नन्हें-नन्हें तानाशाहों वाली परिघटना

अल सल्वाडोर लातिन अमेरिका का एक छोटा सा देश है। इसके राष्ट्रपति हैं नाइब बुकेली। इनकी खासियत यह है कि ये स्वयं को दुनिया का ‘सबसे अच्छा तानाशाह’ (कूलेस्ट डिक्टेटर) कहते हैं। कहा जा रहा है कि इनकी अपने देश में लोकप्रियता बहुत है। उनकी देखा-देखी लातिन अमेरिका के अन्य चुने हुए शासक भी तानाशाही का सपना देखते हैं। 
    
अपने देश में नाइब की लोकप्रियता का आधार अपराध के प्रति सख्ती को बताया जा रहा है। वे देश में बढ़ते अपराध को समाप्त करने के वादे के कारण ही राष्ट्रपति चुने गये थे। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उन्होंने जनवादी अधिकारों को धता बताते हुए अपराधियों के प्रति अत्यन्त सख्त कदम उठाये हैं। इन कदमों को किसी भी जनतांत्रिक समाज में मानव अधिकारों का उल्लंघन कहा जायेगा। पर बताया जा रहा है कि भयंकर अपराध से त्रस्त अल सल्वाडोर के लोग इस तरह के उल्लंघन को बर्दाश्त करने को तैयार हैं। वे अपने जनवादी अधिकारों को अपनी सुरक्षा की खातिर गंवाने को तैयार हैं। 
    
इस तरह से लोकप्रियता हासिल करने वाले नाइब अकेले नेता नहीं हैं। नाइब बस नायाब इस मायने में हैं कि उन्होंने खुलेआम स्वीकार किया है कि वे तानाशाह हैं- ‘कूलेस्ट डिक्टेटर’। पुतिन, अर्दोगान, मोदी इत्यादि इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। भारत में इस समय मोदी के तानाशाह होने की चर्चा आम है पर मोदी और उनके समर्थक इसे नकारते रहते हैं। 
    
पर इस नकार के बावजूद सच्चाई यही है कि पूंजीवादी जनतंत्रों में एक परिघटना पैदा हुई है जिसे ‘चुनावी एकतंत्र’, ‘सीमित जनतंत्र’, ‘प्रबंधित जनतंत्र’, ‘चुनी हुई तानाशाही’, ‘अर्द्ध फासीवाद’, ‘नरम फासीवाद’, ‘तानाशाही प्रवृत्तियां’, ‘लोकप्रियतावाद’ इत्यादि नाम से परिभाषित करने का प्रयास किया जा रहा है। इन सबकी आम विशेषता यही है कि कम या ज्यादा ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव के जरिये चुने गये नेता जनतांत्रिक उसूलों व नियमों-कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए शासन करते हैं और फिर-फिर निर्वाचित होते हैं। वे जनतंत्र के जरिये ही जनतंत्र की ऐसी-तैसी करते हैं तथा उन्हें इसके लिए जन समर्थन हासिल होता है। 
    
इस तरह के नेता (और उनकी पार्टियां) जन समर्थन हासिल करने के लिए कुछ चीजों का इस्तेमाल करते हैं। वे अपराध तथा आम तौर पर समाज में फैली अव्यवस्था को अपना निशाना बनाते हैं तथा इन्हें खत्म करने का वायदा करते हैं। वे समाज की सारी समस्याओं का कारण भ्रष्टाचार और अव्यवस्था को बताते हैं तथा इसके लिए पहले के शासकों को जिम्मेदार ठहराते हैं। वे स्वयं को अभी तक शासन करते आये सत्ता प्रतिष्ठान से बाहर का घोषित करते हैं तथा इस तरह स्वयं को आम जन के स्तर का ही पेश करते हैं। वे हर समस्या का समाधान सख्त से सख्त कानून बताते हैं जिसे वे पूरी ईमानदारी से सब पर लागू करेंगे। यदि इसका मतलब आम जन के जनवादी अधिकारों में कटौती होगा तो आम जन को अपनी तथा पूरे समाज की भलाई की खातिर इसे सहना होगा। यदि रोटी और सुरक्षा की कीमत जनवादी अधिकारों का हनन है तो इसे स्वीकार करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। यदि इस सबका मतलब जनतंत्र के चोले में किसी तरह की तानाशाही की स्थापना है तो फिर तानाशाही अच्छी चीज है। देश और समाज को भला तानाशाह चाहिए और आम जन को इसका शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसे ऐसा भला तानाशाह (कोई नाइब, कोई पुतिन, कोई अर्दोगान या कोई मोदी) मिल गया है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ये सारे नन्हें-नन्हें तानाशाह स्वयं को ईश्वर द्वारा नियुक्त मानते हैं। 
    
