चीन बनाम भारत : पूंजीवादी विकास

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काफी दिनों तक कबूतर की तरह आंख मूंदने के बाद अंततः भारत के पूंजीवादी हलकों में चीन के विकास को लेकर बहस शुरू हो गई है और वह भी इस कोण से कि भारत में चीन की तरह विकास क्यों नहीं हो रहा है। इसके पहले पिछले साठ-पैंसठ सालों से तो बस चीन को गालियां ही दी जाती रही थीं। चीन का जिक्र आते ही भारतीय शासकों और उनके समर्थकों के मुंह से झाग निकलने लगता था पर अब वे चीन के बारे में वह सवाल अपने आप से पूछने पर मजबूर हुए हैं जो उन्हें पचास साल पहले ही पूछना चाहिए था। आज जब चीन भारत से काफी आगे निकल चुका है और दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत संयुक्त राज्य अमेरिका को टक्कर और चुनौती देने लगा है तब आंख मूंदे कबूतर को भी आंख खोलनी पड़ रही है। 
    
एक लम्बे समय तक भारत ही नहीं दुनियाभर के पूंजीवादी दायरों में चीन के बदले भारत के विकास को वरीयता दी जाती रही। इसका सीधा कारण विचारधारात्मक था। पूंजीवादी विचारक एक समाजवादी देश के विकास के बारे में कुछ अच्छा नहीं कह सकते थे। उनकी ओर से लगातार कहा जाता था कि भले ही भारत के विकास की गति धीमी हो पर इसे चीनी विकास के ऊपर तरजीह दी जानी चाहिए क्योंकि यह जनतांत्रिक है। इसमें विकास डंडे के बल पर नहीं हो रहा है। पर यह भी कहा जाता था कि अभी भले ही चीनी विकास तेज हो पर वह लम्बे समय तक नहीं चल सकता। वह जल्दी ही ठहराव का शिकार हो जायेगा। इसके बरक्स भारत तरक्की करता जायेगा। यह सब कहने का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं था पर पूंजीवादी लोगों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वे एक समाजवादी देश के विकास की गति की तारीफ करें और उसे एक पूंजीवादी देश के ऊपर वरीयता दें। 
    
पर अब जब चीन लगातार विकास करते हुए साम्राज्यवादी देशों की पातों में आ खड़ा हुआ है और दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत को चुनौती दे रहा है तो पूंजीवादी प्रचारकों को भी हकीकत को स्वीकार करना पड़ रहा है। पर वे यहां भी चालाकी बरत रहे हैं। वे अभी भी चीन के विकास के समाजवादी काल (1949 से 1976) को खराब से खराब ढंग से चित्रित करते हैं और चीनी विकास का सारा श्रेय उसके पूंजीवादी काल (यानी 1976 से अब तक) को देते हैं। वे अभी भी यही कहते हैं कि यदि चीन समाजवादी रास्ते पर चलता रहा होता तो वहां नहीं पहुंच पाता जहां वह है। लेकिन ऐसी बात करने वाले यह नहीं स्पष्ट कर पाते कि जिस भारत की पहले वे इतनी तारीफ करते थे वह क्यों पिछड़ गया? वह क्यों चीन की तरह तरक्की नहीं कर सका? 
    
यह सही है कि चीन अपने पूंजीवादी काल में काफी तेज गति से विकास करता रहा है। पर यह बात भी सही है कि समाजवादी काल में विकास की गति कोई कम तेज नहीं थी। इससे भी बड़ी बात यह है कि पूंजीवादी काल की तेज गति की नींव समाजवादी काल में ही डाली गई थी। इसके बिना बाद के काल में तेज विकास नहीं हो सकता था। और यहीं से भारत और चीन का बुनियादी फर्क स्पष्ट हो जाता है। यह स्पष्ट हो जाता है कि क्यों चीन लगातार आगे बढ़ता गया और भारत पिछड़ता गया? क्यों आज पचहत्तर साल बाद भारत एक पिछड़ा पूंजीवादी देश है और चीन एक साम्राज्यवादी देश बन गया है? क्यों आज भारत में पिछले दस साल से उधार की तकनीक से पहली बुलेट ट्रेन की चर्चा चल रही है जबकि चीन के सारे बड़े शहर बुलेट ट्रेन से जोड़े जा चुके हैं? 
    
