बनभूलपुरा हिंसा : फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट (अंश) भाग-2

(पिछले अंक से जारी)

उत्तराखंड की बदलती फिजा 

यदि विगत कुछ वर्षों में उत्तराखंड की बदलती राजनीतिक फिजा पर गौर करें तो 8 फरवरी के इस घटनाक्रम को सही दृष्टि से देख पाना संभव है। उत्तराखंड में लगातार दूसरी बार इस समय भाजपा की सरकार है और इस समय जो शख्स मुख्यमंत्री के पद को सुशोभित कर रहे हैं वे खुद को ‘धर्म रक्षक’ कहलाना अधिक पसंद करते हैं। ‘धर्म रक्षक’ पुष्कर सिंह धामी की मानें तो इस समय उत्तराखंड की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी न होकर ‘लैंड जिहाद’ है। वे दो टूक कहते हैं कि ‘लैंड जिहाद’ को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। इस तरह बेहद चालाकी से राज्य की भाजपा सरकार ने उत्तराखंड में सशक्त भू कानून की मांग को जो कि पूंजीपतियों द्वारा राज्य में भारी पैमाने पर जमीन को खुर्द-बुर्द किये जाने के खिलाफ थी, उसकी दिशा को ‘लैंड जिहाद’ की ओर मोड़ कर एक तीर से दो शिकार किये हैं; एक ओर पूंजीपतियों की सुरक्षा तथा इनके लिए जमीन की बेरोक टोक लूट-खसोट तो दूसरी ओर हिन्दू मुस्लिम ध्रुवीकरण। और वे सिर्फ कहते ही नहीं करते भी हैं। विगत समयों में उन्होंने वन भूमि पर बनी 300 से अधिक मजारों को ध्वस्त करवा दिया, हालांकि उसी वन भूमि पर मंदिर भी बने हैं, लेकिन ‘लैंड जिहाद’ जैसा कि शब्द से ही स्पष्ट है कि सिर्फ मुस्लिम समुदाय की मजारों, मस्जिदों, मदरसों और बस्तियों को ही माना जायेगा। जबकि उत्तराखंड में जिस कथित वन भूमि, नजूल भूमि, रेलवे की भूमि इत्यादि पर ये सब बने हुये हैं उसी पर हिंदू समुदाय के मंदिर और उनके घर दुकान भी आम तौर पर बने हुये हैं। लेकिन चीजों को प्रस्तुत और प्रचारित ऐसे किया जा रहा है कि मुसलमान अतिक्रमणकारी हैं, हालांकि इस घिनौनी सांप्रदायिक राजनीति की आड़ में असल में सभी धर्मों के मजदूर-मेहनतकशों को उजाड़ा जा रहा है। अब चाहे यह जी-20 के नाम पर हो या फिर अतिक्रमण विरोधी अभियान के नाम पर। हालांकि अपने राजनीतिक हितों के मद्देनजर सरकार द्वारा कुछ चुनिंदा जगहों पर नजूल की भूमि को फ्री-होल्ड भी किया गया है। 
    