पूंजीवादी जनतंत्र के समर्थक इन नन्हें-नन्हें तानाशाहों के उदय पर रोते-बिसूरते हैं, वे इन्हें कोसते हैं तथा ‘शुद्ध जनतंत्र’ की पुनर्स्थापना के लिए भांति-भांति के नुस्खे सुझाते हैं। पर वे नन्हें-नन्हें तानाशाहों की परिघटना को समझने में असमर्थ होते हैं, इसीलिए उनका रोना-बिसूरना निरर्थक होता है। उनके नुस्खे किसी काम नहीं आते। 
    
नन्हें-नन्हें तानाशाहों के उदय की इस परिघटना को समझने के लिए उन मुद्दों को लें जिनका इस्तेमाल कर ये फलते-फूलते हैं। भ्रष्टाचार, अपराध और अव्यवस्था इनमें प्रमुख हैं। 
    
शोषण और अन्याय-अत्याचार वाली किसी भी समाज व्यवस्था में अपराध का होना अनिवार्य है। शोषक और शासक जहां अपनी लूट-पाट के लिए अपराध में लिप्त होते हैं वहीं शोषित और शासित जिन्दा रहने के लिए। अपराध का चाहे जो रूप हो, उसे इन्हीं दोनों श्रेणियों में रखा जा सकता है। अब यह स्वाभाविक ही है कि शोषक और शासक अपने अपराध के ढंकने-मूंदने के लिए भांति-भांति के जतन करते हैं और अक्सर कामयाब भी होते हैं। ज्यादातर तो उनके अपराध को अपराध माना ही नहीं जाता। जहां माना भी जाता है वहां अपराधी की जिम्मेदारी तय करना तथा सजा दिलाना लगभग असंभव साबित होता है। 
    
इसके मुकाबले शोषितों-शासितों की स्थिति एकदम भिन्न होती है। कई बार तो उनका जिन्दा रहने का संघर्ष भी अपराध घोषित कर दिया जाता है। वे आसानी से पकड़े जाते हैं और सजा पा जाते हैं। वे बिना सजा के भी सालों-साल जेल में सड़ सकते हैं। 
    
पूंजीवाद की खासियत है कि इसमें अपराध भी अत्यन्त व्यापक रूप ग्रहण कर लेता है। कई सारे अपराधों का ताना-बाना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैल जाता है। इनके मुख्य कर्ता-धर्ता तथा उससे फायदा उठाने वाले शासक वर्गों के लोग होते हैं। आम जन तो महज कारिन्दे होते हैं। इन अपराधों का तन्तुजाल सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों से लेकर अदने से पुलिस सिपाही तक फैला होता है। पूंजीपति वर्ग तथा न्यायतंत्र में भी इसका प्रवेश होता है। 
    
अपराधों के इस तंत्र को पूंजीपति वर्ग तथा उसकी सत्ता की मशीनरी किसी तरह काबू में रखती है। मजे की बात यह है कि काबू रखने वाले भी उसका हिस्सा होते हैं जिस पर काबू रखा जाना है। यानी मुख्य अपराधी ही अपराध तंत्र को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। यह एक ऐसा अंतर्विरोध है जो कभी-कभी विस्फोटक रूप ग्रहण कर लेता है। ऐसी स्थिति में अपराध तंत्र अनियंत्रित हो जाता है। 
    
इस तरह यह स्पष्ट है कि जब भी किसी समाज में अपराध तंत्र बेकाबू हो जाता है तो उसके लिए प्रमुखतः जिम्मेदार शासक और शोषक ही होते हैं। यह इसलिए नहीं कि अपराध पर नियंत्रण रखना उनकी जिम्मेदारी होती है जिसमें वे असफल साबित होते हैं बल्कि यह इसलिए कि वे ही सबसे बड़े अपराधी होते हैं। उनकी ही करतूतों से अपराध तंत्र बेकाबू हो चुका होता है। 
    
यही बात कुछ बदले हुए रूप में समाज में आम तौर पर फैलने वाली अव्यवस्था पर लागू होती है। किसी भी शोषण और अन्याय-अत्याचार वाले समाज की तरह पूंजीवाद में भी समाज को चलाने के लिए बनाये गये नियम-कानून शासकों-शोषकों के हित में होते हैं। ठीक इसी कारण वे शोषितों-शासितों के खिलाफ होते हैं। इस तरह समाज की ‘व्यवस्था’ शोषकों-शासकों के हित की व्यवस्था होती है। 
    
