मुख्य न्यायाधीश की गणेश पूजा में मोदी जी

राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश देश के सबसे प्रमुख संवैधानिक पद ही नहीं बल्कि इस बात के द्योतक हैं कि इन पदों पर बैठे लोगों का आचरण ऐसा होगा कि वह देशवासियों के लिए अनुकरणीय होगा। ऐसा सोचना व कल्पना करना शायद पहले तब भी संभव होता परन्तु अब तो इसकी कल्पना करना भी संभव नहीं है। 
    
धर्म किसी भी व्यक्ति का निजी मामला है और ठीक इसी तरह से जब वह अपने धार्मिक विश्वास के अनुसार पूजा-अर्चना कर रहा होगा तो वह उसका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करेगा। सार्वजनिक प्रदर्शन का अर्थ ही है कि वह व्यक्ति अपने परलोक की नहीं बल्कि इहलोक की चिंता कर रहा है। और चाहता है कि उसके धार्मिक प्रदर्शन को आधार बनाकर माना जाए कि वह बहुत ही धार्मिक, नेक आदमी है। और अगर कोई उसके बारे में, उसके द्वारा किये गये कार्यों अथवा उसके द्वारा लिये गये फैसलों पर सवाल उठाता है तो वह सीधे धर्म पर, उसके आराध्य देव पर सवाल उठा रहा है। इस तरह धार्मिक कर्मकाण्डों का प्रदर्शन एक दैवीय आवरण का काम करता है जिसकी आड़ में कुछ भी किया जा सकता है। उल्टा, ‘कुछ भी किये जाओ उसे धर्म के आवरण में छुपाये जाओ’।
    
आखिर मुख्य न्यायाधीश को क्या आवश्यकता है कि वह अपने धार्मिक विश्वास व कर्मकाण्ड का प्रदर्शन करें? और मोदी जी को क्या आवश्यकता है कि वह गर चन्द्रचूड के घर गणेश पूजा में शामिल हुए हैं तो वह अपनी तस्वीर को प्रचारित-प्रसारित करें। वे ऐसा कर के क्या हासिल करना चाहते हैं। क्या वे यह साबित करना चाहते हैं कि वे आपस में मौसेरे भाई हैं। उनके बीच अंतरविरोध ढूंढने वाले नहीं जानते कि वे आपस में किस रिश्ते में बंधे हैं। 

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ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

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