बरेली/ लगातार बढ़ती बेरोजगारी नौजवानों को निराशा व पस्तहिम्मती में ढकेल रही है। बरेली शहर में इसी तरह के बेरोजगार घर, मकान, जेवर गिरवी रखकर कर्ज लेकर आटो खरीदते हैं और ऑटो खरीदने के लिए एक निश्चित रकम भी अपने पास होनी चाहिए तभी आपको शेष रकम फाइनेंस कम्पनियों द्वारा भुगतान की जाती है और ये 20 से 30 प्रतिशत तक का ब्याज लगाती हैं। इस निश्चित रकम को लोग तमाम माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों से पति व पत्नी दोनों के नाम पर लोन लेकर हासिल करते हैं फिर फाइनेंस कम्पनियों से फाइनेंस कराकर बड़ी मात्रा में लोग (आटो चालक) कर्ज लेते हैं। दोनों ऋणों की किस्त मिलाकर 18 से 20 हजार रुपये/माह तक बैठती हैं। इसके बाद घर का खर्च चलाने के लिए 10 से 12 हजार रुपये की जरूरत होती है।
इस तरह कई आटो चालक कर्ज में फंसकर आत्महत्या कर ले रहे हैं। हर साल एक दो घटनायें शहर में जरूर घटित हो जाती हैं। अभी पिछले सप्ताह बरेली के इज्जतनगर आशा कालोनी में रहने वाले ऑटो चालक सूरज ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह कर्ज में डूब गया था और उसने शराब पीकर आत्महत्या कर ली। इसी तरह की हालत शहर में रहने वाले ऑटो चालक जावेद की बनी हुई है। उन्होंने माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों से कर्ज लिया था और अपने मोहल्ले के लोगों से लगभग 1 लाख 50 हजार रुपये का कर्ज लिया था। इसके बाद 2 लाख 50 हजार का फाइनेंसर से फाइनेंस कराया। कुल मिलाकर 4 लाख रुपये का कर्ज हो गया। जिसकी मासिक किस्त लगभग 20 से 22 हजार बनती थी। इसके बाद लगभग 9 हजार रुपया/माह घर का खर्च होता था इस हिसाब से 30 हजार रुपये प्रतिमाह ऑटो चलाकर कमाने होते थे।
लगभग आठ नौ माह तक जावेद प्रातः 6 बजे उठकर रात्रि 12 बजे या 1 बजे घर पहुंचता था और पुनः 6 बजे आटो लेकर निकल पड़ता था। कोई भी व्यक्ति 18 घंटों तक प्रतिदिन कैसे काम कर सकता है। यह अधिक दिन तक नहीं चल सकता है। और अंततः धीरे-धीरे ऑटो की किस्तें टूटने लगीं और इस तरह से लगभग किसी तरह डेढ़ साल यानी 18 माह बाद किस्तें टूटने पर फाइनेंसर ने ऑटो को अपने कब्जे में ले लिया। अब ऑटो चालक जावेद सड़क पर आ गया क्योंकि इसके पास ऑटो को छुड़ाने के लिए कोई रुपया शेष नहीं बचा था। उधार लिए हुए 1 लाख 50 हजार के अब 2 लाख पचास हजार रुपये हो गये और मोहल्ले वाले व मिलने वाले भी सुबह-शाम घर पर अपने-अपने रुपये मांगने पहुंचने लगे।
इस सबसे तंग आकर इसका अपना 50 वर्ग गज में बना घर जिस पर उसने टीन शेड डाल रखा है, वह इसके ऊपर कर्ज लेने को दौड़ भाग करने लगा। इसी बीच एक फाइनेंस कम्पनी से उसी घर पर 3 लाख रुपये का कर्ज ले लिया। जिसकी प्रतिमाह की किस्त 7 हजार रुपये है और 7 साल तक प्रति महीना देनी होगी।
अब आटो चालक ने जिस-जिस से पैसे लिए थे उनके 2.5 लाख रुपये निकाल दिये शेष बचे पचास हजार में से 10 हजार घर में खर्च हो गये। उधर फाइनेंसर के पास गये तो उसने कहा 1 लाख रुपये दो तभी आपको आटो देंगे, अब इनके पास शेष रुपये हैं नहीं। अब वह 2 फाइनेंसरों के बीच फंस गया है। एक की किश्त 13 हजार और दूसरे की किस्त 12 हजार रुपये महीना है। कहीं से कोई आस नहीं है।
आज देश के हालात बहुत ज्यादा खराब हैं क्योंकि अस्पताल व उद्योगों में उद्योगपति 12-12 घंटे काम कराने के बाद 6 से 8 हजार रुपये महीना देते हैं। शहर के उद्योगों में हर फैक्टरी गेट पर सुबह-सुबह 2 लाइनें लगती हैं। आधे लोगों को ही काम मिल पाता है। इसी तरह तमाम मजदूर अड्डों पर झुंड के झुंड मजदूर आते हैं जिनमें आधे लोगों को भी काम नहीं मिल पाता है। महीने में 10 से 15 दिन का काम ही मिल पाता है।
मजबूरीवश देश की बड़ी आबादी लगभग 50 प्रतिशत स्वरोजगार की ओर पलायन कर रही है। गांव छोड़कर शहर की तरफ भाग रही है और ठेले पर फल, सब्जी, चाट-समोसे, सड़क किनारे फड़ लगाकर सब्जी बेचना, जूस कार्नर, गुटका तम्बाकू का खोखा, फेरी लगाकर कपड़े बेचकर या ई रिक्शा, आटो चलाने को मजबूर है। चुनाव के समय खूब प्रचारित किया जाता है कि वोट अवश्य दें, आप देश के जिम्मेदार नागरिक हैं। लेकिन सभी पूंजीवादी पार्टियां चुनाव जीतने के बाद पूंजीपति वर्ग के लिए काम करती हैं व जनता की जवाबदेही से बच जाती हैं। देश में लगातार अरबपति बढ़ रहे हैं वहीं मजदूर-किसान-मेहनतकश जनता लगातार तबाह-बर्बाद हो रही है।
हमारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं। वह हर जगह हमारा शोषण कर रहे हैं। सरकारें लगातार मेहनत करने वालों पर भारी-भरकम टैक्स लगाकर उनकी जीवन स्थिति को बर्बाद कर रही हैं। वक्त की जरूरत है कि इस लुटेरी पूंजीपतियों की व्यवस्था के खिलाफ मजदूरों की व्यवस्था लाने के लिए एकजुट हो, शोषणकारी व्यवस्था के स्थान पर मेहनतकशों की व्यवस्था बनायें तभी हमारे जीवन में स्वर्ग आ सकता है। -बरेली संवाददाता
कर्जखोरी के जाल में फंसते आटो चालक
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।