
रूस की सेनायें यूक्रेन में लगातार हमला करते हुए आगे बढ़ रही हैं। वे कुर्स्क और बोल्दगरोया में यूक्रेनी सेना को मुख्यतः पीछे धकेल चुकी हैं। अब वे यूक्रेन के सुमी, खारकोव और ओडेसा पर हमले कर रही हैं। इसके जवाब में यूक्रेनी सेना रूस के तेल संयंत्रों पर और कुछ शहरी इलाकों में ड्रोन से हमला करके कुछ नुकसान पहुंचा रही हैं।
इसी प्रकार, गाजा पट्टी में इजरायली हवाई हमले जारी हैं। उसने राफा की इमारतों को धूल धूसरित कर दिया है। वे बच्चों और महिलाओं सहित नागरिकों का नरसंहार करना जारी रखे हुए हैं। लेबनान में उसके हवाई हमले बदस्तूर जारी हैं। लेबनान की सरकार इन हमलों का बातों में विरोध के अलावा कुछ नहीं कर रही है। हिजबुल्ला अभी तक मौन है। शायद वह लेबनान सरकार को इजरायली हमलों और लेबनान के कुछ इलाकों में कब्जे पर कार्यवाही करने का समय दे रहा है? इधर सीरिया को बांटने में लगता है कि इजरायल और तुर्की के बीच रजामंदी होने वाली है।
इस बीच इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू अमरीका की यात्रा पर गये। ट्रम्प ने इजरायली प्रधानमंत्री की मौजूदगी में यह कहा कि अमरीका ईरान के साथ सीधी वार्ता करने जा रहा है। उन्होंने यह धमकी भी दी, यदि ईरान के साथ वार्ता में परमाणु हथियार न बनाने पर समझौता नहीं होता तो वे ईरान पर हमला कर देंगे। लेकिन इसके बाद उन्होंने कहा कि ईरान पर सीधे हमला इजरायल करेगा और अमरीका पीछे से उसकी मदद करेगा।
ट्रम्प की इन धमकियों का जवाब ईरान ने यह कह कर दिया कि वे धमकियों के समक्ष नहीं झुकेंगे और वे वार्ता बराबरी के स्तर पर करेंगे। दूसरा ईरान ने यह भी कहा कि अमरीका के साथ उनकी सीधी वार्ता नहीं हो रही है बल्कि यह ओमान के जरिये हो रही है। ईरान ने अरब देशों को भी चेतावनी देते हुए कहा कि यदि उनकी जमीन का इस्तेमाल अमरीका ने ईरान पर कब्जे के लिए किया तो उनका देश भी ईरान का शत्रु देश माना जायेगा और वे भी उनका स्वाभाविक लक्ष्य होंगे।
इस तरह हम देखते हैं कि एक युद्ध क्षेत्र रूस-यूक्रेन बना हुआ है और दूसरे जनसंहार के क्षेत्र पश्चिम एशिया में फिलिस्तीन और लेबनान बने हुए हैं। एक युद्ध क्षेत्र में अमरीका अपना हाथ खींच रहा है। उसने यूक्रेन में समझौता कराने की पहल की है। जबकि दूसरे क्षेत्र में वह नरसंहार को रोकने की कोई सार्थक कोशिश नहीं कर रहा है। बल्कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को निकाल बाहर करके किसी दूसरे देश या देशों में बसाने की बात अभी भी कर रहा है।
लेकिन ट्रम्प इस तथ्य से पूरी तरह से वाकिफ है कि अमरीकी साम्राज्यवाद का विश्व वर्चस्व पहले से कमजोर हुआ है, वे इसे फिर से अर्जित करने की कोशिश कर रहे हैं। सभी क्षेत्रों में लागू करने की कोशिश कर रहे हैं। इसे वे आर्थिक क्षेत्र में उसने बदले के तटकर के रूप में सभी देशों के सामने चुनौती पेश कर दी है। यूरोपीय संघ और चीन के अलावा तकरीबन सभी देशों ने अमरीकी निर्यात पर अपने यहां तटकर कम कर दिये हैं। ट्रम्प को ऐसा लगने लगा है कि उनका बदले वाला तटकर का मामला ज्यादा कारगर नहीं हो रहा है इसलिए उसे वे अब अधिकांश देशों के लिए 90 दिन तक टालने की घोषणा कर चुके हैं। लेकिन चीन के प्रति अपने तटकर को उसने 125 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वे चीन के साथ अपनी असली प्रतिद्वन्द्विता देख रहे हैं।
ट्रम्प राजनीतिक तौर पर रूस के साथ अपने चौतरफा रिश्तों को सुधारने की कोशिश में लगे हैं। इसके लिए वे जेलेन्स्की और यूरोपीय संघ और नाटो के अपने सहयोगियों का साथ छोड़ने की हद तक जा रहे हैं। ट्रम्प प्रशासन ने यह घोषणा की है कि वे पोलैण्ड से अपनी सेनायें हटा रहे हैं। यह रूस के लिए बड़ी राहत की बात है।
