान रहे हैं। यह शीर्ष बैठक इसी खतरे की काट करने के मकसद से आयोजित की गयी। इस बैठक में अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अफ्रीकी देशों के शासकों को वहां की ज्वलंत समस्याओं से निपटने के लिए बड़ी मदद देने का प्रलोभन दिया। जो बाइडेन ने अफ्रीकी संघ को जी-20 का सदस्य बनाने और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता देने में अपना समर्थन व्यक्त किया। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने प्रलोभन के बतौर 3 वर्षों तक अमरीकी-अफ्रीकी सहयोग के बतौर विकास के मद में 55 अरब डालर जारी करने की घोषणा की। इसी तरह, कारोबार मंच में 15 अरब डॉलर के समझौतों पर सहमति बनी। साफ सुथरी ऊर्जा, बीमारी (महामारी) से निपटने में मदद, बिजली चालित वाहनों के उत्पादन में मदद और सर्वोपरि खाद्य सुरक्षा में मदद का प्रलोभन दिया गया।

अमरीकी साम्राज्यवादियों के इस प्रलोभन के पीछे का असली मकसद क्या है? अमरीकी साम्राज्यवादी यह देख रहे हैं कि चीन का अफ्रीकी देशों के साथ व्यापार 200 अरब डालर के करीब पहुंच गया है। पश्चिम अफ्रीका के कई देशों में पश्चिमी साम्राज्यवाद विरोधी बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए हैं। अफ्रीका के मिस्र और अल्जीरिया जैसे देशों के शासक ब्रिक्स में शामिल होने की अपनी इच्छा जाहिर कर चुके हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने पूरी कोशिश की कि वे इन शासकों को चीन और रूस के विरुद्ध कर सकें, लेकिन उन्हें अभी तक इसमें वांछित सफलता नहीं मिली। चीनी शासक और रूसी शासक अफ्रीका में अपनी घुसपैठ को और ज्यादा मजबूत करते जा रहे हैं। चीनी शासकों ने व्यापार के जरिए और रूसी शासकों ने सुरक्षा के क्षेत्र में अपनी पैठ क्रमशः समूचे अफ्रीकी महाद्वीप में मजबूत कर ली है। इस मामले में अमरीकी साम्राज्यवादी समूचे अफ्रीकी महाद्वीप में अपनी कमजोर हो रही गिरफ्त को फिर से बल देने की कोशिश कर रहे हैं।

लेकिन अमरीकी साम्राज्यवादियों व पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्यवादियों की इस अफ्रीकी महाद्वीप में अतीत में निभायी गयी भूमिका इनके प्रभाव को बढ़ाने के विरुद्ध खड़ी होती है। अफ्रीकी महाद्वीप के लोगों को गुलाम बनाकर उनका व्यापार करने का रक्तरंजित इतिहास इनके विरुद्ध जाता है। हाल के समय में अमरीकी फौज की अफ्रीकाम के रूप में अफ्रीका में मौजूदगी और उसके द्वारा किये गये नरसंहार तथा सत्ता पलट की कार्रवाईयां अमरीकी साम्राज्यवादियों और यूरोपीय साम्राज्यवादियों के विरुद्ध लोगों को खड़ा करती हैं। लीबिया में गद्दाफी की सत्ता को उखाड़ फेंकने और उनकी हत्या कराने में अमरीकी व पश्चिमी साम्राज्यवादियों का कुकर्म अभी लोगों के दिमाग में ताजा है। ऐसी कोई भी बात रूसी व चीनी शासकों के इतिहास में नहीं दिखाई पड़ती। उनका अतीत उपनिवेशवाद विरोधी रहा है। वहां के शासक अपने अतीत से अपने को जोड़कर अपने प्रभाव क्षेत्र और लूट को बढ़ाने में इस्तेमाल कर रहे हैं।

अमरीकी साम्राज्यवादी अफ्रीकी महाद्वीप के नेताओं को यह भय दिखाकर कि चीन अफ्रीका के देशों को कर्जजाल में फंसा रहा है और कि जिबूती में फौजी अड्डा बनाकर चीन फौजी तौर पर अफ्रीका में अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहता है, अफ्रीकी शासकों को अपनी छत्रछाया में लाने की कोशिश कर रहे हैं और यह शीर्ष सम्मेलन उसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कड़ी थी।

अफ्रीकी महाद्वीप के शासक अमरीकी साम्राज्यवादियों और रूसी व चीनी साम्राज्यवादियों के समूचे खेल को अच्छी तरह समझते हैं। ये शासक भी अपने-अपने देशों में मजदूर-मेहनतकश अवाम के शत्रु हैं। ये विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। एक तरफ, ये खुद अपनी अवाम के विरुद्ध हैं। ये साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर अपनी अवाम को लूटते हैं और उन्हें कंगाल बनाते हैं। दूसरी तरफ साम्राज्यवादी इनकी अर्थव्यवस्थाओं को जर्जर बनाते हैं, संकट में डालते हैं।

