संघ की हिंदू फासीवादी राजनीति का प्रयोग स्थल : पुरोला

पुरोला, पिछले साल राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रहा था। ऐसा तब हुआ जब, मई माह में संघ परिवार ने फर्जी ‘‘लव जिहाद’’ के मुद्दे के इर्द गिर्द पुरोला में ‘‘मुसलमान मुक्त उत्तराखंड’’ का नारा देकर आम हिंदुओं की अपने राजनीतिक मुद्दे पर गोलबंदी की। एक फर्जी कहानी गढ़ कर, इसे कथित लव जिहाद का मुद्दा बनाया गया और फिर मुसलमानों को निशाने पर लिया गया, आतंकित करके खदेड़ने का काम किया गया।
    
एक 14 साल की हिंदू नाबालिग लड़की को कथित प्रेम जाल में फंसाकर, दो मुसलमान युवकों (दोस्तों) द्वारा बरगलाकर अपहरण करने की खतरनाक फर्जी कहानी शुरुवात में उछाली गई। कुछ वक्त बाद ही पता लगा कि इसमें एक हिंदू तो दूसरा मुसलमान है। लेकिन मकसद तो सांप्रदायिक उन्माद और ध्रुवीकरण था, इसलिए फर्जी कहानी का धुंआधार प्रचार किया गया। इस कहानी के रूप में जो एफ आई आर लिखी गई उसमें मुख्य और चश्मदीद गवाह आशीष चुनार था, जिसे संघ (आर एस एस) का ही सदस्य बताया गया है। 
    
अब साल भर बाद निचली अदालत ने इस मुद्दे में आरोपों को मनगढंत और विसंगतिपूर्ण पाया। कथित अपहृत लड़की ने बयान दिए कि उसने 164 के बयान पुलिस के निर्देश और सिखावे पर दिए। चश्मदीद गवाह चुनार ने कहा कि अपहरणकर्ता ये दो युवक नहीं थे जिन्हें उसने देखा था। इसी तरह लड़की के चाचा ने कोर्ट में बयान दिए कि उनकी भतीजी ने ‘‘उन्हें घटना के बारे में कुछ नहीं बताया’’ और उन्होंने ‘‘आशीष चुनार के निर्देश पर’’ शिकायत लिखी थी।
    
इस तरह एक फर्जी अफवाहपूर्ण और सांप्रदायिक उन्माद तथा ध्रुवीकरण की कहानी बेनकाब हुई। हालांकि संघी तत्व फिलहाल इसे हाईकोर्ट में ले जाने की बातें भी कह रहे हैं।
    
संघ परिवार ने ‘‘हिंदू महिलाओं की कथित रक्षा और सुरक्षा’’ के नाम पर ऐसे ही प्रयोग बड़े स्तर पर 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों के आयोजन में किए थे। तब सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ये प्रयोग मुजफ्फरनगर, मेरठ, शामली, बागपत के किसान बहुल इलाके में किए गए थे। इसके बाद हुए लोक सभा के चुनाव में भाजपाइयों पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वोटों की खूब बारिश हुई और अधिकतर सीटें इन्होंने हासिल कर ली थीं। इसी के साथ उन्होंने किसानों के गन्ना फसलों की उचित और तय समय पर भुगतान की मांग को भी अपनी मुसलमानों के खिलाफ जहरीली राजनीति के उन्माद में डुबो दिया।
    
संघी संगठन मुसलमान वेश-भूषा धारण करके हिंदू लड़कियों को छेड़ने और अन्य किस्म के काम करते। फिर इसका वीडियो प्रचारित करते। हिंदू लड़कियों को अपने प्रेमजाल में फंसाने का आरोप लगाकर हिंदुओं के खिलाफ लव जिहाद के जरिए अपनी जनसंख्या बढ़ाने का फर्जी आरोप लगाते। यह फर्जी संघी साजिश और अफवाह आम हिंदुओं में मुसलमानों के खिलाफ नफरत पैदा करने में कामयाब रही थी।
    
2014 में सत्ता के आने के बाद तो संघियों ने ऐसे प्रयोग विकेंद्रित रूप में कई राज्यों के अलग-अलग छोटे पाकेट में किए। यही नहीं उन्होंने केरला स्टोरी के नाम से फर्जी लव जिहाद पर फिल्म भी बना डाली थी जबकि खुद मोदी सरकार के हिसाब से लव जिहाद के कोई केस नहीं पाए गए थे। 
    
फर्जी लव जिहाद के यही प्रयोग उत्तराखंड में कुमाऊं और गढ़वाल में भी इन्होंने किए। पहले पौड़ी के सतपुली में कुछ साल पहले किया गया। इसके बाद पिछले साल पुरोला में किया गया। 
    
पुरोला मामले में कोर्ट में हुई जिरह के बाद संघियों का घृणित अभियान सामने आ गया। हालांकि मामला तभी उजागर हो गया था। मगर अब कोर्ट ने इस पर अपनी मुहर लगा दी है।
    
