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सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश पढ़े-लिखे समझदार लोग माने जाते हैं। कम से कम उनसे देश-दुनिया के बारे में इतनी समझदारी की उम्मीद की जाती है कि वे ढंग से न्याय कर सकें। पर ऐसा लगता है कि इस समय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एक-एक कर इस धारणा को गलत साबित करने का बेड़ा उठाये हुए हैं।
इसका ताजा नमूना इस सर्वोच्च न्यायालय में एकमात्र दलित न्यायाधीश बी आर गवई हैं। वे एकमात्र ईसाई न्यायाधीश मैथ्यू जार्ज मसीह के साथ एक ऐसी बेंच में बैठे हुए थे जिसके सामने प्रशांत भूषण दिल्ली के बेघर लोगों का मामला लेकर पहुंचे। इस मामले की सुनवाई करते हुए न्यायाधीश गवई ने सरकारी राहतों को लेकर ऐसी टिप्पणियां की जो आजकल खाते-पीते मध्यम वर्ग में आम तौर पर सुनी जाती हैं।
उन्होंने कहा कि सरकार की ओर से दिया जाने वाला मुफ्त राशन और पैसा लोगों को परजीवी बना रहा है। फिर उन्होंने स्वयं अपना उदाहरण देते हुए कहा कि वे एक खेतिहर परिवार से आते हैं और वे जानते हैं कि सरकारी राहतों की वजह से खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिल रहे हैं। मतलब साफ था। जब खाने-पीने को मुफ्त राशन तथा पैसे मिल रहे हों, तो काम कौन करेगा?
मुफ्त राशन और विभिन्न योजनाओं के तहत कुछ पैसे जिन लोगों को मिल रहे हैं उनमें ज्यादातर दलित, आदिवासी, निचले पायदान के पिछड़े तथा मुसलमान हैं। इसका सीधा सा कारण है भारतीय समाज के गरीबों में इन्हीं से ज्यादा लोग आते हैं। ऐसे में उम्मीद की जाती है कि दलित पृष्ठभूमि से आने वाला एक न्यायाधीश इनके प्रति ज्यादा संवेदनशील होगा। कम से कम जब न्यायालयों में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की अत्यन्त कम संख्या का मुद्दा उठाया जाता है तो उसमें यह अनकही बात होती है कि यदि इन तबकों से न्यायाधीश भर्ती होंगे तो इन तबकों की समस्याओं के प्रति अदालतों की संवेदनशीलता ज्यादा होगी।
लेकिन न्यायाधीश बी आर गवई का यह उदाहरण दिखाता है कि ऐसा सोचना भोलापन होगा। या ज्यादा से ज्यादा यह होगा कि ये न्यायाधीश इन तबकों के मध्यम और उच्च वर्ग की समस्याओं के प्रति संवेदनशील होंगे पर इन तबकों के गरीब लोगों के प्रति नहीं।
गरीब आबादी को सरकारी राहत के मामले में न्यायाधीश गवई ने जो कुछ कहा वह मध्यम वर्ग की आम धारणा है जिसे पूंजीपति वर्ग खूब जोर-शोर से प्रचारित करता है। इसमें पूंजीपति वर्ग का सीधा हित है। गरीब जनता को दी जाने वाली सरकारी राहत में कोई भी कटौती उसकी अपनी तिजोरी भरने की संभावना पैदा करती है। इसीलिए वह अपने प्रचार माध्यमों और कलमघसीटों से इस मामले में झूठ-सच का प्रचार करता है। मध्यम वर्ग इस प्रचार की चपेट में आ जाता है और बहुत सुविधापूर्वक यह तथ्य भुला देता है कि सरकार उसके ऊपर ज्यादा पैसे खर्च करती है हालांकि आबादी में उसकी संख्या गरीबों से बहुत-बहुत कम है।
न्यायाधीश गवई इसी मध्यमवर्गीय धारणा के शिकार हैं। उन्हें लगता है कि सरकारी राहत से गरीब लोग परजीवी बनेंगे। वे सरकार को उपदेश देते हैं कि वह ‘रेवड़ी’ पर पैसा लुटाने के बदले विकास करे और उसमें लोगों को एकीकृत करे।
न्यायाधीश गवई जैसे लोग कभी नहीं समझेंगे या समझना नहीं चाहते कि यह भारत के पूंजीवादी विकास की असफलता ही है जो सरकार को ‘रेवड़ी’ बांटने को मजबूर कर रही है। यदि यह व्यवस्था लोगों को रोजगार देने में समक्ष होती तो सरकार को लोगों को जिन्दा रखने के लिए मुफ्त राशन और पैसे नहीं बांटने पड़ते। इस तरह की सरकारी राहत पूंजीवादी व्यवस्था की ओर से खुद की असफलता की स्वीकारोक्ति है। जैसे वह इस बात की स्वीकारोक्ति है कि ये सारे लोग भुखमरी की रेखा के नीचे जी रहे हैं।
चूंकि पूंजीवादी व्यवस्था लोगों को रोजगार नहीं दे सकती इसलिए सरकार को ‘रेवड़ी’ बांटनी पड़ रही है। आज पूंजीवादी व्यवस्था की इस मूलभूत समस्या का समाधान किसी उपदेश से नहीं हो सकता भले ही उपदेश देने वाला दलित न्यायाधीश ही क्यों न हो। पर साथ ही आज पूंजीवादी व्यवस्था के शीर्ष पर विराजमान लोगों की सोच की दरिद्रता को भी दिखाता है। जैसा जमाना वैसे ही सोच के लोग!