विगत वर्ष पुरोला (उत्तरकाशी) में जो कुछ घटित हुआ उसने भी देश-दुनिया का ध्यान आकर्षित किया। यहां ‘लव जिहाद’ का फर्जी मामला बनाकर हिंदूवादी संगठनों ने उसे इतना तूल दिया और आतंक कायम किया कि शहर के चंद मुस्लिम दुकानदारों को शहर छोड़कर जाने को मजबूर होना पड़ा। इसी कड़ी में फिर हल्द्वानी के कमलुवागांजा में एक मुस्लिम व्यक्ति पर गौ वंश के साथ अप्राकृतिक दुष्कर्म का मामला बनाकर भाजयुमो के एक पदाधिकारी विपिन पाण्डे और उसकी गैंग द्वारा पूरे क्षेत्र में मुस्लिम दुकानदारों की दुकानें बंद करवाने और दहशत कायम करने का काम किया गया, जबकि असल में मामला पैसों के लेन-देन का था। जिस व्यक्ति पर अप्राकृतिक दुष्कर्म का आरोप लगाया गया वह एक कारपेन्टर था, जिसके काम व मेहनत का पैसा नहीं दिया जा रहा था। उसके तकादा करने पर उस पर झूठा आरोप मढ़ दिया गया। 8 फरवरी के बनभूलपुरा प्रकरण के बाद कमलुवागांजा में भाजयुमो के इसी पदाधिकारी विपिन पाण्डे और उसकी गैंग ने पुनः मुस्लिमों की दुकानें बंद कराइंर् और तोड़फोड़ कर दहशत कायम की। इस मामले का चिंताजनक पहलू ये है कि 10 स्थानीय दुकानदारों ने पुलिस से सुरक्षा और उक्त लम्पटों को रोकने की गुहार लगाई। कौमी एकता मंच के लोगों ने भी प्रशासन को ज्ञापन दिया और मुलाकात कर उक्त लम्पट तत्वों पर कार्यवाही की मांग की। पर, प्रशासन चुप्पी साधे रहा, कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की। इसी तरह पिछले दिनों धारचूला में कथित बाहरी तत्वों के विरुद्ध एक भड़काऊ जुलूस हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने निकाला। यहां बाहरी से मतलब मुस्लिम समुदाय के लोगों से था। 
    
दूसरी तरफ पुलिस ने हिंसा में मारे गये 7 बनभूलपुरावासियों की तरफ से कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की है। बल्कि हिंसा-उपद्रव के आरोप में 100 से अधिक बनभूलपुरा के लोगों को ही गिरफ्तार कर हिंसा, बलवा, सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने वाली धाराओं में मुकदमे दर्ज कर जेल भेजा है। इन पर भारतीय दंड संहिता की धाराओं 147, 148, 149, 307, 395, 323, 341, 342, 353, 427, 435, 436 के तहत, उत्तराखण्ड लोक सम्पत्ति निवारण अधिनियम की धारा 3, 4 के तहत, आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 1932 की धारा 7 तथा विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम 1967 की धारा 15 के तहत मुकदमे दर्ज किये हैं। यह दिखाता है कि हत्या जैसे संगीन अपराध के प्रति रुख, उपद्रव में संपत्ति के नुकसान के प्रति रुख और कमलुवागांजा में माहौल बिगाड़ने वाले भाजयुमो के कार्यकर्ता के प्रति रुख में पुलिस का व्यवहार एकदम विपरीत है। फईम की हत्या के मामले में न्यायालय के 9 मई को एफ.आई.आर. दर्ज कर जांच के आदेश आने के बाद पुलिस कार्यवाही करेगी। यहां पीड़ित ही अपराधी के रूप में कठघरे में खड़े हैं, वाली स्थिति दिखाई देती है।
    
इसके अलावा करीब सवा साल पहले रेलवे के दावे को मानते हुये उच्च न्यायालय ने बनभूलपुरा के 4365 निर्माणों अर्थात बड़े हिस्से को ध्वस्त करने के आदेश दे दिये थे, हालांकि सर्वोच्च न्यायालय से इस पर स्थगनादेश (स्टे) प्राप्त हो जाने पर लोगों ने राहत की सांस ली। इस समय यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। उच्च न्यायालय के उक्त फैसले में साफ कहा गया है कि इस क्षेत्र में कोई नजूल भूमि नहीं है और नगर निगम को लीज पर भूमि देने और उसके नवीनीकरण का कोई अधिकार नहीं है। अब यहां दो सवाल खड़े होते हैं। पहला यह कि जिस भूमि पर नगर निगम के स्वामित्व को उच्च न्यायालय खारिज कर चुका है उस पर कब्जा लेने एवं उस पर मौजूद किसी निर्माण को ध्वस्त करने का अधिकार नगर निगम को भला किसने दिया? दूसरा यह कि यदि यह भूमि नजूल की है तो फिर सवा साल पहले बनभूलपुरा पर तीखे हुये विवाद में राज्य सरकार ने न्यायालय में बनभूलपुरा के निवासियों की पैरवी क्यों नहीं की? स्पष्ट है कि बनभूलपुरा हर ओर से सिर्फ इसलिये पीसा जा रहा है कि यह एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र है? 
    
