हम किराए पर मकान लेते हैं। हम किराए पर गाड़ी लेते हैं। हम किराए पर बीवी लेते हैं....चौंक गए??? जी सही पढ़ा आपने तमाम तरह की वस्तुओं की तरह महिलाएं भी किराए पर खरीदी जाती हैं।
मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में बाजार लगती है। यह बाजार औरतों की होती है। यहां पर बाजार में 10 रु. के स्टाम्प पेपर पर लिखा-पढ़त कर महिलाओं को किराए पर दिया जाता है। शिवपुरी में दशकों से यह प्रथा चलती आ रही है। इस प्रथा को धड़ीचा प्रथा कहा जाता है।
इस प्रथा में परिवार के अपने सदस्य अपनी बेटियों को और कई बार अपनी बीवियों को लिखित अनुबंध के तहत किराए पर देते हैं। यह अनुबंध एक दिन से लेकर एक साल तक का कोई भी समय हो सकता है। कई बार अनुबंध पूरा हो जाने पर उसका नवीनीकरण कर उसको और आगे बढ़ा दिया जाता है और कई बार अनुबंध समाप्त होने पर उस महिला को किसी दूसरे को किराए पर दे दिया जाता है। किराया 1500 से शुरू होकर 25,000 और कई बार उससे ज्यादा का भी हो सकता है।
खरीदी-बेची जाने वाली इन महिलाओं में जोर 8 साल से 15 साल तक की नाबालिग लड़कियों पर होता है। लड़की जितनी छोटी होगी कीमत उतनी ज्यादा होगी। इन लड़कियों को किराए पर चढ़ाने का काम मुख्यतः दलाल करते हैं। यह दलाल लड़कियों की फोटो लेकर घूमते हैं और उनकी फोटो पर किराए पर देने वाले और किराए पर लेने वालों के बीच करार करवाया जाता है। और दलाल को उसका कमीशन मिलता है। इसमें किराए पर चढ़ने वाली महिलाएं अधिकांशतः मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, असम जैसे गरीब राज्यों से आती हैं जहां गरीबी और भुखमरी के चलते परिवार अपने घरों की लड़कियों और औरतों को किराए पर दे देते हैं।
किराए पर ली जाने वाली इन महिलाओं के साथ होने वाला यौन उत्पीड़न अकथनीय होता है। एक किराए पर ले जाई गई औरत के साथ कई-कई पुरुषों द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता है। इन महिलाओं के यौन उत्पीड़न के साथ-साथ उनके साथ हिंसा और दुर्व्यवहार भी किया जाता है। कई बार छोटी बच्चियां जिन्होंने अभी तरुणाई भी नहीं पाई है उनके साथ वीभत्स यौन घटनाएं होती हैं।
धड़ीचा प्रथा भी पूंजीवाद और सामंती मूल्यों के उसी संयोजन का परिणाम है जिसकी शिकार इस देश की बहुलांश मेहनतकश आधी आबादी है। परंपरा के नाम पर यह प्रथा महिलाओं को एक उपभोग की वस्तु बनाकर रख देती है। रिपोर्टों के अनुसार ज्यादातर परिवार गरीबी तथा बेकारी का शिकार होकर अपने घर की महिलाओं को किराए पर देते हैं।
चाहे कालाहांडी में एक कटोरा भात के बदले बिकते बच्चे हों या धड़ीचा प्रथा में किराए पर लगती औरतें यह भूख और बदहाली का चरम मौजूदा व्यवस्था को बिल्कुल नग्न रूप में उजागर कर देता है। धड़ीचा अपने आप में अकेली प्रथा नहीं है। राजस्थान में चलने वाली नाता प्रथा हो या कई राज्यों में खरीदी जा रही पत्नियां हर जगह परंपरा के नाम पर महिलाओं की खरीद-फरोख्त हो रही है।
धड़ीचा के बारे में अधिकारियों का कहना है कि यह प्रथा गैरकानूनी है तथा उस पर रोक लगाए जाने की कोशिश चल रही है। लेकिन हम सब जानते हैं कि इस देश में कानून, न्याय सब कुछ उनके लिए है जिनकी जेब में पैसा है। जो परिवार गरीबी और भुखमरी के कारण अपने परिवार की महिलाओं को किराए पर दे रहे हों या फिर बेच रहे हों उनके लिए कानून या न्याय का कोई मतलब नहीं है। पेट की भूख के आगे न्याय की सभी बातें सिर्फ हास्यास्पद लगती हैं।
