अविश्वास प्रस्ताव : बहुमत को नहीं दोष गोसाईं

पूंजीवादी राजनीति में जब थोक के भाव विधायक-सांसद खरीदे जाने लगे, तो मुद्दा-आधारित अविश्वास प्रस्ताव के दौरान किसी विचारोत्तेजक बहस की अपेक्षा नहीं की जा सकती। आठ अगस्त से मणिपुर के हालातों पर शुरू अविश्वास प्रस्ताव पर बहस से भी कोई ख़ास उम्मीदें नहीं थीं, पर जो हुआ वो यह सिद्ध करता है कि केंद्र सरकार को अब जनता को सम्बोधित करने में भी रुचि नहीं है। सरकार को कोई खतरा नहीं है क्योंकि उनके पास बहुमत है और जनता में विश्वास का संचार करने के लिए गोदी मीडिया हर पल बेताब है। 
    
सरकार संख्या बल से आश्वस्त है। उसे जनता से कोई सरोकार नहीं। उसे संसद और विपक्ष से भी कोई सरोकार नहीं। तभी तो प्रधानमन्त्री से संसद में मणिपुर मुद्दे पर बयान की मांग करने वाले विपक्षी सांसदों ने अपने आखिरी हथियार के रूप में अविश्वास प्रस्ताव का सहारा लिया था। तय था कि प्रधानमंत्री को संसद में आना पड़ेगा और बयान देना पड़ेगा। पर 21 दिनों तक राज्य सभा को सफलतापूर्वक नजरअंदाज करने के बाद जब प्रधानमंत्री लोक सभा में पहुंचे तो विपक्ष के साथ-साथ दुनिया भर के पत्रकारों ने अपना माथा पीट लिया। प्रधानमंत्री के दो घंटे तेरह मिनट के भाषण के दौरान सभी बार-बार यही सोच रहे थे कि अविश्वास प्रस्ताव किस मुद्दे पर लाया गया है। अविश्वास प्रस्ताव मणिपुर के विध्वंसक हालातों पर, प्रधानमंत्री के मणिपुर पर न बोलने पर और मणिपुर की भाजपा नीत सरकार की विफलता पर लाया गया था। 
    
सरकार के पास जवाब नहीं था, यह भी सबको पता था। अगर सरकार के पास जवाब होता तो सर्वोच्च न्यायालय में वह जवाब देती। सर्वोच्च न्यायालय में सरकार सवालों के जवाब में अपनी कॉपी कोरी छोड़ आयी थी और एग्जाम की तैयारी के लिए समय मांग आयी थी। वहां सरकार के प्रतिनिधि को यह भी नहीं पता था कि मणिपुर में दर्ज मुकदमों में कितने मुकदमे किस अपराध से सम्बन्धित हैं। 
    
पर मोदी कॉपी कोरी छोड़ कर आने वालों में नहीं हैं। उन्होंने वो नहीं बोला जो उनसे लम्बे समय से पूछा जा रहा था। उन्होंने वो बोला जो उन्हें आता था। उन्होंने बताया कि उनकी सरकार के कामों का असर भारत के आने वाले अगले एक हजार वर्षों तक पड़ेगा। उन्होंने बताया कि कांग्रेस पार्टी 400 से 40 पर क्यों आ गयी। उन्होंने बताया कि देश पुरजोर तरक्की कर रहा है। और इस तरह अविश्वास परीक्षा की कॉपी उन्होंने पूरी भर दी। 
    
टेलीग्राफ अखबार ने इस पर खबर छापी और शीर्षक के बाद अधिकांश खबर में (पूरे चार कॉलम में) एक ही शब्द छापा, जिसका हिंदी अनुवाद बकबक बकबक....  या बकरबकर बकरबकर...किया जा सकता है। 
    
मोदी ने विपक्ष को पूरी बेशर्मी से कोसा, कांग्रेस के अतीत से घटनाओं को अपने मनमाफिक बनाकर प्रस्तुत किया और बहुमत से तालियां पिटवाईं।
    