रूसी साम्राज्यवादियों को अपने रणनीतिक विस्तार का अच्छा अवसर मिला है। रूस यूक्रेन में मजबूत स्थिति में है। अमरीकी साम्राज्यवादियों के इस युद्ध से हट जाने से बाकी नाटो ऐसी स्थिति में अपने को नहीं पाता कि वह रूसी साम्राज्यवादियों के समक्ष बड़ी चुनौती पेश कर सके। नाटो और यूरोपीय संघ के देशों ने यूक्रेन को आर्थिक और सैनिक मदद देने की बातें की हैं। लेकिन 800 अरब यूरो की मदद करना उनके सामर्थ्य में है, इसमें संदेह है। जबकि यूरो देशों के बीच फूट पड़ी हुई है। यदि अमरीकी साम्राज्यवादी इस युद्ध से पूरे तौर पर हट जाते हैं, तो यूरोपीय संघ के देशों के बीच की इस मसले की कमजोर एकता और कमजोर हो जायेगी।
अमरीकी साम्राज्यवादी रूस के साथ समझौता इसलिए भी करना चाहते हैं ताकि वे ईरान की ताकत को पश्चिम-एशिया में कमजोर कर सकें। ईरान को परमाणु क्षमता से वंचित करने में वे रूस की मदद चाहते हैं। रूसी साम्राज्यवादियों को वे बदले में प्रतिबंधों से छूट तथा स्विफ्ट बैंकिंग प्रणाली में रूस की वापसी और अन्य सुविधायें दे सकते हैं।
एक तरफ वह रूस के जरिए ईरान को परमाणु क्षमता से वंचित करना चाहते हैं और दूसरी तरफ वे चीन के साथ रूस की दोस्ती को तोड़ना चाहते हैं।
अमरीकी साम्राज्यवादियों की इस चाल में क्या रूसी साम्राज्यवादी आ जायेंगे? रूसी साम्राज्यवादी अच्छी तरह से यह समझते हैं कि इस समय ईरान ही एकमात्र पश्चिम एशिया में देश है जिसके साथ उसके व्यापक रणनीतिक भागीदारी के सम्बन्ध हैं। अगर ईरान के साथ उसके रिश्ते कमजोर होते हैं तो पश्चिम एशिया में उसकी घुसपैठ के लिए फिलहाल अन्य कोई देश नहीं है। सीरिया पहले ही उनके हाथ से निकल चुका है सिर्फ दो सैनिक अड्डे ही उसके सीरिया में बचे हुए हैं। दूसरे, चीन, रूस और ईरान की नौसेनायें कई बार अपना युद्धाभ्यास कर चुकी हैं। इन तीन देशों का कई स्तरों पर रिश्ता बढ़ता गया है।
दरअसल, लम्बे समय में शंघाई सहकार संगठन, ब्रिक्स आदि संगठनों के माध्यम से रूस और चीन के, रूस और ईरान के तथा चीन और ईरान के आपसी रिश्ते और इनके ब्रिक्स के अन्य देशों के साथ रिश्ते विकसित हुए हैं, क्या अमरीकी साम्राज्यवादियों के पास रूसी साम्राज्यवादियों के लिए देने के लिए कुछ ऐसा है जो रूसी साम्राज्यवादी इन रिश्तों की कीमत पर अमरीकी साम्राज्यवादियों का कोई प्रलोभन स्वीकार कर सकते हैं?
यह एक ऐसी बात है जिसे रूसी साम्राज्यवादी अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ाकर ही स्वीकार करेंगे। यह बात अमरीकी साम्राज्यवादी भी समझ रहे हैं। लेकिन उनके सामने क्या रास्ता है?
यूरोपीय संघ अब अमरीकी साम्राज्यवादियों के हितों को बढ़ाने का साधन नहीं रह गया है। रूसी साम्राज्यवादियों ने उनके पूंजी निवेश के लिए भारी क्षेत्र देने का लालच दिया है। अब वे रूसी साम्राज्यवादियों को यूक्रेन के युद्धक्षेत्र में पराजित नहीं कर सकते।
इसलिए भलाई इसी में है कि चुपचाप पिछली गली से निकल लिया जाये। युद्ध में सीधी हार ज्यादा नुकसानदेह होगी, उससे ज्यादा प्रतिष्ठा गिरेगी।
जहां तक रूसी साम्राज्यवादियों की बात है, वे मध्य एशियाई देशों और पूर्व सोवियत संघ के देशों के साथ कई तरह के रणनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा सम्बन्धी सम्बन्ध मजबूत करते गये हैं। ये सारे देश रूस के साथ घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं। इनका अभी हाल ही में दुशाम्बे में सम्मेलन हुआ जिसमें इनकी एकजुटता की पुष्टि की गयी।
इधर, रूस, चीन और ईरान के बीच वार्तायें हुईं। इनमें भी ईरान की शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के विकास पर ईरान की स्वतंत्रता पर चर्चा हुई थी।
ऐसा नहीं लगता है कि रूस ईरान का साथ छोड़कर अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ कोई सांठगांठ करेगा। ट्रम्प तो यमन द्वारा लाल सागर में अमरीकी युद्धपोतों पर किये गये हमलों के लिए ईरान को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। लेकिन यह ट्रम्प द्वारा छेड़ा गया एक मनोवैज्ञानिक युद्ध है। इससे ट्रम्प ईरान को धमका रहा है। लेकिन यह धमकी और उलटी प्रतिक्रिया को जन्म दे रही है।
ऐसा लगता है कि दुनिया अमरीकी प्रभुत्व की छाया से बाहर निकलने की ओर है। अमरीकी वर्चस्व कमजोर हो रहा है। फिर भी अभी भी वह सबसे ताकतवर है। यह स्थिति कब तक रहेगी, कहा नहीं जा सकता।