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जब से डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका के राष्ट्रपति का पद संभाला है तब से उसने विश्व राजनीति में हंगामा मचाया हुआ है। पुराने समीकरण टूट रहे हैं और नये समीकरण बन रहे हैं। और यहां तक बातें की जा रही हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद कायम हुयी ‘विश्व व्यवस्था’ (न्यू वर्ल्ड आर्डर) ध्वस्त होने को है और अब ट्रम्प द्वारा नयी विश्व व्यवस्था कायम की जा रही है। अब तक मोटे तौर पर अमेरिकी व यूरोपीय साम्राज्यवादी एक खेमे में रहे हैं परन्तु रूस की ओर (यूक्रेन के मामले में) ट्रम्प के उठाये कदम से यह खेमा अव्यवस्थित हो गया है। अमेरिका व रूस ने सऊदी अरब की राजधानी में यूक्रेन को लेकर अलग से वार्ता की तो यूरोप के देशों (व कनाडा) ने कीव में अलग से वार्ता की। पहली वार्ता में यूक्रेन व यूरोप के देश शामिल नहीं थे तो दूसरी वार्ता में अमेरिका व रूस शामिल नहीं थे।
अमेरिकी साम्राज्यवादियों की रूसी साम्राज्यवादियों से चल रही सांठगांठ ने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेन्स्की को ‘धोबी का कुत्ता घर का न घाट का’ की स्थिति में धकेल दिया है। 24 फरवरी को संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन युद्ध को रोकने के प्रस्ताव में अमेरिका व रूस एक पाले में थे और यूरोप के देश दूसरे पाले में थे। ट्रम्प ने घोषणा की कि रूस ने यूक्रेन पर हमला नहीं किया था और जेलेन्स्की एक तानाशाह है।
रूस और क्या चाहता था। उसने यूक्रेन के जिन हिस्सों पर कब्जा कर रखा है वह हिस्से वह रूसी भाषियों के नाम पर अपने कब्जे में बनाकर रखना चाहता है। अमेरिका इस वक्त इस पर सहमत है। रूस चाहता था यूक्रेन, नाटो व यूरोपीय यूनियन में शामिल न हो। अमेरिका इस पर भी कमोबेश सहमत है।
अमेरिका व रूस के बीच पक रही खिचड़ी का यह भी नतीजा है कि रूस की जी-7 के साम्राज्यवादी देशों के समूह (इसमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, कनाडा) में वापसी हो रही है। चीनी साम्राज्यवादी इस समूह का हिस्सा नहीं हैं। साथ ही रूस पर लगाये गये प्रतिबंध खत्म होने हैं और उसकी जब्त की गयी रकम और सम्पत्तियां वापस होनी हैं। इस सबके एवज में अमेरिका को रूस व यूक्रेन में मौजूद दुर्लभ खनिज भण्डारों में हिस्सेदारी मिलनी है और रूस अमेरिका को एल्युमिनियम की बिक्री भी शुरू करेगा। ऐसी ही कई अन्य बातें हो रही हैं।
अमेरिका, रूस को साधने के बाद यूरोप के देशों से अपनी ही शर्तों पर सौदेबाजी करना चाहता है। यूरोप के देशों के पास सीमित विकल्प हैं इसलिए वे ट्रम्प के जाल में फंसने को मजबूर हैं। वे इस स्थिति में नहीं हैं कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों से खुली टक्कर ले सकें। फिलवक्त रूसी साम्राज्यवादियों खासकर पुतिन के दोनों हाथों में लड्डू हैं। और अमेरिकी साम्राज्यवादी इस मंसूबे को पाल रहे हैं कि उनका दुनिया में वर्चस्व इस तरह से कायम रहेगा।
जब से दुनिया में साम्राज्यवाद का दौर कायम हुआ है तब से साम्राज्यवादी देशों के बीच के संबंधों में कलह और सांठगांठ का दौर समय-समय पर चलता रहा है। साम्राज्यवादी देश अपने घृणित हितों के लिए किस्म-किस्म के समझौते व गुटबाजी करते रहे हैं तो उसी तरह अपने हितों के लिए युद्ध छेड़ते व समझौते-गुटों को तोड़ते रहे हैं। साम्राज्यवादियों की गुटबंदी और कलह के कारण दो विश्व युद्ध अब तक हो चुके हैं और अब ट्रम्प तीसरे विश्व युद्ध के नाम पर पूरी दुनिया को धमका रहा है।
जो अमेरिकी व रूसी साम्राज्यवादी कल तक यूक्रेन में आमने-सामने थे वे ट्रम्प के सत्ता में आने के बाद गलबहियां डाले घूम रहे हैं। ट्रम्प सरकार खुलेआम कह रही है कि यूक्रेन युद्ध के लिए रूस दोषी नहीं है। तो दोषी कौन है? अमेरिका यह तो खुलेआम नहीं कह सकता है कि इस युद्ध के लिए वह ही दोषी है। यह सच है कि यूक्रेन सहित पूर्व सोवियत संघ के देशों को अपने प्रभाव में लाने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने सोवियत संघ के विघटन के समय से ही कोई कसर नहीं छोड़ी हुयी थी। उसने वह सब कुछ किया जो वह इन देशों में कर सकता था। यूक्रेन सहित कई देशों में अपने पैसे व गैर सरकारी संगठनों के दम पर रंगीन क्रांतियां करवाईं तो कई देशों को आतंकित कर नाटो में शामिल करवाया। नब्बे के दशक तक वह रूस को भी अपने प्रभाव में लाने की कोशिश करता रहा परन्तु पुतिन के नेतृत्व में रूसी साम्राज्यवादी चालाकी से बाहर निकलते गये। और फिर पुतिन ने इस सदी के शुरू से ही रूसी साम्राज्यवाद को फिर से आक्रामक बना दिया।
