हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा

लोकसभा चुनाव

2024 के लोकसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है। वायदों-गारंटियों की बौछारें हो रही हैं। जाति-धर्म से लेकर जोड़-तोड़़ के सारे समीकरण बैठाये जा रहे हैं। एक ओर मोदी-शाह के नेतृत्व वाला एन डी ए गठबंधन है जो 10 वर्षों से सत्ता से चिपके रहने के बाद आगे भी सत्ता की कुर्सी हथियाने के सारे हथकण्डे चल रहा है। इडी-सीबीआई सब इसके प्रचार में विपक्षी नेताओं पर हमले-छापे डाल रही हैं। 10 वर्षों के इसके शासन ने देश को वहां पहुंचा दिया है जहां यह नाम के लोकतंत्र को लात लगा फासीवादी तानाशाही थोपने की ओर बढ़ रहा है। तो दूसरी ओर ‘लोकतंत्र’ की रक्षा के नाम पर इंडिया गठबंधन का कांग्रेस-सपा-आप-तृणमूल -शिवसेना सरीखा भानुमति का पिटारा है। यह भी सत्ता की कुर्सी पाने के लिए हर दांव खेल रहा है। एनडीए बनाम इण्डिया के दांव पर पूंजीपति दोनों ओर से पैसा लगा रहे हैं। इस चुनावी शोर-गुल में जिसका नाम हर रोज लेकर शोर मचाया जा रहा है पर जिसकी दोनों गठबंधनों को कोई परवाह नहीं है वह है मजदूर-मेहनतकश जनता। प्रश्न उठता है कि मजदूर-मेहनतकश इस चुनाव में क्या करें?
    
मोदी सरकार के 10 वर्ष पूंजीपतियों की दौलत-मुनाफे को तेज गति से बढ़ाने वाले रहे हैं। इसीलिए इलेक्टोरल बाण्ड का बहुलांश भाजपा पर लुटा पूंजीपतियों ने अपनी इच्छा जाहिर कर दी है। पूंजीपति संघ-भाजपा के साथ क्यों हैं? क्योंकि बीते 10 वर्षों में मोदी सरकार ने सरकारी संस्थानों-खनिज सम्पदा को खुले हाथों से कौड़ी के भाव पूंजीपतियों को सौंपा है। क्योंकि मोदी सरकार ने 4 श्रम संहितायें बना मजदूरों की निर्मम लूट का इंतजाम पूंजीपतियों के लिए किया है। क्योंकि किसानों की गर्दन पर छुरी चलाने वाले कृषि कानून बना खेती-बाड़ी को भी अम्बानी-अडाणी की लूट के लिए खुली छूट दिलाने की सरकार ने कोशिश की है। किसान आंदोलन के दबाव में भले ही सरकार एक कदम पीछे हटी हो पर चोर दरवाजे से वह कृषि को बड़ी पूंजी की लूट की खातिर सौंपने के नये-नये रास्ते निकालने में लगी रही है। इसके साथ ही देश में बढ़ रही बेकारी-महंगाई से त्रस्त जनता को साम्प्रदायिक उन्माद-अंधराष्ट्रवाद के दलदल में ढकेल बुनियादी मुद्दों पर संघर्ष से रोकने में सफल रही है। मोदी काल में अमीर चैनल दिन-रात मोदी धुन बजाये जा रहे हैं। 
    
ठीक जिस वजह से पूंजीपति बीते 10 वर्षों के शासन से खुश हैं उसी वजह से 10 वर्षों से मजदूर-मेहनतकश जनता की जिन्दगी हर बीते दिन के साथ दुःख-कष्ट में डूबती गयी है। आज अगर बेरोजगारी चरम पर है और बेरोजगारों में 83 प्रतिशत युवा हैं तो युवाओं का दर्द समझा जा सकता है। पढ़े-लिखे बेरोजगारों की दुर्दशा और भी अधिक है। असमानता के मामले में मोदी काल में देश अंग्रेजों के जमाने से भी आगे निकल गया है। एक ओर देश में अरबपति बढ़ रहे हैं। दूसरी ओर बहुलांश जनता की कंगाली बढ़ रही है। आज शीर्ष 1 प्रतिशत अमीरों के पास देश की कुल सम्पत्ति का 40 प्रतिशत व आय का 22.6 प्रतिशत हिस्सा है। इस मामले में भारत दुनिया में पहले नम्बर का देश बन चुका है। अगर शीर्ष 10 प्रतिशत अमीरजादों की बात करें तो ये 65 प्रतिशत सम्पत्ति व 60 प्रतिशत आय के मालिक बन बैठे हैं। इसके उलट देश की नीचे की 50 प्रतिशत आबादी आज 6-7 प्रतिशत सम्पत्ति और 15 प्रतिशत आय पर जिन्दा है। स्पष्ट है कि मोदी काल में अमीर-गरीब के बीच अंतर तेजी से बढ़ा है। 
    