उपरोक्त घटनाक्रमों एवं ऐसे ही कुछ अन्य घटित मामलों के मद्देनजर स्पष्ट है कि फासीवादी ताकतों द्वारा आज उत्तराखंड को हिंदुत्व की प्रयोगशाला के रूप में विकसित किया जा रहा है और 8 फरवरी का प्रकरण कोई अलग-थलग और अचानक घटने वाली घटना न होकर हिंदुत्व की इसी राजनीति का एक प्रयोग था।
    
8 फरवरी की घटना पर हिंदी अखबारों एवं कुछ टीवी व यू ट्यूब चैनलों ने बिना किसी जांच पड़ताल के बनभूलपुरा के सभी मुसलमानों को इसके लिये जिम्मेदार ठहरा दिया और भड़काऊ शीर्षकों एवं मनगढंत तथ्यों के साथ इस तरह एकतरफा रिपोर्टिंग की मानो हिंदुत्व का एजेंडा चला रहे हों। 

कर्फ्यू के दौरान पुलिसिया कहर; बनभूलपुरा के लोगों खासकर महिलाओं के साथ हुई बातचीत का विवरण
    
8 फरवरी की रात जबकि कर्फ्यू ग्रस्त बनभूलपुरा में डरे सहमे लोगों ने खुद को अपने घरों में बंद कर लिया था, उस समय पुलिस बनभूलपुरा के गली-मोहल्लों में गश्त कर रही थी, जबकि हल्द्वानी के कर्फ्यू ग्रस्त अन्य क्षेत्रों में पुलिस की ऐसी गश्त नहीं थी। गश्त के दौरान पुलिस ने धार्मिक और भद्दी गालियों के साथ लोगों के घरों के दरवाजों को पीटा, सड़कों पर खड़े दुपहिया और चौपहिया वाहनों को तोड़ डाला। पुलिस कितने ही घरों में दरवाजा तोड़कर भीतर घुस गई और लोगों को बुरी तरह मारा-पीटा गया। महिलाओं-बुजुर्गों को भी नहीं बख्शा गया। पुलिस ने घरों के भीतर भी भारी तोड़-फोड़ की और टीवी, फ्रिज, शीशे, वाशिंग मशीन, सिलाई मशीन और किचन के सामान इत्यादि को भारी नुकसान पहुंचाया। इस दौरान पुलिस ने बड़ी संख्या में लोगों को हिरासत में ले लिया या ज्यादा सही कहें तो उठा लिया।
    
वहीं शहर की आम जनता का रुख ऐसा नहीं था। गौलापार, चोरगलिया (बनभूलपुरा के पूरब में गौला नदी के पार के इलाके) से लेकर हल्द्वानी की जनता के बीच से कुछ लोगों ने इस दौरान राशन आदि की मदद बनभूलपुरा के लोगों तक पहुंचाने का काम किया। व्यापार मण्डल ने भी मुस्लिम दुकानदारों की दुकानें खुलने देने की मांग की, हालांकि उन पर ‘‘दंगाइयों’’ की मदद का आरोप लगाया गया। जिसके बाद उन्हें सफाई में कहना पड़ा कि ‘‘हमारी मांग का गलत मतलब लगाया जा रहा है। हम दोषियों को सख्त सजा दिये जाने के पक्ष में हैं।’’ यह जनता की संकट के समय परस्पर एकता और सहयोग की भावना को दिखाता है, जो सद्भाव कायम करने में अहम पहलू है।
    
इस पुलिसिया आतंक से घबरा कर क्षेत्र के बहुत से परिवार पलायन को मजबूर हुये और आस-पास अपने रिश्तेदारों के यहां चले गये। लेकिन पुलिस की यह दहशत पैदा करने वाली गश्त और लोगों को हिरासत में लेने का सिलसिला जारी रहा।
    
