फासीवादी शासकों द्वारा पाठ्यपुस्तकों में बदलाव

पिछले कुछ सालों में एनसीईआरटी पाठ्य पुस्तकों में बड़े बदलाव किये गये हैं। मौजूदा बदलाव पाठयक्रम में छोटी-छोटी कैंची चला कर किये गये हैं। गुजरात दंगों का जिक्र जो अब सिर्फ किसी अन्य प्रसंग के बतौर था, को हटा दिया गया है। ऐसे ही अयोध्या बाबरी मस्जिद के बारे में जिक्र किसी सवाल के रूप में था, उसे भी हटा दिया गया। साथ ही आदिवासी, जनजाति समूहों की गरीबी, अशक्तता के बारे में भी प्रसंग इस बार हटा दिये गये हैं।
    
पाठ्यक्रमों पर यह छोटी कैंची इस बार इसलिए चली क्योंकि इससे पहले ही किताबों से बहुत कुछ हटा दिया गया था। मुगलकाल को बहुत सीमित कर दिया गया था। गांधी, नेहरू, लोकतंत्र सब कुछ हटा दिया गया था। साथ ही विरोध, आंदोलनों को भी पहले ही पाठ्यपुस्तकों से हटाया जा चुका था। 
भाजपा-आरएसएस को अप्रिय लगने वाली या उनकी राजनीति, उनकी हिन्दू राष्ट्र की राह में रोड़ा लगाने वाली हर बात को किताबों से हटा दिया गया था। इस बार के बदलावों में जो बात गलती से भी रह गयी थी उसे भी साफ कर दिया गया है।
    
कक्षा 12 की समाजशास्त्र की पुस्तक में आदिवासियों के बारे में उनकी गरीबी और शक्तिहीनता के बारे में कहा गया था जिसे हटा दिया गया। साथ ही किताब में कहा गया था कि बड़ी बांध परियोजनाएं आदिवासियों के विस्थापन का कारण हैं, इस बात को भी पाठ्यपुस्तक से हटा दिया गया।
    
हालिया घटनाक्रम में अयोध्या विध्वंस का संदर्भ हटा दिया गया। एक सवाल था कि ‘राजनीतिक गोलबंदी के लिए राम जन्मभूमि आंदोलन और अयोध्या विध्वंस (बाबरी मस्जिद विध्वंस) की लीगेसी क्या है? इसे बदलकर ‘राम जन्मभूमि आंदोलन की विरासत क्या है?’ कर दिया गया। इसी तरह पाठ में ‘बीजेपी का उदय हुआ, हिन्दुत्व की राजनीति तेज हुई’ जैसी बातें हटा दी गयी हैं।
    
मानवाधिकार को समझाते हुए पुस्तक में लिखा गया था कि ‘कई क्षेत्रों में मानवाधिकार उल्लंघन के कई मामले सामने आए हैं, उदाहरण के लिए गुजरात दंगे को पब्लिक नोटिस में लाया गया।’ इसमें से गुजरात का नाम हटा दिया गया।
    
आरएसएस की पसंदगी, ना पसंदगी में ढल रही पाठयपुस्तकें, भगवा रंग में रंगी जा रही पुस्तकों का परिणाम बेहद खतरनाक है। इसके माध्यम से आरएसएस बच्चों को अपनी सोच के रंग में रंग देना चाहता है। जहां समानता, बराबरी, वैज्ञानिकता, तर्कपरकता की कोई जगह नहीं है। स्कूली शिक्षा को ऐसे ढाला जा रहा है कि वह अल्पसंख्यकों से नफरत पैदा करे, दलितों-आदिवासियों को जबरन हिन्दू माना जाए। यह शिक्षा सामाजिक बदलावों में सामाजिक आंदोलन की भूमिका को नकारते हुए एक तानाशाही पूर्ण समाज को आधार प्रदान करती है।
    
यूं तो हमेशा ही शिक्षा व्यवस्था शासकों का एक हथियार रही है जिससे वह विद्यार्थियों को पूंजीवादी दायरे में ही सोचने-समझने की शिक्षा देती है। मेहनत से नफरत और पूंजी से प्यार की शिक्षा देती है। पूंजीवादी व्यवस्था में शिक्षा को अपने लिए अपनी जरूरत के हिसाब से शासक वर्ग ढालता रहा है और मजदूरों-तकनीशियनों की जरूरत व प्रशिक्षण के एक तंत्र के रूप में शिक्षा को बदलता रहा है। हमारी शिक्षा में वैज्ञानिकता, तर्कपरकता, इतिहासबोध आदि की हमेशा से कमी रही है। यह पूंजीपतियों की जरूरत के हिसाब से संचालित होती रही है।
    
भाजपा काल में पाठ्यपुस्तकों में बदलाव उसकी फासीवादी परियोजना का एक हिस्सा हैं। फासीवादी पाठ्यक्रम को अपने हिसाब से ढालकर अपने हितों को आगे बढ़ाते हैं।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।