नूरा-कुश्ती में कौन जीता?

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आपातकाल के ठीक पहले अमृत नाहटा ने एक फिल्म बनायी थी- ‘किस्सा कुर्सी का’। इस फिल्म को सेंसर बोर्ड द्वारा अनुमति नहीं मिली। कहा जाता है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने इस फिल्म के सभी प्रिन्ट जला डाले थे। आपातकाल के बाद इस फिल्म को दोबारा बना कर 1978 में दिखाया गया।

फिल्म इंदिरा गांधी के शासन का विद्रूप है। इसके एक दृश्य में भारत और पाकिस्तान दोनों के राष्ट्राध्यक्ष मिलते हैं और बात करते हैं कि चूंकि दोनों देशों की अपनी जनता उनसे नाराज है, इसलिए उन्हें एक युद्ध लड़ लेना चाहिए। युद्ध से दोनों देशों की जनता अपनी-अपनी सरकार के पीछे गोलबंद हो जायेगी।

किस्सा कुर्सी का’ फिल्म में भारत और पाकिस्तान संबंधों का यह एकदम विद्रूप चित्रण है पर हालिया भारत-पाकिस्तान सैनिक झड़प पर काफी सटीक बैठता है। चार दिन की सैनिक झड़प के बाद अचानक दोनों देशों ने युद्ध विराम घोषित कर दिया। उसमें भी तुर्रा यह कि युद्ध विराम की सबसे पहले जानकारी अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दी जिन्होंने कहा कि सारी रात बात कर उन्होंने भारत-पाक को युद्ध विराम के लिए राजी किया।

इस युद्ध विराम से सबसे ज्यादा मोदी समर्थक दुःखी और नाराज हुए और उन्होंने इसका इजहार भी किया। और हों भी क्यों न! पिछले कई सालों से मोदी उन्हें बता रहे हैं कि पाकिस्तान का अंत एकदम करीब है। इस बार मोदी समर्थकों को लगा कि वह घड़ी आ पहुंची है। मोदी समर्थक टी वी चैनलों ने तो 9 मई की रात को इसकी एक तरह से घोषणा ही कर दी थी। अब इस तरह से युद्ध विराम होना उनके लिए बहुत धक्का था। इस धक्के का अहसास भाजपा नेताओं को भी था, इसलिए उन्होंने भी इस पर चुप्पी साध ली। इन चुप्पी साधे लोगों में मोदी समेत भाजपा के सारे बड़बोले नेता शामिल हैं।

इस तरह से युद्ध विराम घोषित होते ही उदारवादियों और वाम-उदारवादियों की चांदी हो गयी। चार दिन तक सरकार के सुर में हुंआ-हुंआ करने के बाद उन्हें लगा कि अब मोदी सरकार को घेरा जा सकता है। वे मोदी सरकार से सवाल पूछने लगे वह भी कुछ इस अंदाज में मानो उन्हें यह युद्ध विराम जरा भी रास न आ रहा हो। वे हिन्दू फासीवादियों की तरह ही इस झड़प को उसके ‘अंजाम’ तक पहुंचाने को बेताब दिखे।

जंग के प्यासे ये सारे नहीं जानते थे या जानना नहीं चाहते थे कि इस भारत-पाक झड़प का यही अंजाम होना था। शुरू से ही भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक इस झड़प को एक सीमा से आगे न बढ़ाने को प्रतिबद्ध थे। और उन्होंने इसे छिपाया भी नहीं। वे औपचारिक तौर पर यही कह रहे थे। पर उनके समर्थक, खासकर मोदी समर्थक इसे मानने को तैयार नहीं थे। वे सोचते थे कि ये बातें केवल कहने की हैं। असल में तो मोदी सरकार पाकिस्तान को सबक सिखा कर रहेगी, भले ही वह उसे तबाह न कर पाये।

इस समय भारत और पाकिस्तान के दोनों के शासक खासे संकट में हैं। दोनों ही अपनी जनता की नाराजगी झेल रहे हैं। दोनों के लिए सत्ता में बने रहना मुश्किल साबित हो रहा है। ऐसे में अपनी जनता की नाराजगी को कम करने का यह एक आजमाया हुआ नुस्खा है। पहलगाम आतंकी हमले ने दोनों सरकारों को यह मौका दे दिया। यह हमला चाहे जिसने किया हो या करवाया हो, पर दोनों सरकारों ने इसका भरपूर इस्तेमाल किया।

