डेविड डियोज की दो कविताएं

गिद्ध

उन दिनों
जब सभ्यता हमारे चेहरों पर लात मार रही थी
जब पवित्र जल हमारी सिकुड़ी हुई भौहों पर
तमाचे जड़ रहा था
गिद्ध अपने पंजों के साये में
बना रहे थे निगरानी के रक्तरंजित स्मारक
उस दौर में सड़कों के धातुई नरक में
एक तकलीफदेह हंसी थी
और ईसा मसीह के एकरस मंत्र-जाप में
डूब गयी थी बागानों से उठती चीख-पुकार
और कड़वी स्मृतियां जबरन लिये गये चुंबनों की
बंदूक की नोक पर तोड़े गये आश्वासनों/वायदों की
विदेशियों की, जो मनुष्य नहीं लगते थे
जिनके पास सारा किताबी ज्ञान था
लेकिन प्रेम न था
लेकिन हम जिनके हाथ धरती की कोख को उर्वर करते हैं
तुम्हारे अहंकार के गीतों के बावजूद
हमारे लिए उम्मीद
जैसे किसी किले के भीतर सुरक्षित थी
और स्वाजीलैण्ड की खदानों से
यूरोप के कारखानों तक
बसंत फिर से जन्म लेगा हमारे प्रसन्न कदमों के नीचे।

यकीन

जो हत्याएं करके मुटाते जाते हैं
और लाशों से मापते हैं अपने शासन के विभिन्न चरण
मैं उनसे कहता हूं कि दिन और लोग
कि सूर्य और तारे
गढ़ रहे हैं तमाम लोगों की लयबद्ध बिरादरी
मैं कहता हूं दिल और दिमाग
एक साथ तैनात है युद्ध के मोर्चे पर
और एक दिन ऐसा नहीं होता
जब कहीं न कहीं ग्रीष्म नहीं फूटता हो 
मैं कहता हूं कि दिलेर तूफान/झंझावात
कुचल देंगे दूसरों की सहनशीलता के सौदेबाजों को
और लोगों के समूहों से जुड़ा हुआ समय देखेगा
विजयी कारनामों का साकार होना।
(अनुवाद : मंगलेश डबराल 
साभार : ‘अफ्रीकी कविताए’ गार्गी प्रकाशन)

आलेख

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भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

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युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

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हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

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अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।