सावधान! खतरा बरकरार है।

मुल्क के करोड़ों युवा-छात्र-नौजवान
खड़ा करते हैं सवाल, शिक्षा, स्वास्थ्य 
और रोजगार का
पूछते हैं सवाल? सुनो सरकार
कहां है हमारा रोजगार?
तभी कहीं से उठती है आवाज
बचाओ बचाओ धर्म खतरे में है
नौजवानो आओ आओ
अपने धर्म और संस्कृति को
विधर्मियों से बचाओ
युवाओं का समूह धर्मध्वजा उठाकर चल पड़ता है
देखते ही देखते शहर जल उठता है।

देश के करोड़ों मजदूर और किसान
होकर हलकान, पूछते हैं मुट्ठी तान
मेरी उपज का दाम कहां है?
मेरे श्रम का फल कहां है?
तभी सीमा पर बम फटता है
धुएं का गुबार उठता है
अखबारों के पन्नों से लेकर
टीवी तक शोर मचता है
मातृभूमि की रक्षा करो
देश खतरे में है,
पूरा देश राष्ट्रवाद के रंग में रंग जाता है
गर्म लहू अचानक जम जाता है
मातृभूमि की बलिवेदी पर, सैकड़ों जवान
करवा दिये जाते हैं कुर्बान
चारों तरफ शोक की लहर में
छा जाती है मुर्दा सी शान्ति।

दलित, पिछड़े और आदिवासी
खड़ा करते हैं सवाल
अपने हक, गैरबराबरी और सम्मान का
जल जंगल जमीन और आसमान का
देश एक बार फिर खतरे में आ जाता है
इस बार बाहर से नहीं खतरा अंदर से आता है
नक्सलवाद सबसे गंभीर समस्या बन जाता है
नक्सलियों के नाम पर
सरकारी दमन चक्र चलता है
ढेर कर दिया जाता है, जो भी उन्हें खलता है।

जब तक लुटेरों, धन्नासेठों का राज है
हर वक्त देश में खतरा बरकरार है
खतरों से अगर निकलना है
बस एक ही राह चलना है
समाज को बदलना है
समाज को बदलना है।।  

-भारत सिंह, आंवला

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।