नीट परीक्षा पर छात्रों-युवाओं के बढ़ते आक्रोश ने इसे देशव्यापी बहस का मसला बना दिया है। लाखों छात्रों के भविष्य से हुए खिलवाड़ की आंच देश की संसद से लेकर सड़क तक हर ओर दिखाई दे रही है। संसद में शिक्षा मंत्री के शपथ ग्रहण के वक्त विपक्षी सांसद नीट-नीट के नारे लगा अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे थे। हर बार की तरह मोदी सरकार ने कुछ कार्यवाही व जांच की घोषणा कर अपना पल्ला झाड़ लिया है। राष्ट्रीय टेस्टिंग एजेंसी के मुखिया को हटा सीबीआई जांच की घोषणा कर सरकार मामले को ठंडा करने में प्रयासरत हैं। पर इस खानापूरी से किसी को भी बदलाव की आस नहीं है।
पिछले दशक भर में परीक्षा धांधली की बारम्बारता देख कर बदलाव की कोई उम्मीद की भी नहीं जानी चाहिए। हर धांधली के वक्त कुछ हल्ला-कार्यवाही-कड़े कानून का नाटक भी बदलाव पैदा नहीं कर पा रहा है। बदलाव क्यों नहीं हो पा रहा है इसकी कुछ वजहें हैं जिन्हें खत्म किये बगैर सुधार की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
मौजूदा व्यवस्था में जहां सरकारी नौकरियां, ऐसे कोर्स जिनसे सुनिश्चित जीवन की गारंटी हो इत्यादि के अवसर बड़े पैमाने पर शिक्षित युवा आबादी की तादाद के आगे काफी कम हैं। बीते 3-4 दशकों में शिक्षा के प्रति जागरूकता में काफी वृद्धि हुई है। जहां कभी महज 3-4 प्रतिशत आबादी उच्च शिक्षा तक पहुंच पाती थी अब यह 20 प्रतिशत तक पहुंच गयी है। यह सब सस्ती सरकारी शिक्षा के घटते अवसर, शिक्षा के बढ़ते निजीकरण के बावजूद हुआ है। शिक्षा समाज में सभ्य नागरिक बनने के बजाय बेहतर नौकरी हासिल कर जीवन सुरक्षित करने के जरिये के बतौर देखी जा रही है। प्रतियोगिता द्वारा चयन के जाल के चलते गरीबी-अभाव में रह रहे छात्र-युवा भी कड़ी मेहनत कर जीवन में सफल होने की आस पालते रहे हैं। और उनमें से कुछेक सफल भी हो जाते रहे हैं। शिक्षा वर्ग के बतौर ऊपर उठने का जरिया बनी हुई है।
छात्रों-युवाओं में शिक्षा के प्रति बढ़़ती ललक ने एक विस्तारित होता शिक्षा बाजार पैदा किया। शिक्षा की खरीद बेच कर मुनाफा पीटने वाले संस्थान पैदा होते चले गये। 90 के दशक में उदारीकरण निजीकरण की नीतियों के साथ जहां सरकार ने सार्वजनिक शिक्षा-स्वास्थ्य से पल्ला झाड़ना शुरू किया वहीं इसकी जगह लेने के लिए निजी उद्यमी आगे आते चले गये। ये निजी उद्यमी प्राइमरी-उच्च-तकनीकी शिक्षा सभी में पैर पसारते चले गये। यहां तक कि विशाल पूंजी वाले ढेरों शिक्षा माफिया-उद्यमी भी पैदा हो गये।
ऐसा नहीं है कि भारत में निजी पूंजी की शिक्षा के क्षेत्र में घुसपैठ पर आजादी के बाद कभी पूर्ण रोक लगी थी। यह छूट हमेशा से ही थी। पर उदारीकरण-वैश्वीकरण के बीते 3-4 दशकों में निजी पूंजी को तरह-तरह की सहूलियत-छूटें देकर शिक्षा के बाजार को उनके दोहन के लिए पूरी तरह खुला छोड़ दिया गया।
जहां बीते 3-4 दशकों में शिक्षा का क्षेत्र बढ़ता गया वहीं दूसरी ओर शिक्षित युवाओं के लिए अवसर घटते गये। सरकारी नौकरियां लगातार कम से कमतर होती गयीं। निजी क्षेत्र में नौकरियों का बहुलांश असुरक्षित रोजगार वाला बन गया। निजी क्षेत्र में कुछ इंजीनियर-मैनेजर सरीखी नई नौकरियां भी पैदा हुईं पर शिक्षित आबादी की तुलना में इनकी तादाद बेहद कम थी। परिणाम यह हुआ कि शिक्षित बेरोजगारी तेजी से बढ़ती चली गयी। एक ओर अधिकाधिक छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे थे वहीं दूसरी ओर उनके जीवन में सुरक्षित रोजगार की संभावना घटती जा रही थी। उनका तनाव बढ़ता जा रहा था।
