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इस वर्ष 18 मार्च को पेरिस कम्यून को घटे 154 वर्ष हो जायेंगे। पेरिस कम्यून की ऐतिहासिक घटना से परिचित और अपरिचित दोनों तरह के लोगों का यह प्रश्न हो सकता है कि ‘हम पेरिस कम्यून को क्यों याद करें’।
अपरिचित लोगों के लिए पेरिस कम्यून एक अबूझ पहेली हो सकता है परन्तु किसी परिचित व्यक्ति के दिमाग में भी हो सकता है यह सवाल उठे कि डेढ़ शताब्दी पूर्व घटी घटना पर आज क्यों बात की जाये। क्यों इतिहास के पन्ने पलटे जाएं? और फिर दुनिया 154 सालों में इतनी बदल गयी है कि अब पेरिस कम्यून की बातों का क्या मतलब? क्या महत्व?
पेरिस कम्यून मनुष्य जाति की असाधारण घटनाओं में से एक घटना है। और हर असाधारण घटना की तरह उसका उससे पूर्व में कोई उदाहरण नहीं है। किसी असाधारण घटना के बाद जब उसी तरह की घटनाएं शुरू होती हैं तो बार-बार पहली घटी घटना एक संदर्भ बिन्दु बन जाती है। तुलना के लिए कसौटी बन जाती है। भविष्य की सूचक बन जाती है। और यह भी कह सकते हैं कि वे एक प्रकाश स्तम्भ बन जाती हैं जिसकी रोशनी में भविष्य की राह रोशन होती है।
पेरिस कम्यून इस रूप में उपरोक्त सभी था। वह असाधारण घटना थी। उसका पूर्व में कोई उदाहरण नहीं था। वह भावी सर्वहारा क्रांतियों के लिए संदर्भ बिन्दु थी। वह एक कसौटी थी जिस पर उसके बाद घटी क्रांतियों को बार-बार कसा गया। वह भविष्य की सूचक थी जिसने बता दिया था कि आने वाला जमाना सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में क्रांतियों का है। पेरिस कम्यून, अपने जन्म से लेकर आज तक ही नहीं, भविष्य के लिए भी एक प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता रहेगा।
पेरिस कम्यून 18 मार्च 1871 को अस्तित्व में आया और महज 72 दिनों तक ही अस्तित्व में रहा। लेकिन ये 72 दिन ऐसे दिन थे कि उन्होंने इतिहास की दिशा मोड़ कर रख दी। दिशा मोड़ने का यह काम पेरिस के मजदूरों ने किया।
मजदूर वर्ग के महान नेता और शिक्षक कार्ल मार्क्स ने, पेरिस कम्यून को ‘पूंजीपतियों के स्वर्ग पर धावा’ की संज्ञा दी थी। साथ ही उन्होंने कहा था कि ‘पेरिस कम्यून, महान सामाजिक क्रांति की ऐसी प्रभातबेला है जो मानव जाति को वर्ग शासन से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त कर देगी’।
पेरिस कम्यून पूंजीपतियों के स्वर्ग पर धावा ही था। क्योंकि उस समय के पेरिस की चमक से पूरी पूंजीवादी दुनिया ही नहीं रोशन थी बल्कि सभी तरह के परोपजीवियों का जमघट वहां लगा रहता था। दुनिया भर के शोषक पेरिस की शामों और रातों के लिए वहां इकट्ठे होते थे। अपनी दौलत का बेशर्मी से प्रदर्शन करते थे। ऐशपरस्ती के एक से बढ़कर एक उपाय करते थे। इनमें शामिल थे बड़े-बड़े पूंजीपति, राजा-महाराजा, जमींदार, सामंत, सट्टेबाज आदि। पेरिस का फैशन, पेरिस के आलीशान होटल, किले और यहां तक कि वेश्याएं इन परोपजीवियों के आकर्षण का केन्द्र थीं। वे यहां आते, मौज मारते और पेरिस की रंगीनियों के किस्से दूर-दूर तक फैलाते। और फिर यूरोप के विभिन्न देशों से ही नहीं दूर-दूर के देशों के परजीवी पेरिस में उड़े चले आते। पूंजीपतियों के स्वर्ग में जाने के लिए ये सब लालायित रहते।