उत्तरांचल दीप में काम करने वाले सलीम खान की पत्नी ने बताया कि 10 फरवरी की दोपहर बाद 20-25 पुलिस वाले उनके घर का दरवाजा तोड़कर अंदर घुस आये। उनके पति उस समय घर पर नहीं थे। घर में वे, उनकी तीन बेटियां, उनकी भाभी और तीन भतीजियां थीं, अर्थात घर में सिर्फ महिलायें ही थीं। पुलिस ने सभी को बहुत मारा और भद्दी गालियां दीं। उनकी बड़ी बेटी, जो कि वकील है और उनकी छोटी बेटी, जो कि नाबालिग है, को पुलिस ने बहुत पीटा और उनकी भाभी का हाथ तोड़ दिया। इसके अलावा पुलिस ने उनके घर में तोड़-फोड़ भी की और टीवी, फ्रिज, किचन का सामान इत्यादि नष्ट कर दिया। 
    
इस दिन सलीम खान के घर पर जो कुछ हुआ वह सिर्फ उनकी नहीं बल्कि उस दिन बनभूलपुरा के दर्जनों घरों की कहानी बन गई। फैक्ट फाइंडिंग टीम की मुलाकात नजमा (बदला हुआ नाम) से हुई, उन्होंने बताया कि 10 तारीख की शाम को पुलिस उनके घर का दरवाजा तोड़कर अंदर घुस आई और उनके लड़के को बहुत मारा और खून में नहलाकर बेहोश छोड़कर चले गये। पुलिस कह रही थी कि वह पत्थर मारने वालों में शामिल था, जबकि उस दिन (8 फरवरी को) वह काम पर गया हुआ था।  
    
रशीद अहमद (बदला हुआ नाम) की पत्नी समीना ने फैक्ट फाइंडिंग टीम को बताया कि 10 तारीख को 3 बजे के लगभग वे अपने घर में खाना खा रहे थे कि 10-15 पुलिस वाले दरवाजा तोड़कर अंदर घुस आये। पुलिस ने उनके पति को लाठियों से पीटा जिससे उनका पैर टूट गया। समीना ने बताया कि पुलिस ने उसे भी पीटा और घर का सारा सामान-फ्रिज, वाश बेसिन, टीवी, वाशिंग मशीन और बर्तन सब तोड़ दिया। अलमारी में पर्स में रखे हुये दस हजार रुपये भी ले गये। बाहर कर्फ्यू लगे होने के कारण उनके पति घर में ही कराहते रहे और जब उन्होंने मदद के लिये 108 नंबर पर फोन किया तो जवाब मिला कि अगर आपका पैर टूटा हुआ है तो आपने पथराव किया होगा और हम आपको लेने नहीं आएंगे। जब कर्फ्यू में 2 घंटे की ढील हुई तभी जाकर वे कच्चा प्लास्टर करवा पाये। रशीद और समीना गहरे सदमे में हैं कि उन्हें क्यों मारा गया और उनका सामान तोड़ा गया।
    
रुक्सार (बदला हुआ नाम) ने बताया कि 10 तारीख को शाम को करीब 4 बजे पुलिस जोर-जोर से हमारे घर का दरवाजा पीटने लगी। हमने दरवाजा खोला तो पुलिस वालों ने अंदर घुसते ही हमें मारना शुरू कर दिया। मेरे पति और बेटों को पुलिस घसीटते हुये ले गई और कुछ दिन बाद उन्हें छोड़ा। इस दौरान पुलिस ने उन्हें बहुत मारा पीटा।  
    
जायेशा (बदला हुआ नाम) ने बताया कि पुलिस द्वारा दरवाजा पीटे जाने पर हमने दरवाजा खोल दिया और वे (पुलिस वाले) अंदर घुस आये। उन्होंने टॉयलेट की शीट और बाथरूम के सारे नल तोड़ डाले। गैस चूल्हा भी तोड़ डाला और बाइक भी तोड़ दी। मेरा हाथ तोड़ दिया और गाली-गलौच की। 
    
इसी तरह 40 वर्षीय मुजामिल, जिन्होंने 8 फरवरी के ध्वस्तीकरण के दौरान मस्जिद से कुछ कुरान पाक को निकालकर किसी सुरक्षित जगह पर रखवा दिया था, को भी पुलिस 10 फरवरी को उनके घर से घसीट के ले गई। मुजामिल को जेल भेजा जा चुका है। 
    
