इलेक्टोरल बाण्ड एक गोरखधंधा

इलेक्टोरल बांण्ड (चुनावी चंदे) की कुछ सच्चाई धीरे-धीरे उजागर हो गई। पूरी सच्चाई तो तभी सामने आ सकती है जब भाजपा को मिले चंदे की पाई-पाई का हिसाब उजागर हो। और इतने से ही काम नहीं बनेगा बल्कि ‘पी एम केयर्स फण्ड’ को मिले चंदे का भी हिसाब-किताब पूरी पारदर्शिता के साथ उजागर हो।
    
‘हम्माम में सब नंगे हैं’ कहने वाले इस मामले में भाजपा की तरफदारी कर रहे हैं। वे भाजपा के कुकृत्यों, काले कारनामों को छुपाने के लिए उन चंदों की बढ़ चढ़ कर चर्चा कर रहे हैं जो विपक्षी पार्टियों को मिले हैं। वे भाजपा पर मौन साध ले रहे हैं। 
    
इलेक्टोरल बाण्ड एक काला धंधा है। मोदी एण्ड कम्पनी ने जब यह योजना पेश की थी तब ही इसके गुप्त तौर-तरीकों को लेकर कई महत्वपूर्ण सवाल उठ खड़े हुए थे। न तो सरकार, न स्टेट बैंक आफ इण्डिया और न ही पार्टियां यह बताने को तैयार थीं कि इस काले धंधे में किस-किस ने अपने हाथ काले किये हैं। मोदी एण्ड कम्पनी जो इस काले धंधे के सूत्रधार थे वे तो उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद भी यही कोशिश करते रहे कि यह धंधा उजागर न हो। उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद यह काला धंधा उजागर हो गया तो मोदी के खास सिपाही अमित शाह ने पहले तो राशि को कम करके और फिर यह कहकर कि ‘‘आधे से ज्यादा विपक्षी पार्टियों को मिला है’, लीपापोती करने की कोशिश की। यह भी कुतर्क दिया गया कि क्योंकि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है इसलिए उसको इस काले धंधे से सबसे ज्यादा पाने का हक है। हजारों-हजार करोड़ रुपये डकारने वाले कोई डकार भी इस डर से नहीं मारते हैं कि कहीं उनकी पोल न खुल जाये। 
    
इस काले धंधे में बड़े-बड़े पूंजीपतियों के सत्तारूढ़ दल से क्या और कैसे सम्बन्ध रहे हैं, के कुछ उजागर होने से कुछ बातें स्वतः स्पष्ट हैं। पहली बात यह कि यह काला धंधा धूर्त पूंजीपतियों व सत्तारूढ़ दल के नापाक गठजोड़ से चल रहा था। ‘इस हाथ दे उस हाथ ले’ का ही सरल नियम नहीं चल रहा था बल्कि वसूली सुनिश्चित हो सके इसके लिए बांह मरोड़ कर मुट्ठी खुलवाने का भी धंधा जोर-शोर से चल रहा था। भाजपा को मोटा चंदा मिल सके इसके लिए ‘मोटा भाई’ ने आईडी, आईटी, सीबीआई का खुला खेल खेला। रीढ़विहीन अफसर उसी धुन में नाचते रहे जिस धुन पर ‘मोटा भाई’ नचाते रहे। और पूंजीपति भाजपा सरकार से अपने धंधे को चलाने के लिए चंदे की एवज में अभयदान से लेकर नये-नये मोटे सौदे प्राप्त करते रहे। लालची पूंजीपतियों और धूर्त राजनेताओं का गठजोड़ नया नहीं है परन्तु समय के साथ यह नापाक गठजोड़ दिनोंदिन और मजबूत होता गया। मोदी एण्ड कम्पनी ने इलेक्टोरल बाण्ड का कानून बनाकर उस जर्मन कहावत को चरितार्थ कर दिया जो कहती है ‘‘नए कानून, नई बदमाशियां’। 
    