पेरिस कम्यून ने ऐसे पूंजीपतियों के स्वर्ग पर धावा बोला था। अपना स्वर्ग छिनते ही पूंजीपतियों ने अपने क्रूर और वीभत्स चेहरे पर पड़े जनवादी, शालीन, श्रेष्ठता आदि नकाबों को तुरन्त फाड़ के फेंक दिया था। पहले मक्कार, धूर्त नेपोलियन तृतीय (III) की पोल खुली और फिर पूंजीवादी लोकतंत्र की। जिस टोपी को नेपोलियन तृतीय ने अपने पैरों तले रौंदा हुआ था, उसे पहने कई ठग, बटमार सामने आये। फिर इनकी भी पोल खुली। पेरिस के मजदूरों ने इनसे एक-एक कर हिसाब चुकता किया और इन सबों को पेरिस से खदेड़ दिया। पूंजीपतियों से उनका स्वर्ग छीन लिया और वहां मजदूरों के पहले राज की शुरूवात 18 मार्च, 1871 को की। यह दुनिया में मजदूरों का पहला राज था जो महज 72 दिन चला।
मजदूरों का पहला राज कैसा था? वह सचमुच अद्भुत था। वहां सब कुछ अनोखा था। उसकी अद्भुतता, उसका अनोखापन इतना अधिक है कि आज भी जब हम अपने समाज की तुलना पेरिस कम्यून के 72 दिन के राज से करेंगे तो हमें लगेगा कि क्या वाकई ऐसा हुआ था। क्या ऐसा हो सकता है? क्या फिर से पेरिस कम्यून की सृष्टि नहीं की जा सकती है?
‘पेरिस कम्यून को क्यों याद करें’ सवाल का जवाब पाने के लिए यह जानना होगा कि पेरिस कम्यून को किसने कायम किया और उन्होंने क्या कार्य किये।
सबसे पहले इस बात को देखा जाये कि पेरिस कम्यून कायम करने वाले कौन थे। वे लोग कौन थे जिन्हें फ्रांस के इतिहास में, दुनिया के इतिहास में तब केवल 72 दिन ही शासन चलाने का मौका मिला। बाद की दुनिया में फिर बहुत कुछ हुआ।
पेरिस कम्यून कायम करने वाले और शासन करने वाले पेरिस के मजदूर, कारीगर थे। कोई फैक्टरी में काम करता था तो कोई नानबाई था। कोई डाई करने वाला था तो कोई घड़ीसाज था। और ऐसे मजदूरों की संख्या लाखों में थी।
पेरिस की आबादी उस वक्त 20 लाख थी। इस 20 लाख की आबादी में करीब-करीब आधी आबादी मजदूर वर्ग की थी। 5 लाख के करीब औद्योगिक मजदूर तो 3-4 लाख के आस-पास अन्य संस्थानों में काम करने वाले मजदूर थे। और साथ ही ऐसे ही करीब 2 लाख अन्य मजदूर थे जो बेहद छोटे-छोटे संस्थानों में या स्वयं अपने हाथों से छोटी-छोटी मरम्मत का काम करते थे।
पेरिस कम्यून कायम करने वाले मजदूरों में सिर्फ फ्रांसीसी मजदूर नहीं बल्कि बाहर से आये अप्रवासी मजदूर भी थे। देशी-विदेशी का वहां कोई फर्क नहीं था। जो पेरिस में जब आ गया तब वह पेरिस के मजदूरों का हिस्सा हो गया। ऐसे अप्रवासी मजदूरां की भी संख्या पेरिस में एक लाख के करीब थी। फ्रांस और जर्मनी (तब प्रशा) के पूंजीपति भले ही आपस में लड़ रहे हों परन्तु पेरिस के मजदूरों ने उनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई कभी नहीं बनने दिया। उन्होंने जर्मनी के एक मजदूर को अपना श्रम मंत्री बनाया तो इटली के क्रांतिकारी गैरीबाल्डी को राष्ट्रीय गार्ड की कमान को संभालने का न्यौता दिया। वे आये तो नहीं परन्तु यह पेरिस के मजदूरों के विशाल हृदय में बसी उद्दात भावनाओं को दिखाता है।