फैक्ट फाइंडिंग टीम द्वारा अपना परिचय देने पर रहमत अली (बदला हुआ नाम) ने हम पर संदेह जताते हुये कहा कि ‘यहां तो कई पत्रकार आ रहे हैं, बात कर रहे हैं, वीडियो बनाकर ले जा रहे हैं और उलटी-पुलटी खबरें चला रहे हैं। कुछ पता नहीं चल रहा है कि कौन क्या करने आ रहा है? कुछ देर की बातचीत के बाद विश्वास बनने पर उन्होंने बताया कि घटना वाले दिन वह यहां नहीं था और उसे घरवालों ने फोन कर माहौल खराब होने की बात बताई। 10 फरवरी को पुलिस उसके परिवार के दो लोगों को उठाकर ले गई और सात-आठ दिन बाद छोड़ा। पुलिस ने दोनों को बहुत मारा।
    
10 तारीख की दोपहर बाद के समय जबकि पुलिस लोगों के घरों में घुस रही थी तब सभी जगहों पर ज्यादातर महिलायें ही घरों पर थीं और पुलिस ने उन सभी को बुरी तरह पीटा और घरों में तोड़फोड़ की। बुजुर्गों और बीमारों को भी नहीं बख्शा गया। पीटने वालों में पुरुष और महिला पुलिस कर्मी दोनों शामिल थे, हालांकि महिला पुलिसकर्मियों की संख्या पुरुष पुलिसकर्मियों की तुलना में बहुत कम थी। कई ऐसे घरों में भी पुलिस ताला तोड़कर घुस गई और भारी तोड़-फोड़ की, जहां घर में कोई नहीं था और लोग कहीं बाहर गये हुये थे। ऐसे बंद घरों में खड़े दोपहिया और चौपहिया वाहन भी पुलिस ने तोड़ डाले। कई घरों में तो टॉयलेट की सीट और सिंक तक को पुलिस ने तोड़ दिया। 
    
गफूर बस्ती में घटे एक घटनाक्रम में पुलिस ने एक नौजवान को इशारा कर बुलाया और सामान उठाने में मदद के लिये चार-पांच और लोगों को बुलाने को कहा। जब सब लोग आ गये तो पुलिस ने इन्हें पीटना शुरू कर दिया और तब तक पीटते रहे जब तक कि वे अधमरे नहीं हो गये।
    
इसी तरह स्कूल की कुछ छात्राओं ने बताया कि कुछ पुलिस वाले बहुत खराब तरह से बोल रहे थे और गाली देकर बात कर रहे थे। उन्होंने बताया कि एक बूढ़े-बुजुर्ग अपने घर के आगे कुर्सी पर धूप में बैठे थे कि एक पुलिस वाले ने कुर्सी पर जोर से लात मारी इससे वे नीचे गिर गये और डर कर अपने घर के अंदर चले गये। 
    
लोगों ने यह भी बताया कि कर्फ्यू के दौरान पुलिस जिन लोगों को उठा रही थी उन्हें गौला पार कुंवरपुर के स्कूल में बनाये गये डिटेंशन सेंटर ले जाया जा रहा था और वहां उन्हें बुरी तरह मारा पीटा जाता था। उसके बाद उनमें से कुछ लोगों को जेल भेज दिया जाता था और बाकी लोगों को छोड़ दिया जाता था। अभी तक पुलिस 100 से अधिक लोगों को जेल भेज चुकी है जिनमें से 5 महिलायें हैं।  
    
लोगों पर बरसे कहर की इन कहानियों से पता चला कि लोग घायल होने, परिजनों के जेल में होने, घरों पर तोड़-फोड़ से हुए नुकसान के कारण भारी आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे हैं। इसके कारण राशन, इलाज जैसी बुनियादी जरूरी चीजों से महरूम हैं। ऐसे में कौमी एकता मंच ने भी अपने सीमित संसाधनों में कुछ लोगों के राशन, इलाज में मदद की। इस तरह की मदद अन्य सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं व व्यक्तियों के द्वारा भी की गयी। कुछ मामलों में पुलिस ने मदद करने वालों से भी पूछताछ और जांच की।
    