भारत 1947 में आजाद हुआ और 1950 में सम्प्रभुता सम्पन्न गणराज्य घोषित हुआ। चीन में 1949 में क्रांति सम्पन्न हुई और ताइवान व हांगकांग को छोड़कर समूची मुख्य भूमि पर कम्युनिस्ट पार्टी का शासन कायम हुआ। यानी दोनों ही देशों में नये शासन की शुरुआत एक साथ हुई। दोनों ने एक साथ ही विकास की नई राह पर कदम बढ़ाये। 
    
पर एकदम शुरुआत से ही दोनों ने विकास के भिन्न रास्ते पकड़े। यह भिन्नता केवल समाजवादी रास्ते और पूंजीवादी रास्ते की नहीं थी। भारत के मामले में मसला भांग में धतूरा था। भारत का शासक वर्ग न केवल पूंजीवादी रास्ते पर चला बल्कि उसने वह भी नहीं किया जो एक बेहतर पूंजीवादी विकास के लिये जरूरी होता है। वह जो दक्षिण कोरिया में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के दबाव में किया गया। 
    
आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 
    
भारत के पूंजीपति वर्ग और उसकी शासक पार्टी कांग्रेस ने यह नहीं किया। इन्होंने पुराने सामंतों से समझौता कर लिया। उन्होंने जमीनें उन्हीं के पास रहने दीं और बस यह चाहा कि वे पूंजीवादी रास्ते पर चलें। ऐसा हुआ भी। 
    
पर उग्र भूमि सुधार के अभाव में न तो देहातों की भयंकर भुखमरी कम हो सकती थी, न किसानों की पुरानी जकड़न तेजी से खत्म हो सकती थी और न ही पुराने भूमि मालिकों को अन्य-अन्य तरीकों से शोषण करने से रोका जा सकता था। इन सबका सम्मिलित परिणाम यह निकलना था कि जो भी पूंजीवादी विकास होता उसकी गति बहुत धीमी होती। वही हुआ भी। भारत ‘हिन्दू विकास दर’ का शिकार रहा। 
    
बात केवल इतने तक सीमित नहीं थी। आजादी के बाद भारतीय शासकों ने क्रमशः आयात प्रतिस्थापन की नीति अपनाई यानी जो चीजें आयात की जाती थीं उन्हें क्रमशः भारत में ही बनाने की नीति। लेकिन यह तकनीक के आयात के जरिये किया गया। भारत में दूसरे या तीसरे दर्जे की मशीनें आयात की जाती रहीं- प्रधानतः पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों से। जो तकनीकी ज्ञान आयातित किया जाता था वह भी बहुत पिछड़ा होता था। 
    
भारत की सरकार तथा पूंजीपति वर्ग दोनों ने देश में विज्ञान-तकनीक के विकास पर कोई खास जोर नहीं दिया। विज्ञान के उच्च गुणवत्ता वाले संस्थान इक्का-दुक्का ही स्थापित हुए। इसी तरह उच्च गुणवत्ता के तकनीकी संस्थान भी गिने-चुने ही थे। इसमें भी बुरी बात यह हुई कि इनसे पढ़-लिख कर निकले युवा के लिये शोध और विकास के लिये देश में उपयुक्त माहौल का पूरी तरह अभाव था। परिणामस्वरूप ऐसे युवा भारी मात्रा में विकसित साम्राज्यवादी देशों में पलायन करते रहे। देश में हमेशा ही सरकार और पूंजीपति वर्ग दोनों की ओर से शोध व विकास पर अत्यन्त कम खर्च किया जाता रहा। 
    