पेरिस कम्यून के कामों को आगे बढ़ाने, मोर्चे के पीछे के सभी जरूरी कामों को संभालने, पुरुष मजदूरों में दृढ़ता, साहस व पहलकदमी भरने में पेरिस की मजदूर औरतों की भूमिका अतुलनीय थी। इनमें एक फ्रांस की लुईस मिशेल थी जो कम्यून के शुरू से लेकर अंत तक सक्रिय रही और किले की निगरानी कमेटी में थी। इनमें रूस में पैदा हुई ऐलिजाबेथ दिमित्रोव भी थी जिन्होंने कम्यून की महिलाओं को लेकर एक महिला यूनियन ‘यूनियन डेस फेम्स’ बनायी। जिसका काम बैरीकैड बनाने, एम्बुलेंस का काम करने, कैंटीन व नर्सिंग आदि था। ये ऐसी वीरांगनाएं थीं जिन्हें बार-बार याद किया जाना चाहिए।
पेरिस कम्यून के सच्चे निर्माता, रक्षक पेरिस के मजदूर और औरतें थीं। पेरिस कम्यून, पेरिस के मजदूरों, मेहनत करने वालों का था। और उसमें वे सब शामिल थे जो पेरिस में आकर मेहनत-मजदूरी कर रहे थे। उनके बीच न देशों की दीवार थी और न भाषा की दीवार थी। वे नये इंसान थे। वे नये पुरुष और नयी नारियां थीं। पेरिस कम्यून की नारियां ऐसी नारियां थीं जो परम्परागत पहचान से मुक्त होकर ऐसी बहादुर योद्धा बन गयी थीं जिन्हें देखकर कोई भी कह सकता था कि वहां एक ‘जॉन आफ आर्क’ नहीं हजारों-हजार ‘जान आफ आर्क’ थीं। कदाचित ‘जान आफ आर्क’ से कहीं बहुत आगे के जमाने की वे स्त्रियां थीं। ‘जान आफ आर्क’ तो ऐसी बहादुर राष्ट्रीय क्रांतिकारी थी जिसने फ्रांस की राष्ट्रीय भावना को जगाया था और सिखाया था कि कैसे स्वाभिमान से भरा जीवन जीना चाहिए और कैसे उसके लिए मरना चाहिए। ‘जान आफ आर्क’ पन्द्रहवीं शताब्दी की ऐसी किसान बेटी थी जिसने पूरे फ्रांस को संघर्ष की राह दिखायी थी। पेरिस कम्यून की नारियां उन्नीसवीं सदी में पूरी मानवता को मुक्ति की राह दिखा रही थीं। पेरिस कम्यून की क्रांतिकारी महिलाएं पूरी मानव जाति की मुक्ति की अग्रदूत थीं। वे पूरी मानव जाति को अब तक सिखा रही हैं कि हमारा लक्ष्य ऐसा समाज बनाना है जहां वर्ग शासन का अंत हो। शोषण-उत्पीड़न हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाये। पेरिस कम्यून का सृजन इन महिला योद्धाओं के बगैर नहीं हो सकता था।
पेरिस कम्यून; बहुसंख्यक वर्ग, मजदूर वर्ग की अल्पसंख्यक वर्ग; पूंजीपति वर्ग, के विरुद्ध इतिहास की पहली क्रांति थी। इन अर्थों में भी यह पहली क्रांति थी कि इससे पहले की क्रांतियों में एक अल्पसंख्यक वर्ग के स्थान पर दूसरा अल्पसंख्यक वर्ग सत्ता में काबिज हो जाता था। पेरिस कम्यून ने बहुसंख्यक वर्ग की क्रांतियों की शुरूवात कर दी थी।
दुनिया की महानतम क्रांतियों में से एक 1789 की फ्रांसीसी क्रांति में भी अल्पसंख्यक वर्ग ही सत्ता में काबिज हुआ था। तब सत्ता पर अल्पसंख्यक, सामंत, जमींदार वर्ग के स्थान पर पूंजीपति वर्ग काबिज हो गया था। क्रांति में साथ देने वाले कपटपूर्ण ढंग से छले गये थे। लेकिन पेरिस कम्यून ने इतिहास में पहली दफा एक नये युग का सूत्रपात किया। अल्पसंख्यक पूंजीपति वर्ग के स्थान पर बहुसंख्यक मजदूर वर्ग का शासन कायम किया। और शासन भी ऐसा जिसकी हर बात अनूठी थी। पेरिस के मजदूर वर्ग ने दिखा दिया था कि जब मजदूर वर्ग जनवाद को लागू करता है तो वह कितना जुदा होता है। पूंजीपति वर्ग जनवाद (डेमोक्रेसी) या लोकतंत्र की बातें तो करता है परन्तु हकीकत में उसका शासन मजदूर, मेहनतकशों व किसानों के लिए सिर्फ तानाशाही होता है। इनके जनवाद को वह अपने पांव तले कुचल देता है।