इस ‘व्यवस्था’ में अव्यवस्था दो वजहों से पैदा होती है। शोषक-शासक स्वयं अपनी लूटपाट के लिए अपनी व्यवस्था के नियम-कानून का उल्लंघन करते हैं और इस तरह अव्यवस्था पैदा करते हैं। वे लूटपाट के अपने हिस्से से संतुष्ट नहीं होते तथा उसे बढ़ाने के लिए वह सब करते हैं जो समाज की उनकी अपनी ही व्यवस्था में अव्यवस्था उत्पन्न करता है। इसके ठीक उलट शोषित-शासित अपने जिन्दा रहने के संघर्ष में कुछ ऐसा करते हैं जो ‘व्यवस्था’ को भंग करता है। यह तब ज्यादा होता है जब स्वयं शोषक-शासक ही अपनी ही व्यवस्था के नियमों-कानूनों को मानने से इंकार कर देते हैं। जब शोषकों-शासकों द्वारा लूटपाट तथा उसके खिलाफ शोषितों-शासितों का प्रतिरोध संघर्ष बहुत बढ़ जाता है तो यह अव्यवस्था भी बहुत बढ़ जाती है। 
    
अपराध (और भ्रष्टाचार इसी का हिस्सा है) तथा सामाजिक अव्यवस्था एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं। एक के बढ़ने का मतलब है, दूसरे का बढ़ना। और इन दोनों की जड़ में है अन्याय-अत्याचार वाली समाज व्यवस्था में लूटपाट। इससे यह सहज निष्कर्ष निकलता है कि यदि समाज में अपराध और अव्यवस्था को कम करना है तो शोषकों-शासकों द्वारा शोषितों-शासितों की लूटपाट को कम करना होगा। शोषण और अन्याय-अत्याचार पर लगाम लगानी होगी। पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में ‘कल्याणकारी राज्य’ की ओर बढ़ना होगा। यह कोई अचरज की बात नहीं है कि आज के पूंजीवादी समाजों में अपराध और सामाजिक अव्यवस्था उन्हीं देशों में सबसे कम है जहां अपेक्षाकृत ऊंचे स्तर का ‘कल्याणकारी राज्य’ है। इसका ठीक उल्टा भी सच है। उन समाजों में अपराध और सामाजिक अव्यवस्था सबसे ज्यादा है जिनमें ‘कल्याणकारी राज्य’ गायब है या बहुत लचर है। 
    
पिछले चार दशकों में ‘कल्याणकारी राज्य’ पर जो हमला हुआ है उसका परिणाम जहां एक ओर मजदूरों-मेहनतकशों की बढ़ती बदहाली तथा अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई में हुआ है वहीं दूसरी ओर अपराधों तथा सामाजिक अव्यवस्था में बढ़ोत्तरी में भी हुआ है। 
    
अब पूंजीपति वर्ग नहीं चाहता कि इन दोनों पहलुओं के बीच जो सीधा रिश्ता है वह उजागर हो। इसीलिए वह बढ़ते अपराधों तथा बढ़ती सामाजिक अव्यवस्था को महज कानून-व्यवस्था की समस्या के रूप में पेश करता है। सख्त से सख्त कानून तथा कानूनों का सख्ती से पालन सारी समस्याएं हल कर देगा। यह भी अकारण नहीं है कि पिछले चार दशकों में पूंजीपति वर्ग व्यवहार में भी क्रमशः इस ओर बढ़ता गया है। समाज पर पुलिसिया राज हावी होता गया है।
    
नन्हें-नन्हें तानाशाह इसी सब को एक नये स्तर पर पहुंचा रहे हैं। वे उसी पूंजीपति वर्ग तथा उसकी लूट पाट की व्यवस्था की सेवा में लगे हैं। वे बहुत कुशलतापूर्वक न केवल पूंजीपति वर्ग को उसकी सारी जिम्मेदारियों से बचा रहे हैं बल्कि उनकी लूटपाट को एक नये स्तर पर पहुंचाने का प्रबंन्ध भी कर रहे हैं।
    