लेकिन क्या दूरगामी तौर पर प्रभावी होगा? क्या शासकों को इससे मिली राहत दूरगामी होगी? ऐसा नहीं लगता।

जहां तक भारत की बात है, युद्ध विराम की घोषणा होते ही यह स्पष्ट होने लगा कि 22 अप्रैल से 10 मई तक की सरकार की सारी मेहनत पर पानी फिर गया है और उल्टा सिर पर ओले पड़ने लगे हैं। विपक्षी तो सवाल उठा ही रहे हैं, स्वयं सरकार समर्थक भी उनसे नाराज हैं। सरकार ने उनकी उम्मीदों को आसमान तक पहुंचा कर फिर उन्हें जमीन पर ला पटका है।

समय के साथ इसका और ज्यादा व्यापक असर होगा। धीमे-धीमे यह कटु सच्चाई लोगों पर उजागर होगी कि सैनिक झड़प में पाकिस्तान भारत की बराबरी का साबित हुआ है जबकि आबादी, क्षेत्रफल और अर्थव्यवस्था हर लिहाज से वह भारत से पांच-सात गुना कम है। यदि पाकिस्तान भारत से उन्नीस भी रहा तो यह बहुत बड़ी बात है। इसका मतलब यह है कि भारत पाकिस्तान से जंग नहीं जीत सकता। दोनों देशों द्वारा 1998 में परमाणु बम विस्फोट के बाद इस ब्रहमास्त्र के मामले में दोनों पहले ही बराबरी पर आ गये थे। अब परंपरागत हथियारों के मामले में दोनों की लगभग बराबरी दीखती है। इसका यह भी मतलब होगा कि भारत भविष्य में आसानी से पाकिस्तान को अपनी धौंस में नहीं ले सकता। यही नहीं, यह भारत को चीन के बरक्स और नीचे की स्थिति में धकेल देता है।

जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, पाकिस्तानी शासक हाल-फिलहाल जश्न मना सकते हैं कि उन्होंने भारत को मुंहतोड़ जवाब दिया। वे मना भी रहे हैं। लेकिन यह उन्हें उनकी अंदरूनी समस्याओं से निजात नहीं दिला सकता। यही नहीं, भारत से सैनिक बराबरी की उनकी कोशिश उनकी जर्जर अर्थव्यवस्था पर और दबाव डालेगी। इससे निपटने की सरकार की कोशिश आम जनता का जीवन और दूभर करेगी और यह अपनी बारी में समाज में पहले से मौजूद विग्रहों को और बढ़ायेगी। पाकिस्तानी शासक पायेंगे कि उनका जश्न बेमौके का तथा काफी महंगा था।

भारत और पाकिस्तान के शासकों की इस नूरा कुश्ती का अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने भरपूर फायदा उठाया। वे पंच की भूमिका में आ गये। वे दोनों देशों से इसकी क्या कीमत वसूलेंगे यह भविष्य ही बतायेगा। वैसे ट्रंप ने अपनी ओर से व्यापार सौदे की बात कर दी है।

जहां तक दोनों देशों की मजदूर-मेहनतकश जनता की बात है, दोनों देशों के शासकों द्वारा नूरा कुश्ती जरा भी उसके हित में नहीं है। खासकर इसलिए भी कि चीजें कभी भी हाथ से निकल सकती हैं और दोनों देश भीषण युद्ध में उलझ सकते हैं, जो परमाणु युद्ध तक भी जा सकता है। इसीलिए दोनों देशों की मजदूर-मेहनतकश जनता को अपनी-अपनी सरकार द्वारा फैलाये जा रहे युद्ध उन्माद के चक्कर में न पड़कर एक-दूसरे की ओर भाईचारे का हाथ बढ़ाना चाहिए। उनकी आपसी भाईचारे की कोशिश शासकों द्वारा फैलाये जा रहे युद्ध उन्माद का सबसे प्रभावी जवाब होगा।

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