पेरिस के मजदूरों ने पेरिस में कब्जे के एक हफ्ते के बाद ही आम चुनाव कराये। पेरिस कम्यून को संचालित करने के लिए कम्यून काउन्सिल का चुनाव करा दिया था। ये चुनाव ऐसे वक्त में हो रहे थे जब जर्मनी की फौज ने पेरिस के बाहरी इलाकों की घेराबंदी कर रखी थी। इसके साथ फ्रांस के पूंजीपति वर्ग की थियेर की सरकार पेरिस कम्यून को ध्वस्त करने के लिए हर तरह के षड्यंत्र में व्यस्त थी। वे न केवल बाहर से आक्रमण की तैयारी कर रहे थे बल्कि पेरिस के भीतर मौजूद अपने वर्ग के लोगों और उनके गुर्गों के जरिये भी मजदूरों के शासन को ध्वस्त करने की कोशिश कर रहे थे। क्या ऐसी विकट परिस्थितियों में कोई पूंजीवादी सरकार आम चुनाव के बारे में सोच सकती है। दुनिया में, हमारे देश में आम चुनाव पूंजीपति वर्ग बेहद शांति काल में भी संगीनों के साये में करवाता है। उसके बाद जो सरकार चुन कर आती है उसे बहुसंख्यक आबादी के एक तिहाई से भी कम का ही समर्थन होता है। पेरिस कम्यून के मजदूरों का एक हफ्ते बाद ही (26 मार्च) कम्यून का चुनाव करवाना उनके साहस के साथ जनवाद के प्रति सच्ची इच्छा को दिखलाता है। क्या पूंजीपति वर्ग कभी भी इतना साहस और सच्चे ढंग से जनवाद के प्रति अनुराग दिखा सकता है। कदापि नहीं।
पेरिस कम्यून की औपचारिक वैधानिक स्थापना होने के साथ ही उसने एक से बढ़कर एक क्रांतिकारी कदम उठाये। ये ऐसे कदम हैं जिनकी कल्पना ही अधिक से अधिक पूंजीपति वर्ग अपने क्रांतिकारी काल में थोड़ा-बहुत ही कर सका था। लागू करने से तो उसे उस समय भी झुरझुरी आ जाती थी। कम्यून ने ऐसे क्या-क्या कदम उठाये?
कम्यून ने भाड़े की सेना को समाप्त कर सेना में भर्ती पर रोक लगा दी। कम्यून के सभी हथियार उठाने योग्य नागरिक राष्ट्रीय गार्ड के हिस्सा थे। स्थायी सेना के खात्मे से कम्यून ने पेरिस को बहुत बड़े बोझ से मुक्ति दे दी। राष्ट्रीय गार्ड के अधिकारियों का चुनाव उसके सदस्य ही करते थे।
कम्यून ने अपने एक अन्य आदेश में अक्टूबर 1870 से अप्रैल 1871 तक का सब मकानों का किराया माफ कर दिया। जो किराया दे दिया गया था उसे आगे के लिए पेशगी मान लिया गया। कम्यून ने ऐसा करके मजदूरों को बहुत बड़ी राहत दे दी जब मजदूर युद्ध और गृहयुद्ध और महंगाई के कारण बेहाल थे।
कम्यून ने एक ऐसी सरकार की स्थापना की जिसमें प्रमुख पदों पर विदेशी भी थे। इस तरह कम्यून ने ‘दुनिया के मजदूरों एक हो !’ नारे को व्यावहारिक रूप प्रदान कर दिया। कम्यून का पहला श्रम मंत्री एक जर्मन मजदूर था।
