कहानी - विरासत

/kahaani-virasat

मानव समाज में संवेदनाओं का अपना अलग दर्जा है। स्तनधारी जीवों में, खुद को बाकी जीवों से अलग करने के बाद मनुष्य की संवेदनाओं ने ज्यादा आकार ग्रहण करना शुरू किया होगा। भोजन की जटिलता, जीवन की असुरक्षा ने मनुष्य को जिस सूत्र में बांधा होगा शायद अपनी बारी में उतना ही अधिकाधिक वह अपने कबीले के प्रति ज्यादा संवेदनशील होता चला गया होगा। कबीले की सामूहिकता में जीने वाला आदिमानव प्रकृति का दास था परन्तु आज का इंसान जिन अदृश्य शक्तियों का दास है वह प्राकृतिक नहीं हैं। मानव मन पर आज जिन अदृश्य शक्तियों का कब्जा है उसने मानव को अधिकाधिक निजता की तरफ ढकेल दिया है। जिन जगहों पर वह काम करता है उस उत्पादन की जटिलता, अराजकता, प्रतियोगिता के नियमों से अनजान यह अभागा मनुष्य कब दोस्त को दुश्मन समझ लेता है उसे खुद भी समझ नहीं आता।
    
लाला दस रुपए की सब्जी देना। खाने का पहला निवाला खाते ही विनोद को कल रात के झगड़े की याद हो आई। मशीनों पर काम करते समय दिमाग को और कुछ सोचने का समय नहीं मिलता लेकिन लंच टाइम में खाने का पहला निवाला खाते ही रात की स्मृतियां जीवित हो जाती हैं। अक्सर जब पत्नियां गुस्सा होती हैं तब उनके क्रोध की अभिव्यक्ति सुबह के खाने में बयां होती है। तेज नमक या तेज मिर्च, पनियल सी बेस्वाद सब्जी इस बात का संकेत होती है कि अभी भी श्रीमती जी नाराज हैं। क्रोध जो बाहर तो नहीं आ पाया परन्तु प्रतिरोध अभी जारी है।
    
बीती रात विनोद की पत्नी का रमेश की पत्नी से मामूली सी बात पर झगड़ा हो गया था। हुआ यूं था कि झाड़ू लगाते वक्त पड़ोस से कपड़ा उड़कर श्रीमती जी के सर पर गिर गया था। मामूली सी कहासुनी से बात बढ़ गई और जैसे ही विनोद ड्यूटी से घर पहुंचे बात फिर झगड़े पर बन आई। बात सुधरते नहीं बनी तो मियां ने अपनी नई नवेली की ही थोड़ी फटकार लगा दी जिस पर विरोधी पक्ष मजाक बनाकर हंसने लगा। अब बाहर का झगड़ा तो निपट गया परन्तु श्रीमती जी कोप भवन में बैठ गई और इसी के दंड स्वरूप आज बेस्वाद सब्जी से सामना करना पड़ा।
    
नई नई शादी हुई है। तीन छोटे देवर, सास-ससुर सब मिलाकर सात प्राणियों का कुनबा। जिनके खाना बनाने, साफ-सफाई की जिम्मेदारी अब श्रीमती जी की है। पतिदेव एक फैक्टरी में मजदूर हैं। अच्छा डील डाल, शहर में पक्का मकान देखकर ससुर जी ने रिश्ता पक्का कर दिया था। तीन कमरों के घर में अभी सिर्फ अन्दर से ही प्लास्टर हो पाया था। भारतीय समाज में अक्सर बड़ी बहू को बहुत से अधिकार मिल जाते हैं तो श्रीमती जी भी खुश हैं।        
विनोद के पड़ोसी रमेश भी उसी फैक्टरी में एक ही विभाग में काम करते हैं। पहले जब अलग-अलग मशीनों पर काम करते थे तब आपस में मित्र थे। जब से एक ही मशीन पर शिफ्ट में काम करने लगे तब से दिलों में दूरियां बनने लगीं। रमेश का उत्पादन हमेशा विनोद से ज्यादा रहता जिस कारण रमेश को सदैव शाबाशी मिलती वहीं विनोद के हिस्से में कामचोरी का लांछन आता। कंपनी के भीतर पैदा होने वाली प्रतियोगिता ने धीरे-धीरे पहले प्रेम भाव को नष्ट कर दिया और अंततः दो पड़ोसियों के रिश्ते को विषाक्त कर दिया।
    
