यह राजनैतिक अफवाह तेजी से फैल या फैलायी जा रही है कि संघ और भाजपा के सम्बन्ध मोदी काल में दिन-ब-दिन खराब होते गये हैं। कि मोदी ने पहले गुजरात में संघ को किनारे लगाया और अब देश के पैमाने पर संघ को बौना कर दिया गया है। कि मोदी ने जैसे भाजपा को अपना अनुचर बना दिया ठीक वैसे ही संघ भी मोदी की छवि में कहीं गुम हो गया है। कि इस बार के आम चुनाव में संघ भाजपा का समर्थन दिलोजान से नहीं कर रहा है। कि संघ के कार्यकर्ता भाजपा प्रचार में दिन-रात एक नहीं कर रहे हैं। कि संघ के सामने इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि वह मोदी के नेतृत्व को स्वीकार करे। कि एक व्यक्ति संघ के संगठन, उसके भगवा झण्डे से ज्यादा बड़ा हो गया है।
ऐसी ही कई-कई बातें संघ और भाजपा के सम्बन्धों के बारे में अखबारों की खबरों से लेकर राजनैतिक विश्लेषणों के बयानों में हवा में तैर रही है।
अफवाहों का बाजार तब गर्म हो गया जब भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने एक बयान दिया कि ‘कल हम (भाजपा वाले) अक्षम थे तब हमें संघ की जरूरत थी और अब हम बड़े हो गये हैं और हम सक्षम हैं’ और इसलिए अब संघ की जरूरत उस रूप में नहीं है। और कुछ ऐसी बातें नड्डा ने बोलीं कि जो आम तौर पर संघ-भाजपा के लोग बोलते हैं। कि संघ ‘सांस्कृतिक-सामाजिक’ संगठन है। कि संघ वैचारिक मोर्चा और भाजपा राजनैतिक मोर्चा है। अफवाह को और पांव तब लग गये जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आजादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका की सराहना की।
यह बात ठीक है कि पिछले वर्षों में मोदी का राजनैतिक उत्थान तीव्र गति से हुआ और उन्हें एक राजनैतिक ब्राण्ड के रूप में खुद उनके द्वारा, उनके चहेते एकाधिकारी घरानों और उसके मीडिया द्वारा और एक समय खुद संघ द्वारा पेश किया गया। मोदी का हालिया चुनाव प्रचार स्वयं मोदी को समर्पित रहा है। मोदी ही सबसे ज्यादा मोदी-मोदी करते रहे हैं। मोदी को स्थापित करने में कुछ कसर रह गयी थी तो मोदी के अंध भक्तों ने उन्हें ‘विष्णु का अवतार’.. आदि, आदि कहना शुरू कर दिया। हद तो तब हो गयी जब मोदी ने अपने को ‘काशी का अविनाशी’ यानी भगवान शिव कहना शुरू कर दिया। मोदी का स्वयं ही ‘‘मोदी! मोदी!!’’ करना अश्लीलता की हद तक जा चुका है।
‘‘मोदी! मोदी!!’ की गूंज में संघ और भाजपा के संगठन और नेता कहीं गुम हो गये हैं। संघ को मोदी ने उस जगह पहुंचा दिया है जहां उसकी स्थिति अजीबो गरीब है। संघ के एजेण्डे को मोदी लागू करते गये हैं और संघ के एजेण्डे को क्रमशः लागू कर वे संघ की भूमिका व जरूरत, उसके नैतिक प्रभाव व रहस्यमयी आभा को भी कमजोर करते गये हैं। कहां तो मोहन भागवत घोषित-अघोषित ढंग से भारत के सर्वोच्च नेता बनना चाहते थे। वे अपनी भूमिका ईरान के सर्वोच्च नेता खुमैनी की तरह या आज के खामनेई की तरह देखते थे। ईरान में शिया महागुरू ही तय करते हैं कौन राष्ट्रपति का चुनाव लड़ेगा और कौन नहीं। भारत में मोहन भागवत मोदी सरकार से सवाल-जवाब तक करने की स्थिति में नहीं हैं। मोहन भागवत कठपुतली नचाते-नचाते खुद कठपुतली बन गये हैं।
मोदी ने अपने कार्यकाल में शुरू-शुरू में मोहन भागवत को कुछ तवोज्जो दी थी। दूरदर्शन से मोहन भागवत के विजयादशमी के भाषण को लाइव प्रसारित किया गया था। परन्तु शीघ्र ही मोदी को समझ में आ गया कि एक मयान में दो तलवार नहीं रह सकती हैं। और मोदी ने अपनी मयान में अपनी ही तलवार को रखा और दूसरी तलवार को अटारी पर रख दिया। आज संघ अटारी पर रखी तलवार है।
और मोदी ढंग से जानते हैं जिस दिन उनका जादू उतरेगा उस दिन संघ मोदी के साथ वही करेगा जो मोदी ने उनके साथ किया। और फिर संघ के पास मोदी जैसों को पैदा करने की मशीन है। और मोदी अभी उस जगह नहीं पहुंच पाये हैं जहां वे संघ की मोदी जैसों को पैदा करने वाली मशीन को तोड़ सकें। और संघ के पास अभी एक आकार ग्रहण करता नया मोदी है जो पूरे समय भगवा पहनता है और एक मठ का मठाधीश ही नहीं है, बल्कि सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य का मुख्यमंत्री भी है। ‘‘उभरता मोदी’’, स्थापित मोदी के साथ क्या वही नहीं करेगा जो उसने अपने को स्थापित करने के दौरान अपने आकाओं या अभिभावकों के साथ किया था। और क्या ‘‘उभरता मोदी’’ अपनी बारी में संघ के साथ वही नहीं करेगा जो स्थापित मोदी ने किया है।
संघ की समस्या का एक ही समाधान है। वह सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन का झूठा खेल खेलना बंद करे। स्वयं को या तो राजनैतिक पार्टी घोषित कर सत्ता पर कब्जा करे और इसके लिए भाजपा को भंग कर दे या फिर संघ का विघटन कर भाजपा की कमान संभाल ले। वह शिव का रूप धारण कर जिस भस्मासुर को आशीर्वाद देगा वह भस्मासुर उसी के सिर पर हाथ रख उसे भस्म करने की जुगत में रहेगा। उसकी विचारधारा, उसके संगठन, उसकी कार्यशैली की यह नियति है।
हिन्दू फासीवादियों का यह आपसी कबड्डी का खेल कब तक चलता रह सकता है। यह तब तक ही चल सकता है जब तक इस खेल-तमाशे से ऊब कर भारत के मजदूर-मेहनतकश इस खेल तमाशे को हमेशा हमेशा के लिए बंद नहीं करवा देते हैं। वरना यह खेल चलता रहेगा। कभी कोई बाजपेयी तो कभी कोई आडवाणी तो कभी कोई मोदी तो कभी कोई योगी आते-जाते रहेंगे।
अफवाह या हकीकत
राष्ट्रीय
आलेख
इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।