जब नन्हें तानाशाह अपराध तथा सामाजिक अव्यवस्था पर हमला करते हैं तो उनका निशाना समाज के असली कर्ता-धर्ता यानी बड़े पूंजीपति नहीं होते। उलटे वे उन्हें ‘धन सम्पदा पैदा करने वाले’ कहकर उनका सम्मान करते हैं। उनका निशाना निचले कारिन्दे या आम जन होते हैं। वे उन नीतियों को निशाना नहीं बनाते जो मजदूर-मेहनतकश जनता की बदहाली को बढ़ा रही हैं बल्कि छोटे-मोटे भ्रष्टाचारियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। सालों-साल तक शासक वर्ग का हिस्सा होते हुए भी वे स्वयं को सत्ता प्रतिष्ठान के बाहर का व्यक्ति बताते हैं और सत्ता का पूरी तरह से उपभोग करते हुए भी संत बने फिरते हैं। बड़ा पूंजीपति वर्ग अपने हित में इन्हें और इनकी बातों को समाज में प्रचारित-स्थापित करता है तथा अवसर अनुकूल होने पर उन्हें सत्ता में बैठा भी देता है। 
    
यहां यह सहज सवाल खड़़ा हो जाता है कि ये नन्हें-नन्हें तानाशाह तथा इन्हें पालने-पोषने व आगे बढ़ाने वाला पूंजीपति वर्ग कामयाब क्यों हो जाता है? क्यों आम जन अपने हितों के खिलाफ इन्हें स्वीकार कर लेते हैं? क्यों वे चुनाव-दर-चुनाव इन्हें जिताते रहते हैं? 
    
इसका जवाब पूंजीवाद में आम जन की चेतना की हालत में है। आम जन का एक हिस्सा यानी मध्यम वर्ग अपनी जहनियत में ही ऐसा होता है कि वह इस तरह की बातों को ज्यादा आसानी से ग्रहण कर लेता है। सामाजिक संकट तीखा होने पर किसी मसीहा या तानाशाह की ओर ताकने की उसकी आम प्रवृत्ति होती है। चूंकि यह वर्ग समाज में काफी मुखर होता है, इसलिए इसके विचारों का समाज में व्यापक असर भी होता है। 
    
आम मजदूर-मेहनतकश की जहनियत ऐसी नहीं होती। वे तानाशाही को आसानी से स्वीकार नहीं करते। पर पूंजीपति वर्ग दूसरे तरीके से उनकी चेतना को कुंद करने और उन्हें अपने जाल में फंसाने का प्रयास करता है। इसमें वह पोंगापंथ तथा जाति-धर्म का इस्तेमाल करने से भी गुरेज नहीं करता। यह अकारण नहीं है कि सारे ही नन्हें तानाशाहों के काल में समाज ज्यादा पिछड़ेपन और जहालत की ओर गया है। समाज की सारी कुप्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं। सारे नन्हें तानाशाह सारे ही मामलों में समाज को पीछे की ओर ले जा रहे हैं। 
    
अब सवाल यह उठता है कि क्या ये नन्हें तानाशाह हमेशा नन्हें ही रहेंगे? क्या ये मुसोलिनी और हिटलर की तरह आतताई फासीवादी तानाशाह नहीं बनेंगे। सवाल का दूसरा रूप यह है कि क्या नन्हें-नन्हें तानाशाहों का उदय महज तानाशाही प्रवृत्ति का द्योतक है या फासीवाद का संकेत है?
    
इसमें कोई राय नहीं कि ये नन्हें तानाशाह महज तानाशाह प्रवृत्तियों वाले नेता नहीं हैं। इसके उलट वे फासीवादी प्रवृत्तियों वाले आंदोलन के नेता हैं, भले ही वह भारत के संघ परिवार की तरह सुसंगठित आंदोलन न हों। और इसी में उनका वह भीषण खतरा मौजूद है जिसके प्रति ‘चुनावी एकतंत्र’ की बात करने वाले सचेत नहीं हैं। भारत के विशिष्ट संदर्भ में यह फर्क इंदिरा गांधी और नरेन्द्र मोदी का फर्क है। इंदिरा गांधी महज तानाशाही प्रवृत्ति की नेता थीं जबकि नरेन्द्र मोदी एक फासीवादी आंदोलन के नेता हैं। यह यूं ही नहीं था कि आज से चौथाई सदी पहले ही देश के एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री ने मोदी को ‘कापीबुक फासिस्ट’ यानी प्रातिनिधिक फासीवादी कहा था। 
    
आज नन्हें-नन्हें तानाशाहों की परिघटना के इस फासीवादी पहलू पर ज्यादा गंभीरता से ध्यान  देने की जरूरत है तभी 1920 के दशक की गलतियों से बचा जा सकता है जब मुसोलिनी और हिटलर को नन्हें तानाशाह मान लिया गया था।   

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