फैक्टरी के भीतर की जटिलता ने जिस आपसी विरोध को जन्म दिया उससे अब दो परिवार ग्रसित थे। एक दर्जन जीवित शरीर और उनमें मौजूद चिंतन करने वाला मस्तिष्क अब पड़ोस में होने वाले अपशकुन पर खुश होता। पड़ोस के बुरे की कामना करता। छोटे बच्चे आपस में मुंह चिढ़ाते। एक पड़ोस में नए कपड़े आते तो दूसरे पड़ोसी मुंह बनाते। कभी कोई श्रीमती नई साड़ी पहनकर बन-ठन कर निकलती तो दूसरी श्रीमती जी मुंह फेर लेती। जब रमेश की किसी दिन फैक्टरी में फटकार लगती तो रात में  पड़ोस के घर से ठहाके रमेश के कानों में पड़ते और रमेश इस इंतजार में रहते कि रुक जा मेरा मौका भी आएगा।
    
बारूद में विस्फोट होने से पहले कुछ विशेष नियमों का लागू होना विस्फोट होने की लाज़मी शर्त है। बारूद का सूखा होना, छोटी सी बंद कागज की डिबिया और उसमें भरा हुआ बारूद। उसके ऊपर परत दर परत धागों की नियमित कतारें। हर परत विस्फोट की तीव्रता को उन्नत करती जाती हैं। और लौ। उसके बाद विस्फोट होता है। कर्णभेदी विस्फोट से पास की हवा बहुत तेजी से अपना स्थान छोड़कर दूर तक फैल जाती है। खाली जगह को भरने के लिए उतनी ही तेजी से वापस उसी जगह पहुंच जाती है। सूरज की तपिश नमी की दुश्मन होती है। धूप में सूखा हुआ बारूद अपने नियमों में क्रमबद्ध होकर निश्चित आकर ग्रहण करता है। और जैसे ही लौ अपने पूर्व निर्धारित जगह को छूती है उसके बाद तीव्र विस्फोट की गूंज सारी दिशाओं में भर जाती है।
    
अभी साल भर पहले की ही बात रही होगी जब एक अखबार से विनोद का परिचय हुआ था। अखबार जिसमें देश-दुनिया के मजदूरों के जीवन का, उनके संघर्षों, तकलीफों का जिक्र था। जिसके शब्दों में लड़ने की अलख है जो मस्तिष्क में कौंध जाती है। अक्सर सोचा करते कि किस मजदूर को पढ़ाऊं क्योंकि यहां तो हर कोई खुद में मस्त है। कौन इन बातों को सोचता है। लेकिन जो उद्विग्नता अब मन के भीतर शुरू हो चुकी थी उसका असर बहुत गहरा था। जिस संगठन और एकता की लौ को उन पृष्ठों ने जगा दिया था अब बारी उसे सहेजने की थी।
    
संगीत के सुरों को यदि चेतना होती तो संभवतः उनमें एक जन्मजात बैर होता। प्रत्येक आगे व्यक्ति पिछले वाले से ज्यादा ऊंची आवाज वाले से जलन करता और हर आगे वाला पीछे वाले को उलाहना भेजता। लेकिन एक संगीतकार के लिए किसी वाद्य यंत्र में मौजूद ये विभेदीकरण ही उसकी उपलब्धि होती है। सुरों का प्रत्येक क्रम विभाजन संगीत की निश्चित धुन को जन्म देता है। दुनिया का कोई भी गीत ऐसा नहीं होता जिसकी धुन के बारे में ये वाद्य यंत्र अनजान हों। मसला सिर्फ संगीत की समझ का होता है। और जब एक बार सातों सुर अपने ऐतिहासिक विकासक्रम और अपनी विरासत को आत्मसात कर लेते हैं तब दुनिया की कोई भी धुन को समझने में उन्हें भ्रमित नहीं होना पड़ता और तब विरोध का स्थान परस्पर सहयोग और अटूट एकता ले लेती है। और तब दुनिया की कोई भी ताकत उस एकता को खंडित नहीं कर पाती।
    
