इस 26 जनवरी को भारतीय गणतंत्र को 75 साल हो रहे हैं। 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था और भारत औपचारिक तौर पर गणतंत्र घोषित कर दिया गया था। संविधान की प्रस्तावना के अनुसार यह काम खुद भारत के लोगों (‘हम भारत के लोग’) ने संविधान सभा के जरिए किया था।
संविधान सभा में संविधान निर्माता माने जाने वाले अम्बेडकर से लेकर नेहरू तक ने फ्रांसीसी क्रांति के ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ वाले नारे को अपना आदर्श घोषित किया था हालांकि अपने अंतिम भाषण में अम्बेडकर ने यह आशंका जताई थी कि क्या वर्णों-जातियों में बंटे भारतीय समाज में यह आदर्श कभी मूर्तिमान हो सकेगा?
जब भारत में संविधान का निर्माण हो रहा था तब ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के नारे वाली महान फ्रांसीसी क्रांति के डेढ़ सौ साल बीत चुके थे तब तक गंगा जमुना में ही नहीं लंदन की टेम्स और पेरिस की सीन नदी में भी बहुत सारा पानी बह चुका था। फ्रांसीसी क्रांति ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ की मासूमियत के साथ आतंक के राज्य से गुजर चुकी थी। नेपोलियन प्रथम कांसुल से सम्राट की यात्रा करते हुए सेंट हेलेना द्वीप की सैर कर चुका था। ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ का नारा देने वालों के वंशज अपने देश और सारी दुनिया में लूटपाट और मारकाट में व्यस्त थे और वह भी इसी नारे की आड़ में। अंत में यह सारा कुछ बीसवीं सदी के दो विश्वयद्धों की भयानक त्रासदी तक पहुंचा था।
लेकिन भारत की संविधान सभा में बैठे लोगों के लिए मानो यह सब कुछ हुआ ही नहीं था। मानो यह सब कुछ महज ऊंचे आदर्श से विचलन भर था। ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के नारे में दिक्कत नहीं थी, दिक्कत इस पर न चल पाने की थी। निजी सम्पत्ति के पूंजीवादी जमाने में ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ का परिणाम बेलगाम प्रतियोगिता, लूटपाट, मारकाट और अंततः विश्व युद्ध ही होना था यह इतिहास ने डेढ़ सौ सालों में दिखा दिया था पर भारत की संविधान सभा में बैठे नेहरू-अम्बेडकर जैसे लोग इसे देखने को तैयार नहीं थे।
उनके न देख पाने की वजह थी। ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ वह नारा है जिसकी आड़ में पूंजीपति वर्ग खरीद-बेच, माल, मुनाफा, प्रतियोगिता इत्यादि की अपनी पूंजीवादी व्यवस्था हासिल करता है तथा सामंतवाद के पुराने बंधनों से मुक्ति पाता है। इसमें स्वतंत्रता का वास्तविक मतलब खरीद-बेच की स्वतंत्रता होती है, समता का वास्तविक मतलब भांति-भांति के मालों में निहित मूल्य की समानता होता है तथा बंधुत्व का वास्तविक मतलब उत्पादन की प्रक्रिया में पूंजी और श्रम का साथ आना होता है। पूंजीपति वर्ग इसे हासिल करना चाहता है और ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के नारे के तहत आम मजदूर-मेहनतकश जनता को गोलबंद करता है जिसके लिए स्वतंत्रता का मतलब शोषण-उत्पीड़न से आजादी, समता का मतलब धन-सम्पत्ति में समानता तथा बंधुत्व का मतलब शासन और शासकों से मुक्ति होता है। इसीलिए पूंजीवादी क्रांतियों में पूंजीपति वर्ग और मजदूर-मेहनतकश जनता में अक्सर टकराव होता है तथा पूंजीपति वर्ग के सत्तारूढ़ होने के बाद क्रांति को और आगे बढ़ाने के ‘लेवेलर्स और डिग्गर्स’ या ‘कांसपिरेसी आव इक्वल्स’ जैसे प्रयास होते हैं।
भारत की संविधान सभा में बैठे भारत के पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदों को इसकी अनुभूति थी। उनके नेहरू और अम्बेडकर जैसे ज्यादा पढ़े-लिखे व योग्य लोगों को अंग्रेजी और फ्रांसीसी क्रांतियों की कुछ जानकारी थी। वे ‘आतंक के राज्य’ से परिचित थे और भयभीत थे। वे भारत में ऐसा कुछ भी नहीं होने देना चाहते थे, खासकर इसलिए कि लगभग एक तिहाई दुनिया ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के आदर्शों को मजदूर-मेहनतकश नजरिये से व्यवहार में उतारने की ओर बढ़ चुकी थी और स्वयं भारत में कम्युनिस्ट एक मजबूत राजनीतिक शक्ति थे। इसीलिए भारतीय पूंजीपति वर्ग के इन नुमाइंदों ने क्रांति से ही नहीं, किसी भी तरह के आमूलगामी और उग्र परिवर्तन से तौबा कर ली। उन्होंने क्रमिक सुधारों का एक बहुत ही लचर रास्ता अपना लिया। इतना ही नहीं, इन्होंने किसी भी तरह के आमूलगामी और उग्र सुधारों के खिलाफ चेतावनी दी।
बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय? क्रांति ही नहीं, उग्र सुधारों से भी तौबा कर लचर सुधारों का रास्ता अपनाने का क्या परिणाम हो सकता था? वही, जो हुआ और आज हिन्दू फासीवादियों के वर्चस्व वाला भारत सामने है जिसमें हर उस चीज की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं जो भारतीय संविधान का आदर्श है और हर उस चीज को स्थापित किया जा रहा है जो इस संविधान की दृष्टि में हेय है। अब ‘स्वतंत्रता’ का मतलब संघी लम्पटों द्वारा समाज में लंपटता फैलाने की स्वतंत्रता तथा हिन्दू फासीवादी सरकार द्वारा समाज को तहस-नहस करने की स्वतंत्रता हो गयी है। अब ‘समता’ का मतलब समाज में फिर से वर्ण व्यवस्था को स्थापित करना हो गया है जिसमें सब ‘हिन्दू’ के नाम पर समान होंगे। अब ‘बंधुत्व’ का मतलब जातियों की ‘समरसता’ हो गयी है जिसे संघ परिवार रोज प्रचारित करता है।
लचर सुधारों का रास्ता अपनाने वाले भारत के पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदे उम्मीद करते थे कि भारत किसी तरह उनके ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के आदर्श को हासिल कर लेगा यानी भारत एक पूंजीवादी समाज बन जायेगा। और उनकी उम्मीद उतनी गलत साबित नहीं हुई। समय के साथ क्रमिक सुधारों के जरिये ही सही, भारत एक पूंजीवादी समाज बन गया। पर यह कैसा जुगप्सित, बजबजाता पूंजीवादी समाज है जिसका एक हिस्सा ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के आदर्शों को लात मार कर मध्ययुगीन वर्ण-जाति व्यवस्था वाले ब्राह्मणीय समाज की ओर जाने के लिए छटपटा रहा है।
आज देश-विदेश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो भारतीय गणतंत्र की इस पचहत्तर साल की यात्रा पर इतराते हैं। वे बताते हैं कि भारत उन चुनिंदा देशों में है जो पश्चिमी दुनिया से बाहर गणतंत्र के रास्ते पर चल सका। वे यहां के ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनावों के कसीदे गढ़ते हैं। वे यहां जनतंत्र के विस्तार पर जश्न मनाते हैं। पर ऐसा करते हुए वे यह दिखाते हैं कि उन्होंने स्वयं अपने आदर्शों को कितना नीचा कर लिया है। वे अपने ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के नारे को कितना नीचे उतार लाये हैं। उन्होंने कैसे एक पतित समाज से तालमेल बैठा लिया है और भविष्य में कोई भी उम्मीद खो दी है। इनके सपने मर गये हैं और वे पतित वर्तमान को जायज ठहराने में लगे हुए हैं।
आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं?
‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के नारे में यकीन करने वालों के लिए ‘स्वतंत्रता’ व्यक्तियों की स्वतंत्रता थी, समता व्यक्तियों के बीच समानता थी और बंधुत्व व्यक्तियों के बीच बंधुत्व था। यानी यहां व्यक्ति सब कुछ था, एक ऐसा व्यक्ति जो बाजार में अपने हितों के प्रति सचेत था और राज-काल के संचालन में भी। एक ओर व्यक्ति था, दूसरी ओर बाजार। एक ओर व्यक्ति था और दूसरी ओर राज्य सत्ता। बाजार में वह खरीददार और विक्रेता था तो राज्य सत्ता के मामले में नागरिक। भारत के संविधान निर्माताओं ने उम्मीद की थी कि उनके द्वारा प्रस्तावित लचर सुधारों के जरिए एक दिन यह नागरिक पैदा हो जायेगा जो वर्ण-जाति, लिंग या धर्म के बंधनों से मुक्त होगा।
लेकिन भारत में जो पैदा हुआ वह उपभोक्तावाद के मामलों में तो इन बंधनों से मुक्त था पर राज्य सत्ता के मामले में नहीं। परिणाम आज यह है कि भारतीय समाज में व्यक्ति नागरिक कम एक उपभोक्तावादी जानवर ज्यादा है। वह अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सचेत नहीं है पर उपभोक्तावाद का बेतरह शिकार है।
आज हिन्दू फासीवादी थोड़े-बहुत पनपे या बचे नागरिकता बोध को समाप्त करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। एक ओर वे कोशिश कर रहे हैं कि अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों को तमाम नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया जाये। दूसरी ओर वे कोशिश कर रहे हैं कि बहुसंख्यक हिन्दू स्वयं अपने नागरिक होने का बोध खो दें। वे ‘हिन्दू’ बन जायें और साथ ही फलां-फलां जाति का हिन्दू। वर्ण व्यवस्था आज भी उनका आदर्श है। वे स्त्रियों का स्थान घर के भीतर देखते हैं। उनका अखण्ड भारत एकरस भारत है : हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान वाला भारत।
हिन्दू फासीवादियों का यह भारत हर तरह से ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के आदर्श वाले भारत के संविधान के उद्देश्यों और आदर्शों के एकदम विपरीत है। फिर ऐसा क्यों है कि इस संविधान द्वारा संचालित समाज के सबसे विशेषाधिकार लोग ही इसके खिलाफ जा रहे हैं और वह भी इसी संविधान का इस्तेमाल करते हुए?