इस तनाव ने पूंजीवाद में शिक्षा से जुड़े एक अन्य धंधे के बाजार को गरम कर दिया। यह था कोचिंग बाजार। कोचिंगें पहले से थीं पर बीते 3-4 दशकों में इसने विशालकाय रूप धारण कर लिया। शिक्षा व्यवस्था के समानान्तर इसका पूरा विशालकाय ढांचा खड़ा हो गया। बढ़ती प्रतियोगिता ने इसके उत्थान में मदद की। यह कोचिंग बाजार तरह-तरह की नौकरी से लेकर इंजी-मेडिकल-सेना भर्ती सबकी तैयारी कराने लगा। इन कोचिंगों में परस्पर प्रतियोगिता भी होने लगी। किस कोचिंग के कितने छात्र सफल होते हैं यह उस कोचिंग के भविष्य के लिए एक जरूरी प्रश्न बन गया। भारी भरकम फीसें वसूल तैयारी कराने वाले ये संस्थान, सफलता के लिए तैयारी की पुस्तकें, अध्यापक सब छात्रों की लूट के भागीदार बनते गये। इस कोचिंग व्यवसाय का कुल आय-व्यय इतना भारी भरकम होता गया कि परीक्षा प्रणाली भी इसकी चपेट में आने से बच नहीं सकी।
ऐसा नहीं है कि परीक्षाओं में धांधली पहले नहीं होती थी। पहले भी कुछ छात्रों पर महत्वपूर्ण प्रश्नों का पहुंचना, कुछ तैयारी की पुस्तकों से पूरा पेपर आना, कुछ सिफारिश-पहुंच से कुछेक प्रत्याशियों का धांधली से चयन होना आदि होता रहता था। पर यह सब कुछ बेहद सीमित स्तर पर होता था। यह किसी संगठित धंधे के बतौर आज के उदारीकरण-निजीकरण के दौर में ही विकसित हो सकता था।
यहां यह चिन्हित किया जाना चाहिए कि पूंजीवादी व्यवस्था के दूरगामी हित, खुद प्रतियोगिता पर लोगों के विश्वास के लिए जरूरी था कि परीक्षायें ज्यादातर छात्रों के बीच निष्पक्ष ढंग से हों। यानी इंजीनियर-डॉक्टर से लेकर आईएएस-पीसीएस के प्रत्याशी भ्रष्टाचार के बजाय योग्यता से चयनित हों, यह व्यवस्था के हित में था। अन्यथा सारी राज मशीनरी के संचालक, इलाज करने वाले ‘अयोग्य’ हो जायेंगे तो व्यवस्था का चलना ही मुश्किल हो जायेगा। जाहिर है योग्यता-अयोग्यता का मापदंड यहां पूजीवादी ही था। जिस हद तक पूंजीवादी व्यवस्था को ज्ञान-विज्ञान-तकनीक-अनुसंधान आदि की जरूरत थी उसके लिए भी ‘योग्य’ लोगों का इन जगहों पर पहुंचना जरूरी था।
ऐसे में पूंजीवादी व्यवस्था के दूरगामी हितों और कोचिंगों-पेपरलीक का धंधा करने वालों के हितों में एक अंतरविरोध पैदा होता गया। व्यवस्था के हित परीक्षाओं की शुचिता की ओर धकेलते थे पर धंधेबाजों के हित परीक्षायें अपने नियंत्रण में लेने को प्रेरित थे।
यहां यह ध्यान रखना होगा कि उदारीकरण के दौर में परीक्षा-पेपर लीक कराना, परीक्षा में पास कराना, साल्वर बैठाना आदि किसी आपराधिक गिरोह की तरह संगठित धंधा बन गया जो कोचिंग माफियाओं से गहराई से जुड़़ा हुआ था। ढेरों बेरोजगार योग्य युवा साल्वर बन इस गिरोह के कर्मचारी बन गये। यह गिरोह परीक्षा कराने वाली सरकारी एजेंसी के क्लर्क-अफसरों को भी खुद के साथ जोड़ने में अधिकाधिक सफल होता गया। अगर एक पेपर चोरी करने पर 50-60 हजार कमाने वाले क्लर्क को करोड़ों रुपये मिल जायें तो समझा जा सकता है कि वह क्यों यह खतरा मोल लेने को तैयार हो जाता होगा।
पूंजीवादी व्यवस्था में हर क्षेत्र चाहे कानूनी हो या गैर कानूनी हो अगर उससे मुनाफा कमाने की संभावना हो एक धंधे के बतौर विकसित हो जाता है। पेपर लीक कराना भी एक धंधे के बतौर विकसित हो चुका है।