कम्यून ने तय किया कि कम्यून के किसी भी कर्मचारी की तनख्वाह 6,000 फ्रैंक से ज्यादा नहीं होगी। इस तरह उन्होंने एक झटके में मंत्री, अधिकारियों के सभी किस्म के विशेषाधिकार खत्म कर दिये। ‘सस्ती सरकार’ क्या होती है इसे पेरिस कम्यून के मजदूरों ने अपने इन कदमों से एक झटके में साबित कर किया। इसके उलट हम अपने देश में या दुनिया में देखें पूंजीवादी सरकारें तरह-तरह के टैक्स लगाकर जनता को लूटती हैं और इसके जरिये पूंजीपतियों को खूब राहत देती हैं। मंत्री-अफसर, सेना के उच्च अधिकारी जनता के पैसों से खूब ऐश करते हैं। बड़े-बड़े आलीशान महलों में रहते हैं और दर्जनों नौकर इनकी सेवा में हर दम हाजिर रहते हैं। और ऐसे में मजदूर-मेहनतकश लोगों को ठगने के लिए आम चुनाव के समय ‘‘सस्ती सरकार’’, ‘‘न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन’’, ‘मंत्रियों-संतरियों की सीमा कम करने’ जैसे झूठे नारे और वायदे करते हैं।
पेरिस कम्यून ने ‘‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अंतःकरण की स्वतंत्रता की पूर्ण गारण्टी दी’’। ‘‘कम्यून के मामलों में अपने विचारों की मुक्त अभिव्यक्ति के साथ, अपने हितों की स्वतंत्रतापूर्वक रक्षा के साथ, कम्यून द्वारा इन अभिव्यक्तियों के लिए दी गारण्टी के साथ, इकट्ठा होने और प्रचार करने के पूर्ण मुक्त अधिकार के साथ नागरिकों का स्थायी हस्तक्षेप।’’ (19 अप्रैल, 1871 को प्रकाशित ‘पेरिस कम्यून के घोषणा पत्र’ से)
व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अंतःकरण की स्वतंत्रता के साथ ही पेरिस कम्यून ने चर्च को राज्य से अलग कर दिया। राज्य द्वारा धार्मिक आयोजनों-प्रयोजनों के लिए किये जाने वाले भुगतान पर रोक लगा दी। चर्च की सारी सम्पत्ति को राष्ट्र की सम्पत्ति घोषित कर दिया। साथ ही शिक्षा को चर्च के, धर्म के प्रभाव से मुक्त कर दिया। स्कूलों से हर प्रकार के धार्मिक चिह्न हटा दिये और वहां धार्मिक उपदेश और प्रार्थना आदि पर रोक लगा दी। पेरिस कम्यून ने धर्म के प्रश्न को बेहद वैज्ञानिक ढंग से हल करके राज्य और शिक्षा को सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान कर दिया। इसके उलट पूंजीवादी राज्य और सरकारों के व्यवहार को देखेंगे तो पायेंगे कि धर्म इनके हाथों में एक खतरनाक हथियार है। आज तो कई देशों में धर्म फासीवादियों के हाथों में एक खिलौना बन गया है। धर्म मानव मुक्ति की राह में एक रोड़ा हमेशा से रहा है अब तो यह आतंक कायम करने का साधन बन गया है।
पेरिस कम्यून ने अंधराष्ट्रवाद की नींव को खोदने के लिए एक से बढ़कर एक काम किये। इन कदमों में से एक था वान्दोम के विजय स्तम्भ को गिराया जाना। 16 मई 1871 को वान्दोम स्तम्भ को गिरा दिया गया। वान्दोम का विजय स्तम्भ जहां एक ओर फ्रांसीसी अंधराष्ट्रवाद को बढ़ावा देता था तो दूसरी तरफ दूसरे राष्ट्रों के प्रति घृणा भाव को बढ़ाता था। नेपोलियन ने अपने द्वारा युद्ध में जीती गई तोपों के लोहे को गलवाकर इस स्तम्भ को बनवाया था। पेरिस कम्यून के मजदूरों ने इस स्तम्भ को गिराकर अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे की ओर आगे बढ़ने के लिए कदम उठाया था। फ्रांस और जर्मनी के मजदूर जब पेरिस कम्यून की विजय के लिए प्रयास और कामना कर रहे थे तब फ्रांस और जर्मनी के पूंजीपति जो कल तक कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ रहे थे, वे पेरिस कम्यून को अपने शासन के लिए विशाल खतरा मानकर उसे खत्म करने के लिए इसी समय एकजुट हो रहे थे। मजदूर राज खत्म करने के लिए दो दुश्मन पूंजीवादी देश एकजुट हो गये थे। और बाद में वे इसमें कामयाब भी हो गये थे।