आज इस स्थिति के लिए भारत के संविधान निर्माताओं और उनके संविधान को दोषमुक्त नहीं किया जा सकता। यह उनके रास्ते से विचलन नहीं है, बल्कि इस रास्ते का परिणाम है। यदि भारतीय समाज के कुछ सकारात्मक का श्रेय उनको जाता है तो इस सबका श्रेय भी उन्हें ही जाना चाहिए।
आज यदि हिन्दू फासीवादी धर्म का इस्तेमाल कर समाज में हावी हो रहे हैं तो इसीलिए कि संविधान निर्माताओं और संविधान द्वारा धर्म निरपेक्षता की एक लचर और दूषित परिभाषा गढ़कर धर्म को सार्वजनिक जीवन में हस्तक्षेप करने का पूरा मौका दे दिया गया। धर्म को दृढ़तापूर्वक निजी मामला घोषित कर उसे राज-काज और सार्वजनिक जीवन से बहिष्कृत करने के बदले उसे हर समय और हर जगह खेलने का मौका दिया गया। यही नहीं, हिन्दुओं की गाय को तो संविधान में ही घुसेड़ दिया गया। परिणामस्वरूप आज देश की समूची राजनीति मंदिर-मस्जिद, गाय, लव जिहाद इत्यादि के इर्द-गिर्द घूम रही है। यही हाल जातियों का भी है। चुनावी समीकरणों में जाति आज एक प्रमुख चीज है। कुछ पार्टियों का तो अस्तित्व ही जातिगत गोलबंदी पर है। हिन्दू फासीवाद भी हर जगह जातिगत विभाजन और प्रतिद्वन्द्विता का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। ठीक उस समय जहां हर वयस्क व्यक्ति को नागरिक की तरह व्यवहार करना चाहिए यदि वह किसी खास जाति के सदस्य की तरह व्यवहार करने लगता है तो इसका श्रेय किसको जाना चाहिए? इसका श्रेय आज की पूंजीवादी पार्टियों और नेताओं के साथ-साथ नेहरू-अम्बेडकर को भी जाना चाहिए जिन्होंने भारत में वर्ण-जाति के समूल नाश के लिए किसी भी उग्र कदम से इंकार किया।
और यह उग्र कदम क्या हो सकता था? वह था एक आमूलगामी भूमि सुधार। इस सुधार का वायदा कांग्रेस पार्टी ने आजादी की लड़ाई के दौरान किया था। आजादी के बाद वह इससे मुकर गयी। जमीनें पुराने मालिकों के हाथों में बनी रहीं। आर्थिक आधार में बिना किसी उग्र परिवर्तन के जाति व्यवस्था के मामले में भी कोई उग्र परिवर्तन नहीं हो सकता था। यहां भी धीमा-धीमा क्रमिक क्षरण ही हो सकता था। इतना ही नहीं, इस क्रमिक क्षरण से उपजी जातिगत गोलबंदी अन्य परिणाम पैदा कर सकती थी। नागरिकता बोध के बदले जातिगत बोध इनमें से एक है।
थोड़ा रोने-धोने और शिकवे-शिकायत के अलावा आज पूंजीपति वर्ग को इस सबसे ज्यादा परेशानी नहीं है। बल्कि जातिगत और धार्मिक बोध उसकी व्यवस्था की रक्षा के लिए सहायक हैं क्योंकि वे वर्गीय लामबंदी का रास्ता रोकते हैं। पूंजीपति वर्ग और उसके नुमाइंदे ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ के आदर्शों को कब का भूल चुके हैं क्योंकि वे जानते हैं कि ये आदर्श अब उनके खिलाफ जाते हैं। ये आदर्श मजदूर-मेहनतकश जनता को निजी सम्पत्ति की पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ धकेलते हैं।
मजदूर-मेहनतकश जनता के लिए भारतीय गणतंत्र के पचहत्तर साल होने पर जश्न मनाने जैसा कुछ भी नहीं है। यदि कुछ है तो इससे पार जाने का संकल्प लेने का क्योंकि वास्तविक ‘स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व’ तो निजी सम्पत्ति की व्यवस्था के खात्मे से ही संभव है।
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