चीन में इस सबका ठीक उल्टा किया गया। एक आमूल चूल क्रांति ने देश के पुराने आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक संबंधों का सफाया कर तेज विकास की जमीन तैयार कर दी। नयी समाजवादी सरकार ने देश में विज्ञान और तकनीक के विकास पर बहुत जोर दिया। पूरे समाजवादी काल में उन लोगों का काफी विरोध हुआ था जो विदेशों से तकनीक और मशीनों का आयात कर विकास करने के पक्षधर थे। इसके बदले आत्मनिर्भरता पर जोर रहा। पश्चिमी पूंजीवादी विचारकों द्वारा चीन के समाजवादी विकास को कोसने का एक कारण यह भी था कि समाजवादी चीन साम्राज्यवाद पर निर्भर होने को तैयार नहीं था। 
    
इन सब कारणों से चीन भारत से क्रमशः आगे निकलता चला गया। 1950 तक औद्योगिक विकास के क्षेत्र में चीन भारत से पिछड़ा था। पर 1960 तक यह स्पष्ट हो गया कि चीन तेजी से भारत से आगे निकल रहा है। पूंजीवादी प्रचारकों ने इसे नकारने की कोशिश की पर उन्हें अंततः चुप्पी साधनी पड़ी। और जब डेंग स्याओपिंग के नेतृत्व में चीन पूंजीवादी विकास के रास्ते पर चल पड़ा तो उन्होंने इसका सारा श्रेय पूंजीवादी रास्ते को दिया। वे बुलन्द होती इमारत का गुणगान करते रहे पर नींव को नकारकर। 
    
भारत के पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार ने इस सबसे कोई सबक नहीं सीखा। वह अपने पुराने ढर्रे पर चलती रही। हां, यह जरूर हुआ कि तीन-चार दशक की लूट-पाट से जब भारत का पूंजीपति वर्ग पर्याप्त फल-फूल गया तो उसकी पूंंजी के और ज्यादा प्रसार के लिये भारत सरकार ने अपनी आयात प्रतिस्थापन की नीति छोड़ दी। उसने देश के दरवाजे विदेशी पूंजी के लिये खोल दिये। इसके लिये जो भांति-भांति के तर्क दिये गये उसमें से एक यह भी था कि विदेशी पूंजी के साथ आधुनिक तकनीक भी देश में आयेगी और देश का तेज विकास होगा। 
    
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। देश में जो विदेशी पूंजी आयी उसका अधिकांश हिस्सा शेयर बाजार में या फिर पहले से मौजूद संस्थानों को खरीदने में लगा। विदेशी पूंजी से जो थोड़े से उद्योग लगे भी उनमें पुरानी तकनीक थी। उसे भारत का बाजार चाहिए था और यह बाजार अत्यंत सीमित था। 
    
दूसरी ओर सरकार और पूंजीपति वर्ग दोनों का विज्ञान और तकनीक के प्रति, शोध और विकास के प्रति रुख पहले जैसा रहा। इन पर होने वाला खर्च पहले की तरह अत्यन्त थोड़ा बना रहा। प्रतिभा पलायन पहले की तरह जारी रहा। हां, नयी नीतियों के तहत भारत के पूंजीपतियों को खूब लूट-पाट करने का मौका मिला। उनकी पूंजी दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती रही। 
    
उदारीकरण के दो दशक गुजरते-गुजरते भारत के पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार ने मानो अपनी नियति को स्वीकार कर लिया। अब यह कहा जाने लगा कि चीन दुनिया का वर्कशाप बन गया है तो भारत को दुनिया का दफ्तर बन जाना चाहिए। इसका मतलब यह था कि भारत चीन की तरह औद्योगिक विकास नहीं कर सकता। इसलिये उसे दुनिया भर का हिसाब-किताब रखने वाला देश बन जाना चाहिए। कुछ सालों तक इस दिशा में अच्छा व्यवसाय होने के कारण इस तरह की बात की जा सकती थी। 
    