साम्राज्यवादी इनको इस्तेमाल करते हैं और ये साम्राज्यवादियों के बीच टकराहट को इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं और अपनी सौदेबाजी की ताकत को हर समय बढ़ाने के प्रयास में लगे रहते हैं। इनमें भी कुछ शासक किसी साम्राज्यवादी ताकत के साथ ज्यादा घनिष्ठता के साथ खड़े रहते हैं, कुछ पिट्ठू बन जाते हैं और कुछ किसी खास साम्राज्यवादी ताकत के विरुद्ध ज्यादा मुखर होकर बोलते हैं। सामूहिक तौर पर इन देशों के शासकों की साम्राज्यवादियों के साथ सौदेबाजी की ताकत बढ़ जाती है। लेकिन ये सारा खेल विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही होता है। इस दायरे में ये शासक साम्राज्यवादियों के सहयोगी और छुटभैय्ये ही बने रहते हैं। यही इनकी नियति है।

अभी तक अफ्रीकी महाद्वीप में और समूची दुनिया में अमरीकी साम्राज्यवादियों का प्रभुत्व कायम था। अब यह क्रमशः कमजोर होता जा रहा है। अफ्रीकी महाद्वीप में अपनी प्रतिद्वन्द्वी ताकतों- विशेषकर चीन व रूस- के प्रभाव को कमजोर करने के मकसद से बुलाई इस शीर्ष बैठक के पहले अमरीकी साम्राज्यवादियों और यहां के अलग-अलग देशों के शासकों की भूमिका पर भी सरसरी तौर पर नजर डालना उचित होगा।

अमरीकी साम्राज्यवादियों ने 2000 में अफ्रीकी महाद्वीप के देशों के लिए एक कार्यक्रम- अफ्रीकी वृद्धि और अवसर अधिनियम (African Growth and Opportunities Act) के तहत लागू किया था। यह अफ्रीकी देशों का विकास करने के नाम पर जारी किया गया था। पिछले 22 वर्षों में इस अधिनियम के तहत अफ्रीकी देशों की मजदूर-मेहनतकश आबादी की दुर्दशा और बढ़ती चली गयी और यह कुख्यात अधिनियम उनके जीवन के लिए अभिशाप बन गया। इसको लागू करने के बाद अफ्रीका एक आधुनिक गुलामी के शिविर में तब्दील हो गया। अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा संचालित आर्थिक प्रसंस्करण क्षेत्र मौत की खाइयां बन गये। यहां पूंजीवादी अराजकता राज करती है और तथाकथित औद्योगिक बलिदान ने मजदूरों के हितों को पूंजी के मुनाफे के लिए भेंट कर दिया है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अफ्रीकी देशों की भ्रष्ट सरकारों की मदद से करों में छूट, श्रम कानूनों का निलंबन, पानी व बिजली की सब्सिडी में कटौती आदि अनैतिक प्रोत्साहनों को हासिल किया। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अपनी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के फायदे के लिए इस अधिनियम के तहत अपनी विदेश नीति लागू की। अफ्रीकी देशों के शासकों ने अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ गठजोड़ करके बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बढ़ावा दिया और इन कम्पनियों ने अधिकांश आबादी के जीवन और जीविका को तबाह व बर्बाद कर दिया।

अमरीकी साम्राज्यवादियों ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के जरिये और अफ्रीका के भ्रष्टतंत्रों के साथ मिलकर लालच देने और धमकाने की नीति लागू की है। उसकी यह नीति अफ्रीकी महाद्वीप के लोगों के लिए भयावह रही है। जाम्बिया और केन्या के चुनावों में इनके पिछलग्गुओं की जीत के बाद गरीब लोगों पर हमले और तेज हो गये हैं। अफ्रीकी देशों के भ्रष्ट शासकों की साम्राज्यवादी पूंजी व इसके मालिकों के साथ आपराधिक साझेदारी है। इस आपराधिक साझेदारी ने मजदूर वर्ग पर चौतरफा हमला बोल रखा है। अफ्रीकी देशों में अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा संचालित बहुत सारे गैर सरकारी संगठन हैं जो अफ्रीकी लोगों का अराजनीतिकरण कर रहे हैं और ‘‘स्वतंत्र उद्यम’’ व ‘‘स्वतंत्र समाज’’ का गुणगान करके वे अमरीकी साम्राज्यवादियों की मदद कर रहे हैं। वे इसके लिए धार्मिक संगठनों का भी शांति का पाठ पढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। जबकि न्याय के बिना कोई शांति मरघट की ही शांति हो सकती है। पूंजीवादी मीडिया तंत्र, विशेष तौर पर साम्राज्यवादी मीडिया तंत्र झूठ की फैक्टरी के बतौर काम कर रहा है।