8 फरवरी के प्रकरण के बाद सूबे के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और पुलिस-प्रशासन के बड़े अधिकारियों के बयान थे कि ‘दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा’ और ‘दंगाईयों से सख्ती से निपटा जायेगा’, शायद इन बयानों का आशय वही था जो कि कर्फ्यू के दौरान बनभूलपुरा में घटा।
    
सरकार की मुस्लिम विरोधी बयानबाजी, मुस्लिमों की सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचाने (नजाकत खां के बगीचे व बनभूलपुरा की तोड़-फोड़ की घटनाओं और खुद मलिक के बगीचे में ध्वस्तीकरण, आदि उदाहरण), लम्पट तत्वों को मुस्लिम दुकानदारों-मजदूरों को निशाना बनाने की खुली-छिपी छूट के कारण फिजा खराब बनी हुयी है। फैक्ट फाइंडिंग में यह तथ्य भी सामने आया कि तमाम मजदूरों, कारीगरों को शहर के अन्य हिस्सों में काम मिलने में अब कठिनाई होने लगी है। इस वैमनस्य भरे माहौल से इन मेहनतकश लोगों के लिए जीवनयापन कठिन हो रहा है, जो एक स्वस्थ समाज के लिए नासूर सा बन रहा है। सरकार और प्रशासन समय रहते नहीं चेते तो समाज का भारी नुकसान होगा।
    
इस दौरान हल्द्वानी के कमलुवागांजा क्षेत्र में एक स्थानीय भाजपा नेता मोटर साइकिलों और कार पर अपने समर्थकों की भीड़ लेकर खुलेआम मुस्लिम दुकानदारों को धमकाता हुआ घूम रहा था। उसने कई दुकान मालिकों पर दबाव डाल उनसे जबरन मुस्लिम किरायेदारों की दुकानें खाली करवा कर शहर की फिजा को बिगाड़ने की कोशिश की। उसने जबरन दुकानें बंद करवाइंर्, तोड़-फोड़ और मारपीट कर मुस्लिम दुकानदारों को आतंकित करने की कोशिश की। लेकिन यहां पुलिस-प्रशासन शिकायत के बाद भी सक्रिय नहीं हुआ। कोई एफ.आई.आर, मुकदमा दर्ज नहीं किया गया। स्पष्ट है कि पुलिस का आरोपी भाजपा नेता को संरक्षण मिला हुआ है। कुछ दुकान मालिकों ने भले ही दबाव में दुकानें खाली कराईं लेकिन कुछ अपने मुस्लिम किरायेदारों के साथ खड़े भी हुये। यहां स्थानीय लोगों के किसी उकसावे में न आने से स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं गई और शहर में हिंसा नहीं फैली।

मीडिया कर्मियों की बात
    
8 फरवरी को प्रशासन की कार्यवाही, उपजी हिंसा और उपद्रव को पत्रकारों ने भी देखा, जिन्होंने शहर में पहली बार हुई इस तरह की हिंसा को प्रशासनिक चूक और उकसावे की कार्यवाही बताया। कुछ पत्रकारों की तरफ से उत्तेजक कवरेज और पलटवार की साम्प्रदायिक भाषा इस्तेमाल करने की बात स्वीकारी। पत्थरबाजी कहां और कैसे शुरू हुई इस बारे में कोई साफ जानकारी नहीं मिली। घायल पत्रकारों को इलाज में प्रशासन, सरकार ने मदद की लेकिन मुआवजा नहीं मिला। मोटरसाइकिल, कैमरे अन्य निजी सामान के नुकसान का भी उचित मुआवजा नहीं मिला। हां, मोटरसाइकिलों के नुकसान के नाममात्र मुआवजे दिये गये। 5000 से लेकर 90,000 रुपये तक मुआवजे मिलने की बात पत्रकारों ने बताई।
    
