
26 जनवरी के दिन भारत की राजधानी नई दिल्ली में भारतीय गणतंत्र की सालगिरह का जश्न का नजारा अब इतना औपचारिक और रस्मी हो चुका है कि उसके बारे में सरकारी मीडिया को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई एक अक्षर भी दिल से कहना चाहे। भारतीय फौज की टुकडि़यों द्वारा आधुनिक हथियारों के प्रदर्शन में शायद ही किसी की कोई दिलचस्पी होती है। ऐसा लगता है मानो सब कुछ दिखावटी, रस्मी और यहां तक कि इतना थका हुआ हो गया है कि शायद मजबूरी न हो तो उसके भागीदार भी उसमें शामिल न हों। सवाल ये है कि क्यों आमजनों की दिलचस्पी गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय समारोह में नहीं रह गयी है? क्यों कोई मजदूर, कोई किसान, कोई नौजवान, कोई आदिवासी इस दिन अपने भीतर से गर्व, उत्साह का संचार होता हुआ नहीं पाता है? क्यों उसे इस समय बेहद परायापन लगता है? क्यों उसे भारत के गणतंत्र में खुशी का एहसास नहीं होता है?<br />
इन प्रश्नों की गहराई में हम जैसे ही उतरते हैं तो हम पाते हैं कि भारत के गणतंत्र में उसके जन्म से लेकर आज तक भारत के मजदूरों, किसानों, उत्पीडि़त तबकों-समूहों की वास्तव में कोई भूमिका ही नहीं रही है। न तो उसके संविधान बनाने में न उसके बाद के विकास में। न तो उसकी नीतियों में और न ही नीतियों के क्रियान्वयन में।<br />
भारत के संविधान के निर्माण की प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका निभाने वाली संविधान सभा का निर्वाचन भारत की जनता ने नहीं किया था। सार्विक मताधिकार जनता को संविधान के अंगीकार करने के बाद ही मिला। संविधान की अंर्तवस्तु ब्रिटिश काल के काले औपनिवेशिक कानूनों से ही निर्मित है। संविधान सभा के सभी माननीय सदस्य भारत के उच्च वर्गों के सदस्य रहे हैं। पूंजीपति, सामंत, जमींदार, राजा-महाराजाओं आदि के प्रभुत्व वाली संविधान सभा में भारत की आजादी की लड़ाई के मुख्य सिपाही मजदूर, किसान, सैनिक, नौजवानों का कोई प्रतिनिधि नाम के लिए भी नहीं था। उत्पीडि़त जन, स्त्रियां, आदिवासी, दलित आदि के हितों, आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति भारतीय संविधान में कहां से और कैसे आती जब वे वहां थे ही नहीं। <br />
औपनिवेशिक शासकों से जब सत्ता का हस्तातंरण नये शासकों पूंजीपति व भूस्वामी वर्ग को हुआ तो उसने भारत की आजादी की लड़ाई से ही नहीं बल्कि अपने वर्ग बन्धुओं के अन्य देशों में कायम शासन से यह सीख ले ली थी कि कैसा संविधान और कैसा गणतंत्र बनाना है। ब्रिटेन, अमेरिका, स्वीडन आदि देशों के संविधान से जो चीज मूलतः ली गयी थी, वह थी उनकी पूंजीवादी आत्मा। पूंजीवादी आत्मा से ओत-प्रोत भारतीय संविधान और भारतीय गणतंत्र की कुछ मजबूरियां थीं, जो उसके जन्म के समय की परिस्थितियों के कारण थीं। भारत की जनता की मुक्ति की आकांक्षा और उसके नये शासन के बारे में अपनत्व का भ्रम साथ-साथ थे। भारत में मजदूर वर्ग के नेतृत्व में क्रांति की सम्भावना के साथ-साथ उस वक्त उभरता हुआ समाजवादी खेमा भारत के शासकों को बहुत डरा रहा था। चीन की सीमायें भारत से लगी हुयी थीं। तो