अमरीकी साम्राज्यवादी लगातार यह कोशिश करते रहे हैं कि अफ्रीकी देशों की राजनीतिक प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप करें और इस बात को सुनिश्चित करें कि अमरीकी साम्राज्यवादियों के दुमछल्ले ही सत्ता में आयें। जहां अमरीकी साम्राज्यवादी समर्थक चुनाव हार जाते हैं वे चुने हुए नेताओं को घूस देकर खरीदने की कोशिश करते हैं और उन्हें अमरीकी उपभोक्तावादी संस्कृति और ऐशोआराम की जिंदगी मुहैय्या कराते हैं। इन्हीं उपायों के जरिये जाम्बिया और कांगो के जनवादी गणतंत्र के शासकों को अपना समर्थक अमरीकी साम्राज्यवादियों ने बनाया है। ये नेता अमरीकी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध खड़ा होने का साहस कर ही नहीं सकते। अमरीकी साम्राज्यवादी चाहते हैं कि अफ्रीकी अर्थव्यवस्थायें अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए सस्ते कच्चे माल की आपूर्तिकर्ता बनी रहें। अमरीकी साम्राज्यवादी अफ्रीकी श्रम के शोषण के जरिए अफ्रीकी लोगों का खून चूसना चाहते हैं और इस महाद्वीप को इस्तेमाल किये गये मालों और खराब किस्म के उत्पादों से पाट देना चाहते हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी देशी शासकों के साथ मिलकर अफ्रीकी देशों की अवाम पर ताकतवर और खतरनाक तानाशाही थोप रहे हैं। इनकी युद्ध मशीनरी लोगों के लिए विनाशकारी तो है ही, साथ ही यह बेशर्म भी है। इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि इन्होंने ही पैट्रिस लुलुम्बा की हत्या करायी थी। वे कांगों के क्रांतिकारी जनतांत्रिक नेता थे। अब ये लुलुम्बा के हत्यारे फिर से खुले तौर पर कांगों को लूटने के लिए आ रहे हैं।

इसी प्रकार केन्या के राष्ट्रपति रूटो भी अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ खड़े हैं। वे भी गरीबों और शोषितों के बारे में भावनामय बातें करने के बावजूद इसी लूट के निजाम को आगे बढ़ाना चाहते हैं।

इसके बरक्स चीन के शासक अफ्रीकी देशों के साथ व्यापार चुपचाप बढ़ाते जा रहे हैं। वे अपने लूट के तंत्र को सभी के लिए फायदेमंद बता रहे हैं। उनकी बेल्ट और रोड परियोजना अफ्रीका को पश्चिम से पूर्व को जोड़ने वाली बहुत बड़ी परियोजना है। जहां अमरीकी साम्राज्यवादी अफ्रीकी शासकों के साथ घूस और धमकी का रिश्ता रखते हैं वहीं चीनी शासक अपने व्यापार और ढांचागत मदद के जरिए अपने प्रभाव को फैला रहे हैं।

एक का प्रभाव पहले व्यापक था। अभी भी वह ताकतवर है। लेकिन वह कमजोर हो रहा है। दूसरे का प्रभाव एक-दो दशकों से ही बढ़ना शुरू हुआ है। वह ताकत पा रहा है। वह चुपचाप व्यापारिक रास्ते से घुसता आ रहा है। अफ्रीकी महाद्वीप में टकराहट का विभिन्न साम्राज्यवादी ताकतों के बीच संघर्ष का यह एक महत्वपूर्ण कारण है। जिसका प्रभाव घट रहा है, वह बौखला रहा है। वह अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रहा है। अमरीकी साम्राज्यवादी आज इसी स्थिति में हैं। चीनी आज आर्थिक ताकत के जरिए अफ्रीकी महाद्वीप में अपने डैने फैला रहे हैं, कल वे सैनिक तौर पर भी अपने आर्थिक स्वार्थों की रक्षा करेंगे।

इस स्थिति में अफ्रीकी शासक अपनी सौदेबाजी को बढ़ा रहे हैं। वे दोनों पक्षों से कुछ सहूलियतें हासिल कर रहे हैं। लेकिन ये शासक भी मजदूर-मेहनतकश अवाम के शत्रु हैं।

फिलहाल, इन साम्राज्यवादी टकराहटों से इन देशों के अवाम को यह समझने का मौका मिलेगा कि इनके शासक कैसे इन टकराहटों का फायदा उठाते हैं और बदले में यहां की अवाम इनके बीच की भी टकराहटों को कैसे अपने पूंजीवाद विरोधी संघर्ष में इस्तेमाल करने में आगे बढ़ सकती है।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।