यहीं से संघ-भाजपा के शासन-सत्ता में आने और इस गिरोह के फलने-फूलने के जुड़ाव को समझने की ओर बढ़ा जा सकता है। बीते ढाई दशकों में कई राज्यों और बीते 10 वर्षों से केन्द्र में भाजपा काबिज है। यही काल पेपर लीक के मामलों के एक पौधे से वटवृक्ष बनने का है। क्या इनका आपस में कोई सम्बन्ध है या यह महज संयोगवश है। निश्चित तौर पर इन दोनों का गहरा सम्बन्ध है।
संघ-भाजपा उदारीकरण-वैश्वीकरण की लम्बे वक्त से समर्थक रही है। इन्होंने अपने शासन में इन नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाया है। इन्हें बीते 10 वर्षों से एकाधिकारी बड़ी पूंजी का पूर्ण समर्थन हासिल है। ऐसे में बीते 10 वर्षों में देश को अधिकाधिक बड़ी पूंजी की नग्न लूट की ओर धकेलने के साथ-साथ संघ-भाजपा अपने फासीवादी हिन्दू राष्ट्र की परियोजना की ओर भी तेजी से बढ़े हैं।
फासीवादी हिन्दू राष्ट्र की परियोजना परवान चढ़़ाने के लिए संघ-भाजपा के लिए जरूरी था कि विभिन्न स्तर पर शिक्षण संस्थाओं से लेकर प्रशासनिक मशीनरी-अनुसंधान केन्द्रों सभी जगहों पर संघ-भाजपा की सोच के व्यक्ति काबिज हों। बीते 10 वर्षों में उन सारी जगहों पर जहां सरकार के पास सीधे नियुक्ति के अधिकार हैं ऐसे लोग बैठा दिये गये जो संघी सोच से लैस हों। राज्यपालों, केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपति, नये भर्ती होते शिक्षक सभी मामलों में इस सबका ध्यान दिया जाने लगा, संघी सोच का होना सफलता की नई योग्यता बनती गयी। यहां तक कि नेशनल टेस्टिंग एजेंसी के शीर्ष पर भी चेयरमैन के बतौर बैठाये गये डा. प्रदीप जोशी इसी योग्यता के चलते यहां पहुंचे।
जबलपुर के एक कालेज प्रोफेसर से उठाकर उन्हें सीधे म.प्र. पी एस सी का अध्यक्ष बना दिया गया। एक संघ प्रचारक की सिफारिश, से वे इस पदवी तक पहुंचे। सिफारिश पत्र में इनके एबीवीपी का अध्यक्ष होने व वाजपेयी व मुरली मनोहर जोशी से सम्पर्क में होने के गुणों का बखान किया गया है। बाद में यही योग्यता जोशी जी को राष्ट्रीय टेस्टिंग एजेंसी के चेयरमैन पद पर पहुंचा ले गयी। मौजूदा नीट घोटाले में इनके द्वारा नियुक्त एक उप परीक्षा अधीक्षक को गुजरात से पकड़ा गया है।
प्रदीप जोशी तो एक उदाहरण हैं ऐसे अनगिनत पदों पर संघी कारकून काबिज हो चुके हैं। जहां एक ओर ये कारकून संघ की चाहत पूरी करते हुए सरकारी तंत्र-सरकारी नौकरियों में संघी सोच के लोगों की भर्ती कर रहे हैं वहीं साथ ही साथ वे अपनी पूंजीवादी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सारी लाज-शर्म त्याग दे रहे हैं। पूंजीवादी मशीनरी के शीर्ष पदों पर होने के बावजूद वे व्यवस्था के दूरगामी हितों की जगह अपने तात्कालिक हितों को आगे बढ़ा रहे हैं। वे परीक्षा धांधली के गिरोह के साथ मिलकर संघी तत्वों की भर्ती व कमाई दोनों को अंजाम दे रहे हैं।
वैसे भी संघ-भाजपा को कुछ कोर वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्रों को छोड़ बाकी जगह विज्ञान-तर्क की जगह कूपमंडूकता का बोलबाला चाहिए। उसे सरकारी मशीनरी संघी कूपमण्डूकता से ओत प्रोत चाहिए। न केवल सरकारी मशीनरी बल्कि समूची जनता भी उसे कूपमण्डूक बनानी है। ऐसे में तार्किक-वैज्ञानिक सोच-चिंतन उसके लिए एक खतरे सरीखी है।
