इस साल की बरसात ने किया बुरा हाल

इस साल बरसात के मौसम में काफी तबाही-बरबादी देखने को मिली। पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों तक बारिश ने काफी कहर बरपा किया। बरसात के पानी में मकान माचिस की डिब्बियों की तरह बहते देखे जा सकते थे। लोगों का सामान, खाने-पीने की चीजें, लत्ता-कपड़ा सब कुछ बह गया। जिन लोगों ने अपने पास साल-छः महीने का राशन जमा करके रखा हुआ था, वह भी पानी की भेंट चढ़ गया। बच्चों की किताबें, पढ़ाई-लिखाई का सामान सब कुछ बरसात अपने साथ ले गयी। जानवर बह गये, झोपड़ियां बह गयीं, लोगों का जो कुछ था वह सब कुछ बह गया। यह मंजर काफी भयानक था जब लोग रोते-बिलखते सुरक्षित ठौर-ठिकाने की तलाश में भटक रहे थे लेकिन ऐसी जगह मिलना मुश्किल था जहां वह अपने को सुरक्षित रख सकें, अपने परिवार को सुरक्षा दे सकें। हालत ये हो गयी कि लोगों के पास न तो खाने-पीने का सामान बचा और न ही रहने का ठौर-ठिकाना। 
    
इसमें बहुत सारे लोगों की जानें भी चली गयीं, उनके जानवर भी मारे गये और खेत-खलिहान भी बर्बाद हो गये। यानी अब लोगों को इस बरसाती परेशानी से उबरने में एक लम्बा समय लगेगा। जान-माल का जो नुकसान हो गया वह अलग से उनकी परेशानी का सबब होगा। 
    
जब लोगों के मकान नदी के तेज बहाव में बह रहे थे तो कई लोग इस बात पर नाराजगी जता रहे थे कि ये लोग नदी के किनारों पर बसे ही क्यों थे? क्यों इन्होंने अपने घर इन जगहों पर बनाये जो कि खतरनाक जगहें हैं? क्या ऐसे समय में उन लोगों का यह कहना ठीक था कि लोगों ने अपना बसेरा ऐसी जगहों पर क्यों बनाया जहां पर खतरा हो? 
    
लोगों की आम सोच के अनुसार तो यह ठीक है, परन्तु वास्तव में क्या यह सरकार की जिम्मेदारियों के हिसाब से ठीक है कि लोगों को किसी भी असुरक्षित जगह पर अपना निवास बनाना चाहिए। जी नहीं, यह बिलकुल ठीक नहीं है कि लोगां को अपना आशियाना किसी असुरक्षित जगह पर बनाना चाहिए बल्कि सरकार को यह तय करना चाहिए कि लोगों को ऐसी जगह पर बसाया जाये जहां उनका जीवन सुरक्षित हो और उनका भविष्य किसी भी खतरे की जद में न रहे। 
    
वैसे तो लोगों के रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा की जिम्मेदारी सरकारों की होती है। क्योंकि सरकारें एक भिखारी से लेकर आम आदमी तक से जो टैक्स लेती हैं उस हिसाब से उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह आम आदमी की हर तरह से देखभाल करने का जिम्मा सम्हाले, वह आम आदमी की रोजी, रोटी, आवास आदि की व्यवस्था करे, उसके इलाज, शिक्षा आदि की व्यवस्था करे। लेकिन हमारी सरकारों ने यह जिम्मेदारी कभी भी नहीं निभायी। सरकारों ने जो भी जिम्मेदारियां निभायीं वह केवल अपने राजनीतिक रसूख और तुष्टीकरण के लिए कीं ताकि वह सत्ता में बनी रहें और सत्ता का सुख भोगें। आज से 20-25 साल पहले तक कुछ हद तक इन समस्याओं पर सरकारें नाम मात्र का ही सही कुछ कर देती थीं (हालांकि तब भी विकास के नाम पर लोगों की जमीनें, खेत-खलिहान सरकारें छीन लेती थीं, तब भी पुनर्वास और मुआवजे के लिए लोग भटकते रहते थे, सरकारें किसी के दुःख-दर्द को सुनने को तैयार नहीं होती थीं)। लेकिन आज तो सरकारों ने तय कर रखा है कि आम आदमी को दुख के सिवा और कुछ भी नहीं देना है।  
    
जब से देश में नयी आर्थिक नीतियों का प्रभाव बढ़ता गया तब से सभी सरकारों ने आम जनता की किसी भी समस्या की तरफ ध्यान देना लगभग छोड़ ही दिया है। अब जनता को केवल लूट का सामान समझा जाने लगा है, अंधाधुंध कर लगाओ, रोजगार के नाम पर कोई झुनझुना थमा दो, चुनाव के समय भाषणों में भले ही जनता को खूब अच्छी-अच्छी झूठी जुमलेबाजियां करो और जनता को बरगलाओ, बस चुनाव जीतो, मौज करो और देश के पूंजीपतियों की सेवा करो, जनता जाये भाड़ में।  
    
महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट चरम पर है, लेकिन सरकारें और उनकी पार्टियां बेहयाई से इन चीजों की तरफ ध्यान ही नहीं दे रही हैं। यहां तक कि झूठ-फरेब के सहारे इन चीजों को सही ठहराने का प्रयास भी करती रही हैं। यहां पर एक उदाहरण से देखा जा सकता है। 
    
रुद्रपुर की कई कालोनियों में जब पानी भर गया था तो कुछ गांवों के लोग (हालांकि ये गांव अब नगरपालिका प्रशासन के अंदर आ चुके हैं) रुद्रपुर के प्रशासनिक अधिकारियों से मिलने गये और उनको अपनी समस्या बतायी तो उन अधिकारियों का यह टका सा जवाब था कि ये कालोनी तो अवैध है! आश्चर्य की बात है अरे भई, जब यह कालोनियां बसाई जा रही थीं तब भी तो प्रशासन काम कर रहा होगा, कोई प्रशासनिक अधिकारी यहां पर तैनात होगा जो इलाके के प्रशासन को देख रहा होगा, कहां गलत हो रहा है यह सब देख रहा होगा, तब क्यों इन अवैध कालोनियों को बसने दिया? क्यों लोगों की मेहनत की कमाई को इन प्रशासनिक अधिकारियों ने कालोनी बसाने वाले भूमाफिया, नेता और भ्रष्ट अधिकारियों की भेंट चढ़ने दिया? तब इनको बसाने वाले भू-माफिया, भ्रष्ट नेता और भ्रष्ट अधिकारियों को इन कालोनियों को बसाने से रोका क्यां नहीं गया? उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की गयी? क्यों उस समय उन भू-माफिया और उनके लगुवों-भगुवों को जेल की हवा नहीं खिलायी गयी? इन सब बातों को इन अधिकारियों ने नहीं सोचा। बस एक टका सा जवाब दे दिया कि ये कालोनियां तो अवैध हैं।  
    
लेकिन नहीं, इसका जवाब ये अधिकारी आपको नहीं देंगे। वे तो यह कह कर अपना पल्ला झाड़ लेंगे कि यह कालोनी तो अवैध है! बस! अब मरें वो लोग जो अपनी जीवनभर की कमाई इन आवासीय कालोनियां में लगा चुके हैं! आश्चर्य है इन प्रशासनिक अधिकारियों के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार पर। 
    
वे जवाब इसलिए भी नहीं दे सकते क्योंकि जब कालोनियों को बसाने की प्रक्रिया चल रही थी और भू-माफिया, नेता और भ्रष्ट अधिकारी अपने हिस्से की मलाई चाट रहे थे, पैसे के नशे में इतने मस्त हो गये थे कि इनकी सोचने की क्षमता ही खत्म हो गयी थी कि कल जो भी गरीब, मजदूर मेहनतकश व्यक्ति यहां अपना घर बनायेगा तो उस पर क्या-क्या मुसीबतें आयेंगी? वह किन-किन कठिनाइयों से गुजरेगा? नहीं, आज के जमाने में इतना जमीर कहां बचा है कि कल की भी सोची जाये। गरीब आदमी मरे तो मरे उनकी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है।  
    
इस तरह की तमाम घटनाएं सामने आती रहती हैं जो कि कालोनी बसाने वाले को जिम्मेदार ठहरा कर अनदेखी की जाती रही हैं। एक लम्बी फेहरिस्त है।
    
वैसे भी आज के दौर में एक छुटभैय्या नेता किसी भी अधिकारी को सरेआम डांट-फटकार कर चल देता है और चापलूस अधिकारी उसकी जी हजूरी करता रहता है। 
    
अब सवाल यह उठता है कि क्या जो इस तरह की कालोनियां अथवा अन्य निर्माण आदि हो रहे हैं वे सब इसी तरह होते रहेंगे? क्या जनता इसी तरह इन भ्रष्ट नेताओं, भूमाफियाओं और भ्रष्ट अधिकारियां के भ्रष्ट तंत्र में फंसती रहेगी? वैसे यह सवाल थोड़ा कठिन है। कठिन इस रूप में कि जनता आज एक होकर इनका विरोध शुरू कर दे तो यह समस्या कल को ठीक हो जायेगी, लेकिन आज अभी जनता इस रूप में विरोध करने को तैयार नहीं है जिस दिन तैयार हो जायेगी उसी दिन इन सबका हिसाब-किताब पूरा हो जायेगा। तब न तो बरसात का पानी इस कदर तबाही मचायेगा और न अन्य कोई आपदा जिसे आज दैवीय कह कर टाल दिया जाता है। 
    
तब सबसे पहले जनता इस पूंजी की तानाशाही को मटियामेट कर देगी। आमीन! आमीन!!                -एक पीड़ित पाठक   

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

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यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।