रूसी साम्राज्यवाद की इस आक्रामकता के पीछे उनके वजूद का खतरा था। यूक्रेन युद्ध में जब अमेरिकी साम्राज्यवादियों को मनचाहे नतीजे नहीं मिले तो उन्होंने युद्ध को जारी रखने के स्थान पर सुलह-समझौते यानी सांठगांठ का रास्ता पकड़ लिया। और जो काम बाइडेन के राष्ट्रपति काल में संभव नहीं था वह ट्रम्प के राष्ट्रपति बनते ही तुरंत संभव हो गया। और इस सांठगांठ के संकेत तब ही मिलने शुरू हो गये थे जब सीरिया में रूसी साम्राज्यवादियों ने असद को सत्ता में बनाये रखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। जो असद रूसी व ईरानी सहयोग से वर्ष 2011 के जन विद्रोह के बाद से अब तक टिका हुआ था वह चुपचाप रूस भाग गया। रूस ने इस कवायद में सीरिया में अपने सैनिक अड्डे बचा लिये और यूक्रेन में वह जो हासिल करना चाहता था उसको हासिल करने के एकदम करीब पहुंच गया। जो उसे युद्ध को जारी रखने से हासिल नहीं हो रहा था वह अब सांठगांठ से हासिल हो जा रहा है। कलह का स्थान अब सांठगांठ ने ले लिया है। और जो बात रूसी साम्राज्यवादियों के लिए सही है वही बात दूसरे रूप में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए भी सही है।
अमेरिकी व रूसी साम्राज्यवादियों के बीच चल रही सांठगांठ के बीच यूरोपीय साम्राज्यवादी खासकर जर्मनी व फ्रांस अपने हितों के लिए छटपटा रहे हैं। रूस-यूक्रेन मुद्दे से उन्हें फायदे के स्थान पर नुकसान ही अधिक हुआ। यही उनके साथ पश्चिम एशिया में मचे कोहराम के समय भी हुआ। यूरोप के साम्राज्यवादी ही नहीं बल्कि कनाडा भी जब जेलेन्स्की को समर्थन देने भागकर कीव पहुंचे थे तो वे अपनी सौदेबाजी की क्षमता को प्रदर्शित करना चाहते थे। कीव के बाद फ्रांस के राष्ट्रपति ने तुरंत फिर ट्रम्प के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। वे दशकों से अमेरिकी साम्राज्यवाद से सांठगांठ करते रहे हैं और अब ट्रम्प उनकी कमजोरी का फायदा उठाकर बड़े पैमाने पर नयी सौदेबाजी करना चाहता है। वे कितने ही तेवर दिखायें परन्तु उनके सामने एक नहीं अनेकोंनेक कठिनाईयां हैं। रूस से सौदेबाजी करके ट्रम्प ने उनकी सौदेबाजी की क्षमता को कुंद कर दिया है। फिर भी अमेरिकी व यूरोपीय साम्राज्यवादियों के बीच सांठगांठ ही चलती रहेगी। कलह की संभावना कम ही है।
दुनिया की दूसरी बड़ी आर्थिक ताकत और नये-नये साम्राज्यवादी बने चीन के शासक इस सारी उथल-पुथल के बीच कहीं दूर खड़े दिखायी दे रहे हैं। उन्होंने अपनी गिद्ध दृष्टि पूरे हालात पर जमायी हुयी है। उन्होंने रूस-यूक्रेन युद्ध से जमकर फायदा उठाया। और ऐसा ही फायदा उन्होंने पश्चिम एशिया में उठाया। उन्होंने हर जगह अपना धंधा जमाया। यहां तक कि इजरायल के भीतर इस बीच में चीनी कम्पनियों ने पुनर्निर्माण से लेकर कई ठेके हासिल किये। चीनी साम्राज्यवादी फिलवक्त ट्रम्प से किसी भी सूरत में नहीं उलझना चाहते हैं। उन्होंने ताइवान पर नजर गड़ायी हुयी है और वे इस चक्कर में हैं कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।
दुनिया में मची उथल-पुथल में भारत के शासकों की स्थिति सांप-छछूंदर की है। अमेरिका व रूस की सांठगांठ से इन्हें नुकसान है। दोनों के बीच कलह की स्थिति इनकी सौदेबाजी की क्षमता को बढ़ा देती है। रूस-यूक्रेन युद्ध से जिन देशों ने खूब फायदा उठाया उनमें भारत भी एक है। ‘युद्ध नहीं बुद्ध का दौर’ कहने वाले अच्छे से जानते हैं कि यह युद्ध उनके लिए कितने-कितने ढंग से फायदे वाला रहा है।
और जहां तक दुनिया भर के मजदूरों-मेहनतकशों, शोषितों-उत्पीड़ितों का सवाल है वहां साम्राज्यवादियों के बीच कलह हो अथवा सांठगांठ उन्हें तो हर हाल में नुकसान ही है। उनके हित तो यही मांग करते हैं कि जल्द से जल्द पूरी दुनिया से साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का अंत हो। और इसके लिए उन्हें अपने प्रिय नारे ‘दुनिया के मजदूरो एक हो’ को वास्तव में जमीन पर उतारना पड़ेगा। विश्व क्रांति को आगे बढ़ाना पड़ेगा।