आज 21 वीं सदी में जब एक तरफ इस देश का एक हिस्सा ऐसा है जिसके ऐश्वर्य और ठाठ की कोई सीमा नहीं है, जिनके परिवारों की शादी पूरे एक शहर को रोक देती है। वहीं दूसरी तरफ एक हिस्सा ऐसा है जिसके पास अपने पेट की भूख को शांत करने के लिए अपने परिवार के सदस्यों को बेचने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। कहीं माएं अपनी संतानों को बेच रही हैं तो कहीं पति अपनी पत्नियों को किराए पर दे रहे हैं। आक्सफैम की हाल में आई असमानता की रिपोर्ट (https://www.oxfam.org/en/india-extreme-inequality-numbers) के अनुसार भारत में पिछले तीन साल में असमानता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। एक तरफ इस देश की 1 प्रतिशत आबादी के पास देश की 73 प्रतिशत संपदा है वहीं दूसरी तरफ बाकी 99 प्रतिशत आबादी के पास महज 27 प्रतिशत संपदा है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत की 99 प्रतिशत आबादी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी मूलभूत आवश्यकताएं आज महंगे शौक हो चुकी हैं। ऐसे में धड़ीचा जैसी प्रथाएं परंपरा के नाम पर इस व्यवस्था द्वारा उत्पन्न गरीबी और भुखमरी में फलती-फूलती हैं।
धड़ीचा में किराए पर दी जाने वाली बच्चियों के पीछे एक कारण इस देश की महिला आबादी के अस्तित्व के साथ जुड़ा संकट है। समाज में लड़के की चाह में कन्या भ्रूण हत्या तेजी से चल रही है। आंकड़ों के अनुसार भारत का 2024 का लिंगानुपात हर 106 पुरुषों पर 100 महिलाएं है। यह लिंगानुपात कई राज्यों में इतना ज्यादा है कि उन राज्यों में अब लड़कों को शादी के लिए लड़कियां मिलनी मुश्किल हो रही हैं। ऐसे में इन राज्यों के पुरुषों के लिए धड़ीचा जैसी प्रथाएं अपने लिए महिलाएं खरीदने में काम आती हैं।
पूंजीवादी व्यवस्था में उत्तरोत्तर गहराता जीवन संकट और महिलाओं के प्रति पराया धन होने की सामंती सोच दोनों समाज में व्याप्त हैं। लड़कियों का जन्म उनके परिवारों के लिए एक बोझ बन जाता है। लालन-पालन से लेकर शादी और दहेज के खर्चे के डर से या तो परिवार लड़कियों को गर्भ में ही मार देते हैं या फिर यह लड़कियां धड़ीचा या नाता जैसी प्रथाओं की शिकार होती हैं।
जहां एक तरफ सामंती मूल्यों ने महिलाओं को हमेशा से दोयम दर्जे पर रखा वहीं पूंजीवादी मुनाफा महिलाओं की इस दोयम दर्जे की स्थिति को और सशक्त कर उन्हें सस्ते श्रम के रूप में इस्तेमाल करता है। महिलाओं से संबंधित सामंती मूल्य महिलाओं को इंसान होने के दर्जे के रूप में ही नहीं स्वीकार करते वहीं दूसरी तरफ पूंजीवादी मुनाफा उन्हें एक उपभोग की वस्तु में तब्दील कर देता है। टीवी विज्ञापनों के माध्यम से महिलाओं का अश्लील चित्रण समाज में महिलाओं के प्रति एक कुत्सित मानसिकता को जन्म देता है और समाज में महिलाओं को मात्र यौन उपभोग की वस्तु के नजरिए से देखा जाता है। ऐसे में धड़ीचा जैसी प्रथाएं पूरे जोरों के साथ फलती-फूलती हैं और महिलाओं की यौन उपभोग के लिए खरीद-फरोख्त साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।
पूंजीवादी व्यवस्था पूरी ही मेहनतकश आबादी को मात्र एक उजरती गुलाम के रूप में तब्दील कर देती है। जहां उसका अस्तित्व मात्र उत्पादन के औजार में तब्दील हो जाता है। और इस व्यवस्था में जहां एक तरफ महिलाएं अन्य मजदूर आबादी की तरह न सिर्फ उजरती गुलामी का शिकार हैं बल्कि सामंती मूल्य और पारिवारिक जकड़बंदी उनके लिए दोहरी-तिहरी गुलामी बन जाती है। ऐसे में महिलाओं को धड़ीचा जैसी प्रथाओं से सिर्फ एक ऐसी व्यवस्था मुक्त कर सकती है जहां शोषण-उत्पीड़न का नामो-निशां न हो।
धड़ीचा प्रथा : किराए पर चढ़ती महिलाएं
राष्ट्रीय
आलेख
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को
7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक
अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।