एक पुरानी कहावत है, एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा, मसलन यदि करेले की बेल नीम के पेड़ पर चढ़ जाए तो नीम और भी कड़वा हो जाता है। मनोज कड़वा तो पहले से ही था मगर वर्मा जी के साथ ने मनोज को विषाक्त ही कर दिया। वर्मा जी को नई कंपनी ज्वाइन किए ज्यादा समय नहीं हुआ था मगर लोगों की कमजोरियों का अपने हित में कैसे इस्तमाल किया जाए इस बात को वर्मा जी बखूबी जानते थे। कंपनी के एक हेल्पर से लेकर मालिक तक दखल वर्मा जी का नैसर्गिक गुण बन गया था। जहरीले पेड़ ने अपने साथ बहुत सी बेलों को विषाक्त करना शुरू कर दिया ।
मनुष्य का स्वभाव है कि वह खुद को सही समझता है, और जब मानव के पास अधिकार आ जाते हैं तो अक्सर आदमी घमंडी हो जाता है। वर्मा जी अपने साथ नए सुपरवाइजर मनोज को भी लाए थे। घमंडी तो मनोज था ही लेकिन वर्मा जी के साथ ने उसे दूसरी संक्रामक बीमारियों से भी ग्रसित कर दिया। सुबह आने के बाद मजदूर कब काम पर लगे, कितने घंटे में कितना काम हो जाता है, रात में कौन कितने बजे सोता है, आपस में क्या बातें मजदूर करते हैं। अब मनोज के बहुत से कान थे। संक्रामक बीमारी बहुत से मजदूरों तक पहुंच गई थी।
इंसान जिस जगह पर होता है उससे संतुष्ट नहीं होता, यह असंतुष्टि किसी भी तरह की हो सकती है। यह असंतुष्टि मानव को निकृष्ट भी बना सकती है और महानता की तरफ भी ले जा सकती है। फैक्टरी में काम करने वाले मजदूरों की कम मजदूरी से मजदूरों की एक आम असंतुष्टि होती है मगर उन आम मजदूरों के बीच कुछ मजदूरों में आगे बढ़ने की, टीम लीडर या सुपरवाइजर बनने की चाहत होती है। ये खास असंतुष्ट मजदूर कौन हैं, वर्मा जी जानते हैं। मजदूरों के बीच से मजदूरों के दुश्मन बना दिए जाते हैं। असंतुष्टि विकृति को जन्म देती है।
आज से पर्ची बनाने का काम तुझे करना है, सोनू के कंधे पर हाथ रखते हुए मनोज ने कहा। तेरे लिए मालिक से बात कर ली है, तेरे पैसे भी बढ़वा दूंगा, बस मेरे हिसाब से काम कर। सोनू जो कि एक आम मजदूर ही था। न पढ़ा-लिखा न ही हुनरमंद मगर चापलूसी और जी हजूरी में उसे महारत हासिल थी। प्रबंधन का कैसे सगा बनना है ये बात सोनू अच्छे से जानता था। आम समाज के अवगुण ही फैक्टरी के गुण होते हैं। सोनू की यही आदतें उसे मनोज का विश्वासपात्र बनाती थीं।
मजदूर जब मजदूर होता है तो अपने और कंपनी के हितों के बीच का फर्क उसे मालूम होता है। कम तनख्वाह में हाड़ तोड़ मेहनत, कंपनी प्रबंधन के प्रति उसके भीतर एक नैसर्गिक नफरत होती है। सुपरवाइजर से लेकर ऊपर के अधिकारी जब मजदूर के प्रति निरंकुश होते हैं तो उसके भीतर का आत्मसम्मान उसकी मजबूरी से टकराकर तिलमिला उठता है। दैनंदिन की हिकारत, अपमान, कुचले हुए आत्मसम्मान के साथ वह कहता है इसका बस एक ही इलाज है मुट्ठी! और अपने सारे अनुभव के सार में कहता है, मगर एकता होगी नहीं।
भेड़ों के संचालन हेतु वफादार कुत्ते की ईजाद इतिहास के किस मोड़ पर हुई होगी कहा नहीं जा सकता। मगर कुत्ता बड़ी वफादारी के साथ भेड़ों का कुशल संचालन करता है। उसकी एक आवाज पर भेड़ें लाइन में चलने लगती हैं। वो हर भेड़ की हरकत पर नजर रखता है। भेड़ों का मालिक कभी इस वफादार जानवर को प्यार-दुलार, पुचकार देता है तो कभी ये जानवर मालिक की दुत्कार खाता है। भेड़ों से प्राप्त आमदनी से कुत्ते को भोजन मिलता है। वफादार कुत्ता घर की पालतू भेड़ों का मांस बड़े चाव से खा लेता है।
तमाम कुटिलताओं और धूर्तता के बावजूद कंपनी मालिक अधिकारी को तब तक ही पसंद करता है जब तक मुनाफा बढ़ाने में अधिकारी की भूमिका होती है, वर्मा जी की भी दाल जब तक गल सकती थी गली फिर वर्मा जी नई कंपनी ज्वाइन कर लिए और जाते-जाते मनोज को भी अपने साथ लेते गए।
फैक्टरी में आप किस परिश्रम से मेहनत करते हैं, बाकी मजदूरों के प्रति कितने मानवीय हैं, या वो तमाम मानवीय मूल्य जो सभ्य समाज की देन हैं इन सब का फैक्टरी के भीतर कोई मूल्य नहीं होता। यहां सिर्फ एक गुण अहमियत रखता है वह है वफादारी, सिर्फ और सिर्फ कंपनी प्रबंधन के प्रति, मालिक के प्रति वफादारी। जब ये वफादारी किसी असंतुष्ट मजदूर के भीतर पैदा होती है तो वह सारे मानवीय मूल्यों, इंसानी भावनाओं से दूर होता जाता है। अधिकारियों की चापलूसी, जी हजूरी, टुकुड़खोरी, मजदूरों की चुगुलखोरी उसके सहज गुण बन जाते हैं। और जब ऐसा मजदूर सुपरवाइजर बन जाता है तो किसी पेशेवर सुपरवाइजर से ज्यादा घृणित, ज्यादा घातक बन जाता है और कंपनी प्रबंधन के लिए ज्यादा फायदे का होता है।
सवा आठ हो गए तुम लोगों ने अभी कपड़े भी नहीं बदले। तुम लोगों की ड्यूटी नौ बजे से लगानी पड़ेगी। इस नई आवाज में पुराने सुपरवाइजर की आवाज से ज्यादा अकड़, ज्यादा हिकारत भरी थी। कंपनी प्रबंधन को अब एक ऐसी भेड़ मिल गई थी जिसके दांतों में भेड़ों का खून लगा था।
-एक पाठक, काशीपुर
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।