भाजपा और आर एस एस : अंतर्विरोध और एकता

पिछले कुछ समय से संघ मुखिया के बयान खासकर मोदी को निशाने पर लेने वाले रहे हैं। विशेषकर ऐसा चुनाव के बाद तब हुआ जब मोदी-शाह की जोड़ी अपने 400 पार के नारे से काफी दूर रह गई और इसे दो बैसाखियों का सहारा लेने को मजबूर होना पड़ा। वैसे तो भाजपा के अध्यक्ष जे पी नड्डा ने भी चुनाव के दौरान ही कह दिया था कि भाजपा अपने दम पर ही चुनाव जीतने में सक्षम है। इसमें यह अंतर्निहित था कि भाजपा को संघ की जरूरत नहीं। 
    
लेकिन क्या वास्तव में भाजपा को संघ और संघ को भाजपा की जरूरत नहीं है? यदि एकाधिकारी पूंजी के मालिकों को फिलहाल छोड़ दिया जाए तो भाजपा को यहां तक पहुंचाने में संघ की जहरीली राजनीति के साथ ही इसके तमाम संगठनों और कार्यकर्ताओं का ही कमाल है। लेकिन इसके उलट बात भी सच है कि यदि एक दौर की जनसंघ और फिर बाद में भाजपा सत्ता पर नहीं पहुंचती तो संघ भी वह नहीं होता जो आज हैं। हालांकि संघ के इस विस्तार-प्रसार में कांग्रेस का योगदान भी परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से कम नहीं है।  
    
यदि 2014 के बाद से संघ की शाखा से ही निकला शख्स देश का प्रधानमंत्री बना, भाजपा सत्ता में आई तो निश्चित तौर पर इसका फायदा संघ को मिला। इसके तमाम लोग जो जेलों में बंद थे, आतंकवाद और दंगों के आरोप में; वे रिहा हो गए। संघ को अपनी शाखाओं का विस्तार करने का खुलकर मौका मिला। इसने खुलकर समाज में वैधता हासिल कर ली। कुछ राज्यों में संघ की पृष्ठभूमि के लोग मुख्यमंत्री बने। इन्हें विधान सभाओं में घुसने का मौका मिला इसी तरह संसद में भी। संघी पृष्ठभूमि के लोग न्यायपालिका से लेकर सेना और देश की तमाम संस्थाओं में घुसपैठ कर गए। 
    
इसी तरह 2014 के चुनाव में एकाधिकारी पूंजी के मालिकों की अथाह पूंजी और मीडिया के अलावा संघ व इसके संगठनों के कार्यकर्ताओं की मेहनत भी थी जिससे गुजरात की मोदी-शाह की जोड़ी दिल्ली की सत्ता पर विराजमान हो गई।
     
फिर संघ और भाजपा के बीच क्या दरार हैं क्या अंतर्विरोध है? क्या यह दुश्मनाना अंतर्विरोध है? भाजपा और संघ के बीच अंतर्विरोध स्वाभाविक था और है। इसकी अलग-अलग वजह हैं। यह 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब भी था और यह आज भी है। मगर यह कोई दुश्मनाना अंतर्विरोध नहीं है। यह दोस्ताना अंतर्विरोध है। दोनों एक ही लक्ष्य से प्रेरित हैं। लक्ष्य है हिन्दू राष्ट्र कायम करना। एकाधिकारी पूंजी के मुनाफे और हित में आतंकी तानाशाही कायम करना। यही हिन्दू राष्ट्र है। 
    
मोदी-शाह की अगुवाई में जिस तरह से भाजपा ने पिछले 10 सालों में सत्ता चलाई है, देश में निरंकुशता को बढ़ाया है, दमन की नई मिसालें पेश की हैं, इसके साथ घोर पूंजीपरस्त नीतियों ने महंगाई और भीषण बेरोजगारी को पैदा किया है उसने संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं के सामने जनता के बीच से कई सवालों को खड़ा कर दिया है। ऐसे में संघी कार्यकर्ता कब तक जनता को मूर्ख बनाए। चुनाव प्रचार में इन सवालों का क्या जवाब दे कि उनके अच्छे दिन क्यों नहीं आ रहे हैं क्यों जिंदगी के कष्ट काफी बढ़ गए हैं। 
    
