युवा मतदाता की उदासीनता

यह कहा जा रहा है कि वर्तमान चुनावों में युवा मतदाता, खासकर पहली बार वोट डालने की उम्र में पहुंच रहा मतदाता चुनावों के प्रति उदासीनता दिखा रहा है। मतदान के कम होने में उसका भी योगदान है। पूंजीवादी जनतंत्र में यकीन करने वालों के लिए यह चिन्ता का विषय है। 
    
इस संबंध में यही कहा जा सकता है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय! कई दशकों से भारत की युवा आबादी को गैर-राजनीतिक बनाने की हर चंद कोशिशें की जा रही हैं। इस कोशिश में सभी पूंजीवादी पार्टियों की सरकारों की भूमिका रही है। और वे इसमें किसी हद तक कामयाब भी रही हैं। 
    
उच्च शिक्षा के संस्थान मसलन डिग्री कालेज और विश्वविद्यालय पहले छात्र राजनीति के केन्द्र हुआ करते थे। छात्र संघों के चुनाव इसमें प्रमुख भूमिका निभाते थे। छात्र राजनीति के ये केन्द्र पूंजीवादी पार्टियों के लिए भर्ती और प्रशिक्षण केन्द्र भी होते थे जहां से उन्हें अपने भविष्य के कार्यकर्ता और नेता मिलते थे। 
    
समय के साथ ऐसा हुआ कि पूंजीवादी पार्टियों की अपनी जरूरतें इन शिक्षण संस्थानों की बुनियादी भूमिका यानी शिक्षा पर हावी हो गइंर्। इस तरह पूंजीवादी पार्टियों की जरूरतों और पूंजीवादी व्यवस्था की जरूरतों के बीच एक तीखा अंतर्विरोध पैदा हो गया। शिक्षण संस्थानों में अराजक माहौल कायम हो गया तथा शिक्षा-दीक्षा का काम बाधित होने लगा। 
    
यह सब व्यवस्था के मालिकों यानी पूंजीपति वर्ग को स्वीकार नहीं था। इसीलिए उदारीकरण के दौर में जब शिक्षा भी ज्यादा नंगे तरीके से पूंजीपति वर्ग के हिसाब से तय होने लगी तो पूंजीपति वर्ग ने मांग की कि शिक्षण संस्थानों में छात्र राजनीति पर लगाम कसी जानी चाहिए। या तो वहां छात्र संघ खत्म कर दिये जाने चाहिए या फिर उन्हें बेहद कड़ी जंजीरों में जकड़ दिया जाना चाहिए। इसीलिए लिंगदोह कमेटी का गठन किया गया और फिर उसकी कठोर शर्तों को देश भर में लागू किया गया। 
    
इसका परिणाम यह निकला कि पिछले तीन दशकों में शिक्षण संस्थान क्रमशः छात्र राजनीति से मुक्त होते गये हैं। जिन जगहों पर छात्र संघ मौजूद हैं वहां भी छात्र राजनीति अत्यन्त संकुचित दायरों में कैद है। 
    
रही-सही कसर शिक्षा के तौर-तरीकों में बदलाव ने पूरी कर दी। सैमेस्टर सिस्टम में टेस्ट और परीक्षाओं के जाल में उलझा छात्र मुश्किल से किसी अन्य चीज के बारे में सोच पाता है। 
    
इसी के साथ इस बात को भी रेखांकित करना होगा कि पूंजीवादी राजनीति की वर्तमान गति ने भी युवा आबादी में एक गैर-राजनीतिक माहौल कायम करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। पूंजीवादी राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार और अवसरवाद आम तौर पर ही समूची आबादी में एक घृणा के भाव को पैदा करता है। युवा आबादी में इसका यह प्रभाव और सघन होता है। राजनीतिज्ञों के प्रति घृणा राजनीति के प्रति घृणा की ओर ले जाती है जो अपनी बारी में एक गैर-राजनीतिक माहौल पैदा करती है। 
    
यह गैर-राजनीतिक माहौल पूंजीपति वर्ग के लिए बहुत काम की चीज है। राजनीति और कुछ नहीं बल्कि सत्ता के लिए संघर्ष है। ऐसे में यदि आबादी का एक बड़ा हिस्सा, खासकर युवा आबादी राजनीति से विरत हो जाये तो पूंजीपति वर्ग के लिए यह बहुत काम की चीज है। तब बस उसे अपने कुछ पालतू नेताओं और पार्टियों से ही निपटना होगा। 
    
लेकिन पूंजीवादी जनतंत्र की वैधानिकता के लिए यह भी जरूरी है कि चुनावों के समय यही गैर-राजनीतिक लोग वोट डालें। और जब लोग वोट नहीं डालते तो पूंजीवादी जनतंत्र की वैधानिकता संकट में पड़ती है। इससे बचने के लिए चुनावों के समय वोट डालने की बार-बार अपील की जाती है। मतदाताओं को उनके कर्तव्य की याद दिलाई जाती है। 
    
इस तरह पूंजीपति वर्ग चित भी मेरी, पट भी मेरी की स्थिति हासिल करना चाहता है। वह चाहता है कि युवा गैर-राजनीतिक बनें लेकिन साथ ही चुनावों में मतदान भी करें। और जब युवा आबादी उसके हिसाब से नहीं चलती तो वह उन्हें कोसता है। इस समय भी यही हो रहा है।  

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।