इस बार मासिक वेतन मिलने में बहुत देर हो गई है। अभी कितने दिन और देर होगी कुछ पता नहीं। छुट-पुट रूप से होने वाले विरोध के स्वर अब धीरे-धीरे आकार ग्रहण करने लगे हैं। अभी कल शाम ही दो मजदूरों को इंचार्ज ने हड़काकर बोला था कि जहां टाइम पर पैसा मिलता है वहीं काम ढूंढ लो। एक निठल्ले, निर्लज इंसान के शब्द एक ऐसे इंसान के शब्द जो खुद कुछ उत्पादन नहीं करता जिसका काम सिर्फ मुंह चलाना होता है, उन लोगों के ऊपर जो परिश्रम करते हैं, दिन-रात खटते हैं। काम के बोझ से जिनके जिस्मों में हमेशा दर्द रहता है, वो पवित्र हृदय जो मामूली सी हमदर्दी से खुश हो जाते हैं और बदले में जिन्हें तिरस्कार मिलता है। 
    
सुबह-सुबह मजदूरों का गेट पर इकट्ठा होना शुरू हो गया है। स्थायी मजदूरों की सैलरी पहले ही आ चुकी है और वो अंदर जा रहे हैं। लेकिन कैजुअल मजदूरों ने गेट के बाहर ही इकट्ठा होना शुरू कर दिया है। आज वो फैसला करके आए हैं और अडिग हैं। चाहे जो हो जाए काम रहे या न रहे जब तक वेतन नहीं मिल जाता कोई काम पर नहीं जाएगा। विनोद और रमेश इनके अगुवा हैं। अल्प संख्या में ही सही पर अडिगता से अपने प्रतिरोध पर कायम हैं और यही अडिगता आज इनकी जीत पर मुहर लगाने वाली है। आज वो पहला मौका है जब इस अडिगता के आगे प्रबंधन को झुकना पड़ा।
    
रात की खामोशी को घड़ी के घंटे ने भंग किया। कमरे में मौजूद चार मस्तिष्क किसी प्रश्न पर मंथन करते हुए शांत बैठे हैं जिस शांति को हर घंटे पर बजने वाले घंटे ने भंग किया। तो फिर तय रहा कि अगले हफ्ते 9 बजे रमेश भाई के घर बैठेंगे। सब लोग हामी में सर हिलाते हैं। फैसला रजिस्टर में दर्ज हो गया है। रमेश भाई हाथ धो लो, छत पर जाने से पहले विनोद ने रमेश से आग्रह किया। नाहक ही भाभी जी को परेशान किया, बगल में ही तो घर है। हाथ धोते हुए रमेश बोले। तुम्हारी भाभी की जिद है उसी से बात करो। इतना बोलकर भीतर से खाना लेने चले जाते हैं। रमेश ने हाथ धो लिए थे हाथ पोंछने के लिए कपड़ा देखते हैं। तभी विनोद की श्रीमती जी कुछ लजाते हुए ‘‘भैय्या तौलिया तार पर टंगा है, उसी से पोंछ लीजिए’’। खाना खाते हुए विनोद ने कहा इस बार के अखबार के अंक के लिए कल फैक्टरी में हुई घटना के बारे में कुछ लिखने की सोच रहा हूं। हां तुम अच्छा लिख लेते हो, अखबार के लिए चिट्ठी लिख लो। मैं उसे पहुंचा दूंगा। -पथिक 

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।