दूसरी बात यह कि मोदी एण्ड कम्पनी से अभयदान मिलने के बाद पूंजीपतियों ने कानून और तयशुदा मानकों की भी धज्जियां उड़ा दीं। निर्माण कम्पनियों ने अपने मुनाफे सुनिश्चित करने के लिए लागत कम करने के लिए सुरक्षा मानकों को किनारे रख दिया। इसका एक नतीजा उत्तराखंड में सिलक्यारा सुरंग की दुर्घटना के रूप में सामने आया। ठीक इसी तरह दवा कम्पनियों ने खराब गुणवत्ता की दवाईयां बनाकर लोगों के स्वास्थ्य से नंगा खिलवाड़ किया। इसी तरह वेदांता जैसी भारतीय बहुराष्ट्रीय कम्पनी खुलेआम भारत के प्राकृतिक संसाधनों की लूट से लेकर पर्यावरण को ही नहीं भारत के आदिवासियों के जीवन को भी खतरे में डालती रही। बिना सत्ता के संरक्षण के ये कम्पनियां अपनी मनमानियां नहीं कर सकती थीं। और सत्ता में बैठे दलाल इसके एवज में मोटी-मोटी रकम वसूलते रहे। भारत के मजदूर, किसान, आदिवासी और साथ ही भारत की प्राकृतिक सम्पदा इन लुटेरों व दलालों के हाथ के खिलौने भर बन गये। 
    
तीसरी बात यह है कि इलेक्टोरल बाण्ड का यह काला धंधा भारत के पूंजीवादी लोकतंत्र के सड़ने-गलने के प्रतीक के रूप में ही नहीं उभरा बल्कि इस बात का भी खुला उदाहरण बन गया कि हिन्दू फासीवादी किस ढंग से भारत की राजनीतिक व्यवस्था को चलाना चाहते हैं। इलेक्टोरल बाण्ड के काले धंधे के उजागर होने के बाद भी भारत के सबसे बड़े एकाधिकारी घरानों अडाणी-अम्बानी-टाटा-बिड़ला के साथ मोदी एण्ड कम्पनी के असल सम्बन्धों का बहुत कुछ उजागर नहीं हो सका। या तो यह चुनावी चंदा उन फर्जी कम्पनियों के जरिये हुआ जिनका सालाना मुनाफा तो मामूली है परन्तु जिन्होंने अपने मुनाफे से भी कई गुना चंदा भाजपा को दिया है। या फिर यह खेल कुछ और अधिक गुप्त ढंग से खेला गया। इलेक्टोरल बाण्ड के अलावा इलेक्टोरल ट्रस्ट भी चंदे का एक अन्य जरिया है। 2019 के आम चुनाव में भाजपा ने 60,000 करोड़ रुपये के लगभग खर्च किये। इतनी विपुल राशि कहां से आयी? और इसका उपयोग कैसे-कैसे किया गया। दर्जनों की संख्या में भाजपा ने पिछले दिनों विपक्षी पार्टियों की सरकारें गिरायी हैं और सैकड़ों की संख्या में विधायक और नेताओं की खरीददारी की है। शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसी पार्टियों का विभाजन करवा दिया गया और कांग्रेस पार्टी के तमाम नेताओं को भाजपा ने अपना चाकर बना लिया। भाजपा की काली कमाई ही है जिसके जरिये भाजपा ने विभिन्न राज्यों में अपनी सरकारें पिछले दस वर्ष में बनायी हैं। और ठीक इसी दौरान अडाणी-अम्बानी-टाटा आदि की दौलत को नये पंख लगे हैं। 
    