पेरिस कम्यून ने मजदूर वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने के लिए भी एक से बढ़कर एक कदम उठाये। मजदूरों के शोषण-उत्पीड़न के लिए चले आ रहे ढेरों पूंजीवादी तौर-तरीकों को खत्म कर दिया। पेरिस कम्यून ने नानबाइयों के लिए रात में काम की मनाही कर दी और शोषण-ठगी के अड्डे बने मजदूर भर्ती दफ्तरों को भी खत्म कर दिया। बंद कारखानों को पुनः खोलने और सरकारी-संघों द्वारा चलाने की योजना को लागू किया। रात्रि पाली (नाइट शिफ्ट) में काम करने से मजदूरों के स्वास्थ्य पर स्थायी कुप्रभाव पड़ता है। उनका स्वास्थ्य चौपट होता है और पारिवारिक जीवन तनावग्रस्त हो जाता है। कम्यून के इस बड़े वैज्ञानिक कदम के उलट आज हमारे देश में महिलाओं को भी जबरन रात्रि-पाली में काम करने को मजबूर किया जा रहा है। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को रात की पाली में काम करने से और भी अधिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के साथ पारिवारिक व सामाजिक असुरक्षा जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पेरिस कम्यून का मजदूर भर्ती दफ्तरों का बंद करना भी एक अच्छा कदम था।
पेरिस कम्यून के समग्र काम का यहां विवरण न देकर केवल प्रमुख कदमों की चर्चा की गयी है परन्तु ये बातें यह बतलाने को पर्याप्त हैं कि पेरिस कम्यून ने मानव मुक्ति के लिए कितने बेमिसाल कदम उठाये।
पेरिस कम्यून के डेढ़ सौ वर्ष पूरे होने पर मजदूर वर्ग के लिए इतिहास ने यह अवसर दिया है कि हम अपने पूर्वजों के वीर कार्यों से प्रेरणा और सबक लें। मजदूर वर्ग की मुक्ति मानव जाति की सम्पूर्ण मुक्ति के साथ ही संभव है। यही कारण है कि जब-जब मजदूर मुक्ति का सवाल आता है तो वह अपने आप में मानव मुक्ति का सवाल बन जाता है। पेरिस कम्यून के मजदूर इस बात को अच्छी तरह से समझ रहे थे इसलिए उन्होंने मध्यम वर्ग, किसानों के हित में बड़ी-बड़ी पूंजियों के द्वारा उनकी सम्पत्ति को हड़पने पर रोक लगायी। ऋण और हिसाब-किताब के मकड़ जाल से उन्हें मुक्ति दिलायी। परजीवी वर्गों की सरकार द्वारा भांति-भांति के टैक्सों द्वारा उनको चूसने की विशाल प्रणाली से मुक्ति दिलायी। सरकारी अफसरों, वकीलों, पादरियों आदि के लूट तंत्र से भी उन्हें मुक्ति दिलायी। पेरिस कम्यून ने साबित किया कि मजदूर वर्ग अपनी मुक्ति से पहले अन्य वर्गों को पहले मुक्ति दिलाता है। उसका अपनी मुक्ति का अभियान सभी वर्गों का अभियान बन जाता है।
पेरिस कम्यून को इसलिए बार-बार याद करना होगा कि वह मजदूर वर्ग का पहला राज था। इसलिए बार-बार याद करना होगा कि उसने मजदूर वर्ग की मुक्ति की, मानव मुक्ति की राह खोली। उसने बीसवीं सदी की सभी क्रांतियों की नींव रखी। और पेरिस कम्यून का ध्येय सर्वहारा मुक्ति का ध्येय है। सामाजिक क्रांति का ध्येय है। सम्पूर्ण मानव मुक्ति का ध्येय है। पेरिस कम्यून इसलिए अमर है।
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