सुलगते लद्दाख पर मोदी मौन

प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह मणिपुर के मुद्दे पर मौन व अकर्मण्यता का परिचय दिया ठीक यही सब अब लद्दाख के मुद्दे पर भी हो रहा है। लद्दाख की जनता सड़कों पर है और प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने लद्दाख की हाड़ कंपाने देने वाली सर्दी में अपना आमरण अनशन 21 दिन बाद समाप्त कर दिया। उनके समर्थन में कारगिल में भी कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस (के डी ए) ने पिछले दिनों तीन दिवसीय सामूहिक भूख हड़ताल आयोजित की। 
    
असल में लद्दाख में सामाजिक असंतोष ने ठीक उसी दिन जन्म ले लिया था जिस दिन जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को खत्म कर उसे दो हिस्सों में विभाजित कर दिया गया। जम्मू-कश्मीर व लद्दाख का विभाजन मनमाना था और दोनों ही क्षेत्रों को केन्द्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया था। लद्दाख के साथ जितना अधिक अन्याय किया जा सकता था उतना किया गया। पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य में उन्हें ज्यादा अधिकार हासिल थे। वे विधानसभा के लिए अपने प्रतिनिधि भेजते थे और इस तरह से वे अपनी मांगों के लिए एक मंच पाते थे। नौकरशाही हावी थी परन्तु आज की तरह बेलगाम नहीं थी। लद्दाख एक ऐसा केन्द्र शासित प्रदेश है जिसके पास अपनी कोई विधानसभा नहीं और भारत के उच्च सदन राज्य सभा में उसका कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त उप राज्यपाल लद्दाख को अपनी निजी जागीर की तरह इस्तेमाल करने लगते हैं। उसके राज्य का सर्वेसर्वा होने के नाते उस पर लद्दाख की जनता का कोई भी नियंत्रण नहीं है। कुछ-कुछ वैसे ही हालात हैं जैसे ब्रिटिश काल में वायसराय के साथ भारत की जनता के संबंध थे। लद्दाख मोदी के अमृतकाल में औपनिवेशिक जमाने में पहुंच गया है। 
    
लद्दाख की जनता की कुछ एकदम स्पष्ट सी मांगें हैं। सबसे पहली मांग है कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाये। उसकी अपनी चुनी हुयी विधानसभा हो। इसके साथ लोकसभा में उसके दो सांसद (एक लेह से और एक कारगिल) तथा राज्य सभा में एक सांसद हो। 
    
पूर्ण राज्य की मांग के साथ उनकी मांग है कि लद्दाख को भारत के संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किया जाए ताकि लद्दाख की विशिष्ट स्थिति (97 फीसदी हिस्सा आदिवासी) को बनाये रखा जा सके। वहां की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति व पर्यावरण तंत्र की भी रक्षा की जाये। गौरतलब है कि लद्दाख की भू-संपदा, प्राकृतिक संसाधनों व बहुमूल्य खनिजों पर देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाहें हैं। लद्दाखवासियों को डर है कि कहीं लद्दाख चीन के तिब्बत की तरह न हो जाये जहां चीनी कम्पनियां तिब्बत का दोहन कर रही हैं और तिब्बतवासी अपनी ही जमीन पर अल्पसंख्यक बन हाशिये में धकेल दिये गये हैं। लद्दाख के लोग अपनी विशिष्ट संस्कृति, रहन-सहन, जीवन, जमीन को लेकर बुरी तरह से आशंकित हैं। लद्दाख में भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह बेरोजगारी बहुत ज्यादा है। वे चाहते हैं कि स्थानीय पैमाने पर उन्हें रोजगार मिलें और सरकारी नौकरियां उनके लिए आरक्षित हों। 
    
लद्दाख की पूर्ण राज्य की मांग एक जनवादी मांग है। सत्ता में बैठे हिन्दू फासीवादी जिस तरह पूरे देश में जनवाद का गला घोंट रहे हैं ठीक वही वे लद्दाख में भी कर रहे हैं।  

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।