इसके अलावा कर्फ्यू के बाद में देश-विदेश के पत्रकारों ने क्षेत्र का दौरा कर घटना की रिपोर्टिंग करने का प्रयास किया। स्वीडन की एक पत्रकार ने क्षेत्र का दौरा कर मामले को रिपोर्ट करने की कोशिश की जिसमें प्रशासन ने पत्रकार से पूछताछ कर रिपोर्टिंग को हतोत्साहित किया। ऐसा ही प्रशासन ने, कुछ मामले जो सामने आये, फ्रांस के पत्रकार के साथ भी किया। इस्मत आरा नाम की एक पत्रकार ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म ‘एक्स’ पर बनभूलपुरा की एक महिला उत्पीड़न का वीडियो डाला था। जिसे उन्होंने उत्तराखण्ड पुलिस के कहने पर ‘एक्स’ से हटाते हुए टिप्पणी की- ‘‘हल्द्वानी के बारे में मेरा वीडियो महिलाओं के आरोपों पर आधारित था। मैंने वही बताया जो मुझे बताया गया था। लेकिन, जिन महिलाओं ने ये आरोप लगाए हैं, उन्होंने पुलिस के पास नहीं जाने या मामले की जांच नहीं कराने का फैसला किया है। पिछले एक हफ्ते से उत्तराखण्ड पुलिस मुझसे संपर्क कर रही है और लगातार वीडियो को हटाने का अनुरोध कर रही है क्योंकि उनका मानना है कि कुछ लोग इसे गलत तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं जिससे तनाव बढ़ सकता है। अधिकारियों के साथ सहयोग करने और समाज में सकारात्मक योगदान देने के लिए, मैं वीडियो हटा रही हूं।’’ इससे यह जाहिर होता है कि प्रशासन इस घटना में सत्य उजागर कर दोषियों को सजा दिलवाने के बजाय घटना के घिनौने पहलुओं को सामने आने से रोककर ‘‘शांति’’ कायम करने में लगा है। यहां सत्य को उजागर कर न्याय करने की बातें कहीं कानूनी किताबों में दफन सी कर दी गयी हैं।

पुलिस प्रशासन का पक्ष 
    
कौमी एकता मंच ने पूरे मामले पर पुलिस व जिला प्रशासन का पक्ष जानने के लिये अधिकारियों से भी समय मांगा, प्रार्थना पत्र दिया। लेकिन उन्होंने मुलाकात का समय नहीं दिया। उच्च अधिकारियों द्वारा समय न दिये जाने के बावजूद, बनभूलपुरा थाने पर बात करने पर पुलिसकर्मियों ने कहा कि इस मामले में कप्तान, सी.ओ. ही बयान दे सकते हैं। अभी जांच जारी है। बलवा, दंगा, आगजनी, मारने की कोशिश की धाराएं दर्ज की गयी हैं। ज्यादा सही से जांच अधिकारी ही बता सकते हैं। घटना योजनाबद्ध थी या नहीं कह नहीं सकते। कितने घंटे बलवा चला कह नहीं सकते। उन्होंने कहा कि हम मुस्लिम समुदाय को आरोपी नहीं कह रहे हैं। कई मुस्लिम परिवारों ने मदद भी की। उग्र भीड़ ने मदद करने वालों के घरों पर भी पत्थर फेंके। महिलायें प्रदर्शन में थीं लेकिन आगजनी में शामिल नहीं थीं। आगजनी करने वाले थाने के बाहर ही थे, अंदर नहीं आ पाये थे और उन्होंने पीछे के कमरे में खिड़की से अंदर आग डाली गयी तो थाने के अंदर सर्वर रूम के इलेक्ट्रिक सामान ने आग पकड़ ली। थाने के बाहर खड़ी मोटर साइकिल और कारों में भी उन्होंने ही आग लगाई। उस समय थाने में 35-36 लोग थे। पुलिस कर्मियों ने बताया कि स्थानीय मुस्लिम आबादी ने पुलिस कर्मियों को बचाया भी। उन्हें कपड़े दिये और अपने घरों में शरण भी दी।