मामला केवल आर्थिक तंगी का ही नहीं है मोदी काल में जिस तरह से दलितों-अल्पसंख्यकों-आदिवासियों -महिलाओं पर हमले बढ़े हैं उसने जीवन को और कठिन बना दिया है। साथ ही जनता के जनवादी अधिकारों को संघी सरकार तरह-तरह से कुचल रही है। सैकड़ों निर्दोष लोग जेलों में ठूंसे जा रहे हैं तो ढेरों निर्दोषों के घर बुलडोजर से ढहाये जा रहे हैं। कानून के शासन की जगह बुलडोजर शासन ने ले ली है। संघी लम्पटों के आतंक को हर ओर महसूस किया जा रहा है। शिक्षा-स्वास्थ्य से लेकर रोटी तक के मामले में दूभर होते जीवन पर संघी आतंक की छाया आम जन को बेहद कठिन हालातों में ढकेल रही है। 
    
ऐसे में स्पष्ट है कि मोदी-शाह की मण्डली को वोट देकर मजदूर-मेहनतकश जन अपने लिए खाई खोदने का काम करेंगे। इन्हें वोट देना अपने दुश्मनों को वोट देना होगा।
    
बात अगर इनसे लड़ने का दम्भ भरने वाले इण्डिया गठबंधन की करें तो इनके दलों का इतिहास भी दिखलाता है कि ये भी पूंजीपरस्त ही हैं; जनविरोधी उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों को ये भी आगे बढ़ाने वाले हैं। कांग्रेस के 60 वर्षों के शासन में हर रोज मजदूर-मेहनतकश पर डण्डा बरसता ही रहा है। आज भी जिन राज्यों में कांग्रेस, तृणमूल से लेकर माकपा तक शासन सत्ता में रहे हैं वे मजदूरों-मेहनतकशों के लूट-शोषण में कहीं से पीछे नहीं रहे हैं। इन्हें मत देकर मजदूर-मेहनतकश जन अपने जीवन में बेहतरी की उम्मीद नहीं कर सकते। 
    
फिर क्या किया जाये? शौक बहराइची ने मशहूर शेर लिखा था- 

बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था
हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा !
    
जाहिर है यह चुनाव लुटेरों के बीच का चुनाव है। इस चुनाव में हर ओर लुटेरे उल्लू ही बैठे हैं इनके हाथों में हमारे गुलिस्तां का अंजाम बुरा ही होना है। ऐसे में जरूरत है कि यह समझा जाये कि पूंजीवादी व्यवस्था रूपी शाख पर बैठे लुटेरे उल्लुओं से बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती और न ही बड़ी पूंजी के चाकर हमारे पक्ष में कोई बदलाव कर सकते हैं। इसीलिए जरूरी है कि इस लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के लिए एकजुट हुआ जाये। मजदूर-मेहनतकश अपने राज समाजवाद को कायम करने के संघर्ष को तेज करें। फासीवादी खतरे के खिलाफ जंग छेड़ी जाये। इस चुनाव से बदलाव की उम्मीद पालने के बजाय जनता के संघर्षों के दम पर बदलाव की तैयारी की जाये। चुनाव में प्रत्याशियों को भी जनता के मुद्दों पर घेरा जाए। जाति-धर्म के बजाय प्रत्याशियों-दलों को जनहित के मुद्दों पर बोलने को मजबूर किया जाए। यह सब करते हुए संघर्ष की ओर बढ़ा जाए। हमारा देश रूपी गुलिस्तां इंकलाब से ही बेहतर अंजाम की ओर बढ़ेगा। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।