उत्तराखण्ड में भाजपा सरकार के मजदूर हितैषी होने के पाखण्ड की असलियत एक बार फिर उजागर हो चुकी है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सरकार ने जब राज्य में मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी 25 प्रतिशत बढ़ाने की घोषणा की थी तब ही ये आशंका जाहिर की जा रही थी कि यह सब वोट की खातिर किया जा रहा है। कि इसे व्यवहार में उतारने से सरकार मुकर जायेगी। अब उच्च न्यायालय द्वारा उक्त मजदूरी वृद्धि पर रोक ने इस आशंका को सच साबित कर दिया है।
15 मार्च 2024 को अचानक 24 अधिसूचनायें निकाल उत्तराखण्ड सरकार ने न्यूनतम मजदूरी 12,500 रु. के करीब की घोषणा की थी। इस घोषणा को 1 अप्रैल 24 से लागू होना था। इन अधिसूचनाओं के खिलाफ उत्तराखण्ड उद्योग संघ हाईकोर्ट में याचिका दायर करता है जिस पर सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने 11 जून 24 को इस वृद्धि पर अंतिम निर्णय तक रोक लगा दी। हाईकोर्ट ने उद्योग संघ के ही कहने पर याचिका के लंबित रहने की अवधि में बढ़ी हुई न्यूनतम मजदूरी का 50 प्रतिशत भुगतान करने का मालिकों को निर्देश दिया। यानी जब तक इस याचिका पर सुनवाई पूरी नहीं होती तब तक लगभग 11,250 रु. का भुगतान न्यूनतम मजदूरी के बतौर किया जायेगा।
गौरतलब है कि उक्त याचिका में कुछ तकनीकी प्रावधानों को उद्योग संघ ने आधार बनाया था। याचिका के अनुसार मजदूरी की दरें संशोधित करने में सरकार ने तय प्रक्रिया सलाहकार समिति व बोर्ड को बैठक पूर्व एजेण्डा नहीं भेजा। सरकार ने आनन-फानन में समिति व बोर्ड की बैठक कर यह पूर्व नियोजित निर्णय लागू कराया व इस तरह उसने श्रमिक संगठनों व उद्योगों के उचित प्रतिनिधित्व की राय नहीं ली। कि इसमें अन्य राज्यों से तुलना को झटपट पूरा किया गया। इसलिए इस वेतन वृद्धि में विधायी प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ।
गौरतलब है कि सरकार ने 11 मार्च को सलाहकार समिति व 12 मार्च को बोर्ड की बैठक कर 15 मार्च को अधिसूचनायें जारी कर दी थीं। यह भी गौरतलब है कि इस समिति व बोर्ड में जहां श्रमिक प्रतिनिधि के नाम पर भारतीय मजदूर संघ (भाजपा से सम्बद्ध मजदूर संगठन) का एक प्रतिनिधि मौजूद था वहीं उद्योगों के कई प्रतिनिधि थे। बैठक में मजदूर संघ के उक्त प्रतिनिधि ने 40 प्रतिशत वेतन वृद्धि की मांग की थी। पर अंत में सरकार ने महज 25 प्रतिशत वृद्धि की। बाद में जब उद्योग संघ के प्रतिनिधि इस नाम मात्र की वेतन वृद्धि पर भी सहमत नहीं हुए तो सरकार ने पुनः समिति की बैठक बुलाई जिसमें कोई निष्कर्ष नहीं निकला व उद्योग संघ हाईकोर्ट चला गया।
सरकार व उद्योग संघ की मिलीभगत का अनुमान इसी से लग जाता है कि सरकार को उद्योग संघ की नाराजगी पता थी और वह चाहती तो कैविएट लगा उक्त याचिका के वक्त अपना पक्ष भी हाईकोर्ट में रख सकती थी। पर सरकार ने ऐसा नहीं किया। और उच्च न्यायालय के उक्त निर्णय को श्रम विभाग के जरिये सभी जगह लागू करने के लिए भेज दिया। सरकार विधानसभा में निर्णय पारित कर भी उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर सकती थी पर सरकार ने ऐसा नहीं किया। यह सब दिखलाता है कि सरकार को मजदूरों की दुर्दशा से कोई सरोकार नहीं है।
उच्च न्यायालय के माननीय न्यायधीश जो खुद तो लाखों रु. का वेतन लेते हैं उन्हें मजदूरों के वेतन में यह नाम मात्र बढ़ोत्तरी भी स्वीकार नहीं हुई। उच्च न्यायालय को तो इस मजदूरी वृद्धि को आज की महंगाई देखते हुए नाकाफी घोषित करना चाहिए था। पर वह पूंजीपतियों के साथ खड़ा हो इस वृद्धि को छीनने में जुट गया।
यह प्रकरण दिखलाता है कि सरकार-न्यायालय से लेकर प्रशासन तक सब पूंजीपतियों के साथ व मजदूरों के खिलाफ खड़े हैं। श्रम विभाग व प्रशासन जगह-जगह मजदूरों के आक्रोश के बावजूद इस वृद्धि को भी लागू कराने की अपनी ओर से पहल करने को तैयार नहीं है। ऐसे में मजदूरों को इस सच्चाई को समझना होगा कि उनके जीवन की बेहतरी का रास्ता उनके संगठित संघर्ष से होकर जाता है और उन्हें अपनी मजदूरी में नाम मात्र की वृद्धि को भी संघर्ष से ही हासिल करना होगा।
उत्तराखण्ड : उच्च न्यायालय की न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि पर रोक
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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।