सोवियत संघ दूसरे विश्व युद्ध में मिले जख्मों को धो चुका था। ऐसी देश-काल परिस्थिति में भारतीय संविधान में, तत्कालीन प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं के भाषणों में कुछ वामपंथी लफ्फाजी का मिल जाना स्वाभाविक है। वामपंथी लफ्फाजी का दौर इंदिरा गांधी के शासनकाल तक चलता रहा। नब्बे के दशक का आगाज एक तरह से वामपंथी लफ्फाजी के खात्मे के साथ हुआ। आज के भारत के शासक खासकर राजनेता वामपंथी लफ्फाजी के बजाए ज्यादा निर्लज्ज ढंग से अपने हितों को पूरे देश के हितों के रूप में प्रचारित करते हैं। पहले वे जनता के हितों का लबादा ओढ़ते थे अब वे ऐसा अक्सर नहीं करते हैं।<br />
भारतीय गणतंत्र का यह चरित्र ही उसे वह शरीर-आत्मा प्रदान कर देता है कि उसकी अभिव्यक्तियां कभी मजदूर-किसानों के आन्दोलन के ऊपर लाठी-गोली चलाने में होती हैं तो कभी कश्मीरियों, मणिपुरियों, नगाओं की मुक्ति की आकांक्षा को कुचलने में। भारत के शोषित-उत्पीडि़त जन भारतीय गणतंत्र से ऐसे में कैसे अपनापन महसूस कर सकते हैं? कैसे वे इसकी सालगिरह पर गौरव, उत्साह और खुशी की अनुभूति पा सकते हैं।<br />
भारतीय गणतंत्र अपनी उम्र बढ़ने के साथ भारत की मेहनतकश जनता के सामने अपने प्रतिक्रियावादी चेहरे को दिखलाता जा रहा है। जो बात आज से साठ साल पहले उन चन्द लोगों की होती थी कि यह एक ऐसा पूंजीवादी तंत्र है जो गण पर हावी है, आज आमजनों की चेतना का हिस्सा बनती जा रही है। पूंजीवादी आत्मा वाला भारतीय गणतंत्र अपनी उम्र पूरी होने की ओर बढ़ रहा है।<br />
भारतीय जनता को परजीवी शासकों और उसके तंत्र से छुटकारा चाहिए। उसे एक ऐसा गणतंत्र चाहिए जो उसका अपना हो। उसे वह अपना कह सके। उसकी हर चीज में उसकी भागीदारी हो। उसकी हर सांस में उसे अपनी सांस महसूस होती हो।<br />
भारत के मजदूरों, किसानों, शोषित-उत्पीडि़त जनों के हितों, आकांक्षाओं को स्वर एक समाजवादी गणतंत्र ही दे सकता है। समाजवादी गणतंत्र का निर्माण पूंजीवादी गणतंत्र के भीतर से नहीं हो सकता है। वह चंद प्रस्तावों के संसद में पारित कर देने या इंदिरा गांधी की तरह संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी शब्द घुसेड़ देने से भी नहीं हो सकता है।<br />
समाजवादी गणतंत्र की स्थापना का रास्ता वर्तमान शोषण-उत्पीड़न पर आधारित व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अथवा इंकलाब के जरिये ही हो सकता है। इंकलाब का रास्ता आसान नहीं है। इंकलाब के पहले के अनुभव भारत के मजदूरों, किसानों का पथ अवलोकित कर सकते हैं परन्तु किसी देश के इंकलाब की राह की पुनरावृत्ति या उसकी नकल नहीं हो सकता है। भारत का इंकलाब भारत की जमीन से पैदा होकर भारत की मिट्टी की खुशबू लिए हुआ होगा। भारत का समाजवादी गणतंत्र पहले के समाजवादी गणतंत्रों से अपने लिए जरूरी सबक निकालेगा और वह उन भूलों-चूकों से बचेगा जो उसके पहले के प्रयोगों में हो चुकी हैं।<br />
भारतीय पूंजीवादी गणतंत्र के समारोह में चकाचैंध पैदा करने के लिए भारत का शासक वर्ग जितना भी प्रयास करे देर-सबेर भारत की जनता उसे माकूल जबाव देगी।