तीन दिनों तक चली बहस में और भी कुछ बिंदु उल्लेखनीय हैं। बहुमत आधारित- समरथ को नहीं दोष गोसाईं की ही अभिव्यक्ति सत्ता पक्ष की अवसरवादी तर्क पद्धति में दिखी। प्रकारांतर से ही सही, पर एजेंडा निर्धारित करने में कांग्रेस, राहुल गांधी और इंडिया नामधारी विपक्ष कामयाब रहा। पर इस सफलता के बावजूद कांग्रेस और तमाम विपक्षी भी बहुमत की सामर्थ्य और गोदी मीडिया के दबाव के सामने रक्षात्मक नजर आये। इसकी वजह यह है कि पूंजीवादी पार्टियां वो नैतिक-वैचारिक बल अपने भीतर उत्पन्न नहीं कर सकतीं जो ‘समरथ’ से टकराने के लिए जरूरी है। 
    
बहुमत के दम पर निश्चिन्त सरकार और नरेंद्र मोदी भी दबाव में आए और रक्षात्मक होते हुए पूंजीवादी राजनीति और साहित्य की मर्यादाओं को तोड़कर उन्होंने खुद को बेनकाब किया। राहुल गांधी के बयान के तुरंत बाद भाजपा के साथ सैनिक अनुशासन में बंधी स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी पर नारी विरोधी होने का आरोप प्रचंड किन्तु खोखले स्वर में लगाकर सरकार का पक्ष पोषण किया। अमित शाह को अधीर रंजन की एक दुहाई चुभ गयी जिसमें उन्होंने ब्रिटिश संसद की 1782 की एक घटना का उदाहरण दिया था, जब उस समय के ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अविश्वास प्रस्ताव लाये जाने पर इस्तीफ़ा दे दिया था क्योंकि अमेरिका में ब्रिटिश सेना पराजित हुई थी। वसुधैव कुटुम्बकम की बात करने वालों को संसदीय परंपरा के सन्दर्भ में भी किसी अन्य देश का उदाहरण देने पर अपने संकीर्ण राष्ट्रवाद का अपमान महसूस होता है। अधीर रंजन चौधरी के इस साहित्यिक बयान पर कि ‘जहां धृतराष्ट्र राजा होता है वहां द्रौपदी का चीर हरण होता है’ सरकारी सांसदों को मोदी का अपमान दिखाई दिया और उन्होंने तुरंत अफसोस जाहिर करने की मांग की। ऐसा न होने पर बहस और मतदान के बाद अधीर रंजन को लोक सभा से अग्रिम निर्णय तक निलंबन की सजा सुनाई गयी।    
    
राहुल गांधी के ‘भारत मां की मणिपुर में हत्या’ वाले बयान के जवाब में कांग्रेस के शासन काल में बंटवारे को ‘मां भारती के हाथ काटने’ के रूप में पेश किया गया। अधीर रंजन को बाद में मीडिया के सामने धृतराष्ट्र-द्रौपदी बयान के सम्बन्ध में सफाई देते हुए पाया गया, उनकी सफाई में कुछ गलत न होने पर भी यह उनके रक्षात्मक होने को ही दिखाता है। सेना को प्रश्नों से परे बताने वाले मोदी कांग्रेस शासन में मिजोरम में सेना द्वारा जनता पर हमले की दुहाई देते दिखाई दिए। 
    
अविश्वास प्रस्ताव पर बहस ने दिखाया कि सत्ता पक्ष राहुल गांधी की बढ़ती लोकप्रियता और विपक्ष की बढ़ती एकता से चिंतित है। पर विपक्ष अभी अपनी राजनैतिक मुखरता और सांगठनिक शक्ति के सन्दर्भ में 2024 में चुनौती बनने से दूर है। पूंजीवादी राजनीति का पतन तो बदस्तूर जारी है ही।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

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आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।