तुम्हारे झूठे ख्वाबों की कीमत हम क्यों चुकायें

दुनिया में गाहे-बगाहे इस बात पर चर्चा चलती रहती है कि क्या भारत भविष्य में एक महाशक्ति (सुपर पावर) बन सकता है। क्या भारत चीन की तरह उभर सकता है। और अक्सर ही इसका जवाब ‘‘न
दुनिया में गाहे-बगाहे इस बात पर चर्चा चलती रहती है कि क्या भारत भविष्य में एक महाशक्ति (सुपर पावर) बन सकता है। क्या भारत चीन की तरह उभर सकता है। और अक्सर ही इसका जवाब ‘‘न
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के शपथ ग्रहण समारोह में जब दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी एलन मस्क ने नाजी अभिवादन किया था तब ही यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि अब ये नये नाज
काफी ना-नुकुर और षड्यंत्रकारी हील-हवाली के बाद इजरायल के नाजी जियनवादी क्रूर शासक, हमास के साथ ‘युद्ध विराम’ के लिए राजी हुए। और अंततः 19 जनवरी को युद्ध विराम समझौता लागू
‘एक देश-एक चुनाव’ हिन्दू फासीवादियों के अलावा इनके आका अडाणी-अम्बानी-टाटा जैसी एकाधिकारी घरानों की भी चाहत है। समय-समय पर होने वाले चुनाव इन्हें अपनी लूट में बाधा दिखाई देते हैं। अगर सरकार गिरती, बनती-बिगड़ती है तो इनका गणित गड़बड़ा जाता है। इन्हें नयी सौदेबाजियां करनी पड़ती हैं। जिस ‘‘विकास’’ का हवाला मोदी एण्ड कम्पनी तथा एकाधिकारी घरानों का पालतू मीडिया रात-दिन देता है। वह क्या है? वह भारत के प्राकृतिक संसाधनों की लूट के साथ भारत के मजदूरों-किसानों का निर्मम शोषण है।
चुनावी साल बीतने के बाद भारत लगभग वहीं खड़ा है जहां वह पिछले वर्ष खड़ा था। मणिपुर जलता रहा और हिन्दू फासीवादियों ने पूरे देश में अलग-अलग मुद्दों के जरिये देश में मुसलमानों के प्रति घृणा, वैमनस्य की आग को भड़काने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इस सच्चाई के बावजूद कि आम चुनाव में हिन्दू फासीवादियों को जीत बहुत कठिनाई से मिली है उन्होंने अपने फासीवादी कुकृत्यों को ही अपनी जीत का मूल सूत्र बनाया हुआ है। योगी, हिमंत विस्वा सरमा जैसे कई-कई छोटे-छोटे मोदी अपने राजनैतिक कैरियर को उसी लाइन पर बढ़ा रहे हैं जिस पर चलकर मोदी सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे।
मोदी साहब वस्तुतः जो चाहते हैं वह यह कि कोई भी आम लोगों के बारे में बात न करें। न कोई उनकी कोई मांग उठाये। क्योंकि वे ही सबसे बड़े गरीब नवाज हैं। उनके शब्दों में, ‘उन्होंने गरीबी देखी है’, ‘बचपन में चाय बेची है’, वगैरह-वगैरह। यहां मोदी साहब अपने आपको एक ऐसे व्यक्ति और अपने शासन को ऐसे शासन के रूप में पेश करते हैं जहां वे स्वयं गरीबों के सबसे बड़़े रहनुमा हैं और उनके शासन में हर गरीब के आंसू पोंछे जा चुके हैं। गरीबी, बेरोजगार, भुखमरी, असमानता, महंगाई यानी गरीबों की हर समस्या का या तो अंत कर दिया गया है या बस अंत होने ही वाला है।
जब दुनिया में कहीं समाजवादी राज्य नहीं है; जब दुनिया भर में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन टूट-फूट बिखराव का शिकार है; जब मजदूर वर्ग क्रांति अथवा समाजवाद की ओर कोई हल्का सा झुकाव भी नहीं दिखा रहा है, तब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प और भारत में मोदी विपक्षियों पर समाजवाद या नक्सलवाद का आरोप क्यों लगा रहे हैं। समाजवाद, कम्युनिज्म में ऐसा क्या है जो इनका ‘‘भूत’’ पूंजीपति वर्ग को सताता रहता है। इनमें से हर पार्टी को दूसरी पार्टी या हर नेता को दूसरे नेता की हकीकत, जन्म कुण्डली का अच्छे से पता है फिर ये आरोप-प्रत्यारोप क्यों?
हमारे देश में किसी अन्य चीज में दिलचस्पी हो या न हो परंतु चुनाव में सबकी दिलचस्पी रहती है। भले ही दो राज्यों के विधानसभा के चुनाव थे परंतु इन चुनाव में दिलचस्पी देशव्यापी
राजनीति के प्रति घृणा मजदूरों-मेहनतकशों में आम है। हर चुनाव में करीब-करीब एक तिहाई से एक चौथाई आबादी ऐसी है जो कभी वोट डालने ही नहीं जाती है। और कभी-कभी तो यह संख्या आधी तक हो जाती है। वोट न डालने वालों और चुने गये लोगों के खिलाफ वोट डालने वालों की संख्या को आपस में जोड़ दिया जाये तो यह बात सामने आयेगी कि चुनाव जीता हुआ व्यक्ति आबादी की बहुसंख्या का नहीं बल्कि एक बेहद छोटी अल्पसंख्या का प्रतिनिधि है। और यही बात मौजूदा सरकार पर भी लागू होती है।
इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है।
1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।
असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता।
इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।
आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।