पुरोला जो कि एक नगर पंचायत है। इसके इर्द गिर्द के कई गांवों से लोग इस पाकेट पर केंद्रित होते गए। धीमे-धीमे इसने कस्बे का रूप ले लिया। प्राकृतिक सौंदर्य की वजह से यह टूरिस्ट स्पॉट भी बन गया। धीमे-धीमे यहां पास-पड़ोस के अन्य इलाकों (उ.प्र. और उत्तराखंड) से भी कारोबार के लिए लोग पहुंचे। नए-नए होटल भी खुले। जिस तरह उत्तराखंड में पूंजीपतियों को जमीन लुटाई गई थी वह पुरोला में भी हुआ था।
    
देश के भीतर मौजूद आम आर्थिक संकट यहां भी व्यापारियों के बीच दिख रहा था। माल कम बिकने, मंदी सी स्थिति ने तथा बढ़ती बेरोजगारी ने व्यापारिक प्रतिस्पर्धा को भी बढ़ाया। इस तरह एक आम भावना और सोच स्थानीय लोगों में बन रही थी कि बाहरी लोग रोजगार और दुकानदारी चौपट कर रहे हैं, हमारी जमीनों को खरीद कर हमें बेदखल कर रहे हैं। जबकि यह आभासी सत्य था वास्तविक नहीं।
    
यह सोच और भावना उत्तराखंड में विशेषकर पहाड़ी इलाकों में बन रही आम सोच का ही हिस्सा था। इसके खिलाफ एक तरफ सशक्त भू कानून की मांग हो रही थी तो दूसरी तरफ मूल निवासी को  1950 से तय करने की। इसी के साथ संसाधनों पर पहला अधिकार इस मूल निवासी के होने का संघर्ष चल रहा था।
    
भाजपा और संघी लाबी ने इस अंतर्विरोध को हिंदू-मुसलमान के अंतर्विरोध के रूप में प्रस्तुत किया, स्थानीय संकीर्ण हितों के शिकार व्यापारी जिसमें स्वयं भी कुछ भाजपा और संघ में थे, उनके लिए यह सुनहरा अवसर भी था। कि उन्हें, मुसलमान दुकानदारों को खदेड़ने में ही अपने व्यावसायिक संकट की मुक्ति दिखती थी। कुछ ऐसे भी थे जिनकी नजरें इन्हें खदेड़कर इनकी सम्पत्ति कब्जा लेने पर भी थी।
    
संघियों ने इसी अंतर्विरोध को जिसकी जड़ें समाज की अर्थव्यवस्था में थी, उसे मुसलमानों के खिलाफ मोड़ दिया। इन्होंने यह कथित लव जिहाद और लैंड जिहाद की आड़ में किया। इस तरह तीन चीजें हासिल होनी थीं। पहली थी संकीर्ण स्थानीय व्यावसायिक हित और सस्ती संपत्ति (जिसे मुसलमान औने-पौने दाम पर बेचकर चले जाते)। दूसरा था सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करके अपनी जड़ें समाज में मजबूत करना और ‘हिंदुत्व’ के नाम पर चुनाव में जीत हासिल करना। तीसरा दूरगामी तौर पर हिंदुत्व की फासीवादी राजनीति को आगे बढ़ाना। इसके साथ ही उत्तराखंड के शिक्षित बेरोजगारों के सरकार विरोधी संघर्ष की धार को कुंद कर देना तथा सशक्त भू कानून की मांग की दिशा को सांप्रदायिक बना कर पूंजीपतियों या भूमाफियाओं को बचा लेना।
    
इसके दम पर जनता को विभाजित और एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने में ये सफल जरूर रहे। मुसलमानों को अपनी जान की सुरक्षा में सब कुछ छोड़कर जाना पड़ा। कुछ ही वापस लौटे। कुछ ने अपनी संपत्ति बेच दी। अभी भी यह प्रक्रिया खत्म नहीं हुई। 
    
पुरोला में हिंदू रक्षा अभियान के बैनर तले और इसके कथित योद्धा दर्शन भारती और तोमर इस घृणित फासीवादी काम में लगे हुए थे। मगर आज इसे स्थानीय नहीं, नीचे से नहीं, बल्कि ऊपर से निर्देशित किया जाता है। यही संघ और भाजपा की रणनीति है कि बिखरे-बिखरे रूप में ऐसे स्थानीय फर्जी मामलों के जरिए सांप्रदायिक फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाया जाये। दिखने में तो ऐसी घटनाएं छोटे से इलाके में होंगी मगर राष्ट्रीय स्तर के मोदी राग गाने वाले मीडिया के जरिए सांप्रदायिक उद्वेलन देशव्यापी किया जाएगा।
    
ये संघी हिंदू फासीवादी इतिहास की गति को भूल जाते हैं। हिटलर के पद चिन्हों पर चलने का इनका हश्र भी हिटलर की ही तरह का होना है, उससे भिन्न कुछ और नहीं। 
 

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