यह भी देखने की जरूरत है कि इन 10 सालों में संघी कार्यकर्ताओं और नेतृत्व ने अलग-अलग स्तर पर जो सत्ता सुख, सुविधाएं, नौकरियां हासिल की हैं उससे वह पहले के संघी आदर्श के हिसाब से भ्रष्ट हो गया है। एक तरह से सुविधाभोगी हो चुका है। जिन्हें यह हासिल नहीं हुआ उनका इससे अंतर्विरोध भी बना है। 
    
इसके अलावा, मोदी-शाह की दमन की निरंकुशतापूर्ण कार्यवाही ना केवल जनता के खिलाफ हुई है बल्कि यह विपक्षी पार्टियों के खिलाफ भी हुई। इसी के साथ यह भाजपा और संघ को अपने अधीन करने की कोशिश के रूप में भी हुई। भाजपा तो अधीन हो गई मगर अब नजर संघ पर थी। ये संघ को खालिस अपना औजार बना देना चाहते थे। ये संघ को झुकाने में सफल हुए पर संघ को ये अपने अधीन करने में कामयाब नहीं हो पाए। इसे लेकर ही अलग-अलग वक्त पर गुपचुप टकराव भी इनके बीच दिखा। संघ का नेतृत्व संघ को बचाने में अभी तक कामयाब रहा। और यह भाजपा पर भी अपने पुराने प्रभाव को पुनः हासिल करने के लिए संघर्षरत है। कहा जा सकता है कि भाजपा और संघ का दोस्ताना अंतर्विरोध जो पहले से ही था उसमें मोदी-शाह काल में टकराव बढ़ गए। 
    
एक तरफ जनता के बीच संघ-भाजपा के प्रति बढ़ता गुस्सा, नाराजगी तो दूसरी तरफ संघ और मोदी-शाह के बीच संघ पर वर्चस्व को लेकर टकराव, ऐसे में संघ को सही मौके का इंतजार था। यह मौका इस बार अंततः मिल ही गया जब मोदी का आभामंडल खत्म हो गया और तमाम गड़बड़ियों के बावजूद 240 सीट ही इन्हें हासिल हो सकीं। जैसे ही ये स्थितियां बनीं संघ मुखिया को मुंह खोलने का मौका मिल गया। मगर वे व्यंग्य बाणों के सिवाय और कुछ फिलहाल नहीं कर सकते। क्योंकि यदि एक ओर मोदी-शाह की जोड़ी एकाधिकारी पूंजी को बेहद प्रिय है तो वहीं दूसरी ओर संघ भी इन्हें कम प्रिय नहीं है। 
    
चूंकि मोदी द्वारा खुद के जैवीय ना होने और ईश्वर का दूत होने की बात की गई; हर चीज की शुरुवात इनके लिए ‘मैं’ से इस तरह होती थी जैसे मोदी ना हो तो दुनिया ना हो, और दुनिया मोदी से ही हो। संघ मुखिया ने मोदी के इसी रुख पर व्यंग्य बाण कसे। जब मोदी का सितारा बुलंद था तब यह सब गुप चुप और नाराजगी में दिखता था। मगर अब यही खुलकर चुभते व्यंग्य बाण के रूप में हुआ है। इस टकराव में संघ को यह हासिल हुआ कि अब सरकारी कर्मचारी संघ की कार्यवाहियों में भाग ले सकते हैं। 
    
कुल मिलाकर भाजपा और संघ के बीच का दोस्ताना अंतर्विरोध मोदी काल में थोड़ा तीक्ष्ण हुआ है। जो कुछ भी इनके बीच तल्खियां दिखीं हैं वह इसी का नतीजा है। 

आलेख

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