निष्कर्ष एवं मांग 

1. मलिक के बगीचे पर स्थित मस्जिद और मदरसा को प्रशासन द्वारा अपने कब्जे में लेकर सील किया जा चुका था और मामला उच्च न्यायलय में विचाराधीन था। ऐसे में प्रशासन द्वारा पर्याप्त तैयारी के बिना आनन-फानन में की गई ध्वस्तीकरण की कार्यवाही गैरजरूरी और उकसावे पूर्ण थी। 
2. करीब सवा साल पुराने उच्च न्यायालय के फैसले में स्पष्ट कहा गया है कि इस क्षेत्र की कोई भूमि नजूल भूमि नहीं है। ऐसे में जिस भूमि पर नगर निगम का कोई स्वामित्व ही नहीं है तो उस भूमि पर बने किसी निर्माण को ध्वस्त करने का नगर निगम के पास कोई कानूनी अधिकार नहीं था।  
3. खुफिया विभाग की रिपोर्ट और चेतावनियों को नजरअंदाज करना भी प्रशासन को कठघरे में खड़ा करता है।  
4. थाने के बाहर व भीतर आगजनी और भारी तोड़-फोड़ करने वाले बनभूलपुरा के निवासी न होकर असामाजिक तत्व थे, जिनका कि हिंसा भड़काने के लिये इस्तेमाल किया गया था।  
5. कर्फ्यू एवं देखते ही गोली मारने के आदेश की सार्वजनिक घोषणा एवं कमर से नीचे ही गोली मारने इत्यादि प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया गया। ऐसे में परिस्थितियों से अंजान बेगुनाह लोग गोलीबारी में घायल हुये और मारे गये।  
6. कर्फ्यू में गश्त के दौरान पुलिस द्वारा जबरन दरवाजा तोड़कर लोगों के घरों में घुसना, उन्हें बुरी तरह मारना-पीटना, महिलाओं-बुजुर्गों तक को न बख्शना, घरों में भारी तोड़-फोड़ करना और मनमानी गिरफ्तारी जैसी कार्यवाही पूरे समुदाय को आतंकित करने की एक आपराधिक कार्यवाही थी।
7. पुलिस फायरिंग में घायल एवं मृतकों के परिजनों को सांत्वना देना एवं सहायता प्रदान करना शासन की जिम्मेदारी थी, जिसे शासन द्वारा नहीं निभाया गया। मुख्यमंत्री द्वारा घायल पुलिसकर्मियों से तो मुलाकात की गई लेकिन बनभूलपुरा के पुलिस गोलीबारी में घायल एवं मृतकों के परिजनों से कोई मुलाकात नहीं की गई, इससे मुस्लिम समुदाय का शासन के प्रति अविश्वास बना।
8. सत्ताधारी भाजपा के एक स्थानीय नेता द्वारा अपने समर्थकों के साथ शहर के एक हिस्से में स्थानीय दुकान मालिकों पर दबाव बनाकर मुस्लिम किरायेदारों से जबरन दुकानें खाली कराई गई एवं दुकानों को बंद कराया गया तथा लोगों से मारपीट व तोड़-फोड़ की गई। इस स्थानीय भाजपा नेता को पुलिस-प्रशासन का सहयोग हासिल था, हालांकि लोगों को आतंकित करने एवं क्षेत्र का माहौल बिगाड़ने की इस कार्यवाही को स्थानीय लोगों का सहयोग नहीं मिला।  
    
उपरोक्त के मद्देनजर कौमी एकता मंच मांग करता है कि -

1. 8 फरवरी के बनभूलपुरा प्रकरण एवं कर्फ्यू के दौरान पुलिस की ज्यादतियों की उच्चतम न्यायालय की निगरानी में न्यायिक जांच हो। दोषी अधिकारियों पर सख्त से सख्त कार्यवाही हो।  
2. पुलिस गोलीबारी में जो घायल हुये उन्हें 5 लाख रु. एवं जो मारे गये उनके परिजनों को 25 लाख रु. मुआवजा दिया जाये एवं मृतक आश्रित को सरकारी नौकरी दी जाये। 
3. बनभूलपुरा में लोगों के घरों से हुई लूटपाट, तोड़-फोड़, आगजनी से हुई क्षति का समुचित मुआवजा दिया जाये।
            द्वारा 
        फैक्ट फाइंडिंग टीम  
        कौमी एकता मंच

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7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक

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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।