संघ व पेपरलीक गिरोह की सांठ गांठ की ताकत का अहसास म.प्र. में व्यापम् घोटाले से लगा। 50 से अधिक परीक्षा में हर परीक्षा धांधली की शिकार बनी। साल्वर-शिक्षक-अफसर-मंत्री कोई भी बेदाग नहीं दिखा। यहां तक कि तार मौजूदा केन्द्रीय कृषि मंत्री व तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ संघ के बड़े प्रचारकों तक फैले थे। इसकी जांच का प्रहसन भी दिलचस्प है। अब तक 50 से अधिक लोग जो जांच प्रक्रिया में छोटे आरोपी थे रहस्यमय तरीके से मर चुके हैं। और सीबीआई अपनी जांच में कुछ भी साबित नहीं कर पाई। सारे नामी संदिग्ध आज भी खुलेआम घूम रहे हैं। जब जांचकर्ता सीबीआई खुद संघी सरकार के इशारों पर नाच रही हो तो भिन्न नतीजे की उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
इंडियन एक्सप्रेस ने 15 राज्यों के बीते 5 वर्षों की परीक्षा धांधली लीक के आंकड़ों को प्रस्तुत किया है। कुल 41 पेपर लीक के शिकार 1.4 करोड़ युवा बने हैं। (देखें चित्र)
स्पष्ट है कि संघ-भाजपा के शासन और पेपर लीक के बढ़ते प्रकरण आपस में संबद्ध हैं। आधुनिक नये तकनीकी विकास ने पेपर लीक-धांधली को भी नई तकनीक से लैस किया है। आज ज्यादातर पेपर या तो टेलीग्राम पर भेजे जा रहे हैं या डार्कवेब पर लीक हो रहे हैं। जैसा कि नीट के बाद यूजीसी नेट की रद्द हुयी परीक्षा के बारे में कहा गया कि इसका पेपर डार्क वेब पर डल चुका था। इसके साथ ही परीक्षाओं के आनलाइन होते जाने ने कम्प्यूटर हैकरों की पेपर लीक कराने में भूमिका बढ़ा दी है। बीबीसी के अनुसार 2022 में दिल्ली पुलिस ने एक ऐसे आनलाइन धोखाधड़ी गिरोह को पकड़ा था जो उम्मीदवारों को शीर्ष परीक्षाओं में नकल करने में मदद करता था। उन्होंने एक रूसी हैकर्स को एक ऐसा साफ्टवेयर विकसित करने का ठेका दिया था जिसकी मदद से वे परीक्षा केन्द्रों में कम्प्यूटर को दूर से ही हैक कर सकें।
जाहिर है कि आज की वैश्वीकृत दुनिया में पेपर धांधली का धंधा भी वैश्विक होता जा रहा है। बाकी अन्य अपराधों की तरह यहां भी अपराधी अपने तार दुनिया भर में फैलाये हैं। भारत की परीक्षा के पेपर अमेरिका से लीक हो सकते हैं और भारत में किसी परीक्षा में नकल रूसी हैकर रूस में बैठकर करा सकता है। जिस हद तक यह धंधा वैश्विक स्वरूप ग्रहण कर रहा है उस हद तक इसे नियंत्रित करना सरकार की पहुंच से भी बाहर होता जा रहा है।
जाहिर है आज परीक्षा धांधली के शिकार छात्रों की पीड़ा की किसी को चिंता नहीं है। परीक्षा धांधली के धंधे के फैलाव का बीते 3-4 दशक की उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीति व मौजूदा संघी शासन दोनों से गहरा संबंध है। इन दोनों को निशाने पर लिये बगैर इस धंधे का बाल भी बांका नहीं होने वाला है। हां, छात्रों को इस धांधली और प्रतियोगिता के कहर से पूर्ण मुक्ति या फिर कहें वैज्ञानिक शिक्षा व सम्मानजनक रोजगार इस पूंजीवादी व्यवस्था में नहीं मिल सकती है। बेहतर जीवन के लिए छात्रों-युवाओं को भगतसिंह के दिखाये रास्ते पर चलना होगा। पूंजीवादी व्यवस्था को निशाने पर लेना होगा।
पेपर लीक और संघ-भाजपा
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अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को
7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक
अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।