पर अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता की तकनीक के विकास के साथ हिसाब-किताब वाले व्यवसाय पर ग्रहण लगना शुरू हो गया है। दूसरी ओर चीन की विशाल तकनीकी प्रगति और दुनियाभर के औद्योगिक उत्पादन पर उसकी धाक ने भारतीय शासकों को मजबूर कर दिया है कि वे उस यथार्थ से टकरायें जिससे वे भांति-भांति से नजरें चुराते रहे हैं। 
    
पर इस बात की सम्भावना कम ही है कि वर्तमान चिल्ल-पों का कोई सार्थक परिणाम निकलेगा। इसका सीधा सा कारण यह है कि इस समय भारत की सत्ता में जो लोग हावी हैं यानी हिन्दू फासीवादी, वे अपने चरित्र से विज्ञान विरोधी हैं। ये फासीवादी तकनीक तो चाहते हैं पर बिना विज्ञान के। इनके लिये सारा ज्ञान तो वेदों में छिपा है। इस दृष्टिकोण से देश में शोध-विकास के उच्च गुणवत्ता वाले संस्थान नहीं खड़े किये जा सकते। जहां गौ-मूत्र पर शोध हो रहा हो वहां आधुनिक बायो तकनीक पर शोध नहीं हो सकता। जहां भूत-प्रेत विद्या पढ़ी-पढ़ाई जा रही हो, उस देश का भगवान ही मालिक है। 
    
भारत का पूंजीपति वर्ग चीन के पूंजीवादी विकास को शायद नजरअंदाज भी कर देता पर उसके दुर्भाग्य से चीन भारत से सटा हुआ है। चीन और भारत की सीमा रेखा करीब साढ़े तीन हजार किलोमीटर लम्बी है। ऐसे में लगातार तेज गति से आगे बढ़ते साम्राज्यवादी चीन के प्रति चिन्तित हो उठना भारत के पूंजीपति वर्ग के लिये स्वाभाविक है। पर भारत का पूंजीपति वर्ग इसका समाधान अमरीकी साम्राज्यावादियों से सटने में देखता है। पिछले तीन दशकों में भारत लगातार अमरीकी साम्राज्यवादियों से सटता गया है जो स्वयं दुनिया भर में अपनी पहले से कायम दादागिरी को चीन से मिलने वाली सम्भावित चुनौतियों के मद्देनजर उसे घेरने में लगे हुए हैं। इस तरह चीन से भयभीत भारत के शासक अनचाहे ही सही अमरीकी साम्राज्यवादियों के हाथों का खिलौना बनते जा रहे हैं। यह भारत-चीन सम्बन्धों को अनावश्यक रूप से तनावपूर्ण बना रहा है। यह अलग बात है कि अमरीकी साम्राज्यवादी ऐसा ही चाहते हैं। 
    
रही बात आज भारत में सत्तानशीन हिन्दू फासीवादियों की तो उनकी भारत को साम्राज्यवादी बनाने की महत्वाकांक्षायें हैं। वे अफगानिस्तान से लेकर इंडोनेशिया तक और नेपाल से लेकर श्रीलंका तक फैला अखण्ड भारत चाहते हैं। वे चाहते हैं कि दुनिया भर में भारत की तूती बोले। पर यह विक्षिप्तों का प्रलाप है। हिन्दू फासीवादी जिस मध्ययुगीन सोच के हिसाब से देश को चलाना चाहते हैं वह देश को विकास के रास्ते पर नहीं बल्कि ठहराव, बिखराव और विध्वंस के रास्ते पर ले जायेगा। उनके रहते देश विकसित भारत नहीं बल्कि विरूपित भारत बन कर रह जायेगा।

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