लोकतंत्र की यह कहकर स्कूली किताबों में बड़ी तारीफ की जाती है कि यह जनता के द्वारा जनता के लिए जनता का शासन है। जैसे स्कूली किताबों के सारे नैतिक उपदेश दुनियादारी के बूटों तले रौंदे जाते हैं ठीक उसी तरह लोकतंत्र की किताबी परिभाषा का भी हाल है। हकीकत यह है कि सत्ता में बैठा दल सत्ता में पहुंचते ही जनता की आंखों में धूल झोंकता है। भाजपा-संघ ने जनता की आंखों में धूल झोंकने का अपना ही फार्मूला तय किया हुआ है। झूठा राष्ट्रवाद, धर्म के नाम पर भावनात्मक शोषण व ध्रुवीकरण तथा कुछ खैराती योजनाएं जिससे आम मेहनतकशों को झांसा दिया जा सके। और इस खेल के ठीक पीछे अमीरों के लिए अमीरों के द्वारा अमीरां का शासन कायम किया जाए। इलेक्टोरल बाण्ड के तहत अमीरों की सेवा टहल से लेकर उनसे कुछ वसूली के जरिये मोदी एण्ड कम्पनी के द्वारा या तो उन्हें बड़े-बड़े ठेके दिये गये या फिर उनके द्वारा कर चोरी को आवरण पहना दिया गया या फिर सारे कायदे-कानून को किनारे रखकर इन अरबपतियों की खुली-छिपी मदद की गई। 
    
पूंजीवादी लोकतंत्र अपने जन्म से आज तक ऐसे ही काम करता रहा है। उसने आम मजदूरों-मेहनतकशों को एक ओर अपने बारे में झूठे पाठ पढ़ाये और दूसरी ओर यह लोकतंत्र पूंजीपतियों के लिए काम करता रहा। हुआ बस यह है कि अपने बुढ़ापे की ओर बढ़ता हुआ लोकतंत्र असाध्य बीमारियों का शिकार होता गया। चुनाव तक सीमित हो चुका पूंजीवादी लोकतंत्र अधिकाधिक भ्रष्ट होता गया। अपराधीकरण इस कदर बढ़ गया कि यह जानी-पहचानी और आम फहम बात हो चुकी है कि यदि कोई चुनाव में खड़ा है तो उस पर आठ-दस मुकदमे लगे ही होंगे। यहां तक कि भारत की संसद में एक अच्छी-खासी संख्या में ऐसे सांसद हैं जिन पर अपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। यहां तक कि हत्या, बलात्कार, अपहरण जैसे मुकदमे दर्ज हैं। इन पर अपराधिक मुकदमे चलते रहते हैं और ये फिर-फिर सांसद बन जाते हैं। पूंजीवादी राजनीति में अपराध और धन का बोलबाला हर बीते साल के साथ बढ़ता गया है। इलेक्टोरल बाण्ड और इलेक्टोरल ट्रस्ट को राजनीति में शुचिता, पारदर्शिता और सभी दलों के लिए समान अवसर आदि के नाम पर पेश किया गया। समय ने साबित किया कि यह भ्रष्टाचार, अपराध और कानूनी तरीके से लाभ-छूट हासिल करने का संस्थागत-वैधानिक तरीका बन गया। 
    
इलेक्टोरल बाण्ड के गोरखधंधे को उजागर करने में कुछ  ईमानदारी के पुतलों व स्वयं उच्चतम न्यायालय की एक भूमिका है। गोरखधंधे को उजागर करने वाले हो सकता है ये सोचते हैं कि वे अपने इस महान कारनामे से असाध्य रोगों से ग्रस्त बुढ़ाते लोकतंत्र को कुछ लम्बी उम्र प्रदान कर देंगे परन्तु यह एक और तरीके से मजदूरों-मेहनतकशों की आंखों में धूल झोंकना है। इस सबके बाद क्या होगा। क्या धूर्त-लालची पूंजीपतियों और शातिर राजनेताओं का गठजोड़ ध्वस्त हो जायेगा? कदापि नहीं! यह नये-नये कानूनी-गैर कानूनी रूप धारण करेगा और फिर जो बीमारी राजनैतिक तंत्र में है क्या वह न्यायिक तंत्र में नहीं है। भारत का न्यायतंत्र कितना भ्रष्ट है इस बात को वह हर मेहनतकश जानता है जिसका सामना कभी भी कहीं भी न्यायालय से होता है।  

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।