अमरीकी सहायता और अमरीकी साम्राज्यवाद

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इस समय यू एस ए आई डी (यूनाइटेड एजेन्सी फार इंटरनेशनल डेवेलपमेन्ट) को लेकर काफी चर्चा है। इसकी वजह दो हैं। एक तो यह कि ट्रम्प प्रशासन ने दुनिया भर में इसके द्वारा दी जाने वाली सहायता को बंद करने का फैसला किया है। दूसरे, यह कि इस क्रम में ट्रम्प ने भारत के चुनावों में इसके द्वारा किये जाने वाले हस्तक्षेप का शिगूफा उछाल दिया जिसे लेकर पक्ष-विपक्ष आपस में भिड़ गये। 
    
यू एस एड की शोहरत कोई नई नहीं है भले ही आज भारत के सारे कूढ़मग्ज नेता इसे कितने ही भोलेपन से ले रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने शीत युद्ध के जमाने में इसे अपने एक नरम हथियार के तौर पर स्थापित और विकसित किया था। इसके जरिये दुनिया भर के तमाम मुल्कों में भांति-भांति की सहायता के जरिये अमरीकी साम्राज्यवादियों के प्रभाव का विस्तार किया जाता था। दुनिया भर के वामपंथी दायरों में इसके चरित्र को लेकर कभी कोई शक-शुबहा नहीं रहा। 
    
भारत में इसे लेकर जो चिल्ल-पों मची हुई है वह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह सवाल कि आखिर आज अमरीकी साम्राज्यवादी दशकों तक अपने लिए इतनी कारगर रही संस्था को क्यों पंगु कर रहे हैं। क्या इसे महज सनकी ट्रंप की सनक का नतीजा माना जा सकता है। 
    
ऐसा नहीं है। असल में आज यू एस एड के मामले में जो कुछ किया जा रहा है वह महज उस व्यापक अभियान का हिस्सा है जो इस समय ट्रंप के नेतृत्व में अमरीकी साम्राज्यवादी सारी दुनिया में छेड़े हुए हैं। इसका मकसद है अमरीकी धौंस को सारी दुनिया में फिर से स्थापित करना जिससे नये उभरते चीनी साम्राज्यवादियों का मुकाबला किया जा सके। 
    
ट्रम्प अमरीकी साम्राज्यवादियों की प्रचलित रीति-नीति को अमरीकी दबदबे के लिए नाकाफी मान रहे हैं। उन्हें लगता है कि इसके जरिये अमरीका को फिर से महान नहीं बनाया जा सकता। इसीलिए वे खुलेआम धौंस पट्टी पर उतर आये हैं। वे यूरोपीय देशों, कनाडा, मैक्सिको, पनामा, भारत, चीन, इत्यादि सभी को धमका रहे हैं। वे भदेस अंदाज वाले व्यक्ति हैं इसीलिए लोग उन्हें सनकी मान रहे हैं। पर इस सनकी व्यक्ति की सनक के पीछे एक निश्चित दिशा को साफ पहचाना जा सकता है। 
    
किसी देश या व्यक्ति के वर्चस्व को तभी मुकम्मल माना जा सकता है जब उसकी इच्छाओं को बाकी लोग इशारों से ही समझ लें और मान लें। इससे नीचे की स्थिति तब होती है जब अपनी बात मनवाने के लिए लालच या अन्य तरह के नरम तौर-तरीकों का सहारा लेना पड़े। पर जब अपनी बात मनवाने के लिए धौंस पट्टी की जरूरत पड़ने लगे तो इसका मतलब है कि वर्चस्व बहुत कमजोर हो चुका है। 
    
पूंजीवादी दुनिया में अमरीकी साम्राज्यवादियों की ये तीनों स्थितियां रही हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के फौरन बाद के सालों में पहली स्थिति थी लेकिन यह कुछ साल ही रही। फिर दूसरी स्थिति आ गई। अब तीसरी स्थिति आ पहुंची है। 
    
आज अमरीकी साम्राज्यवादियों के एक हिस्से को लगता है कि दुनिया भर में अमरीकी दबदबे के पिछले पचास साल के प्रचलित तौर-तरीके कारगर नहीं रह गये हैं। चीजें अमरीकी साम्राज्यवादियों के हाथ से निकल रही हैं। इसलिए नये तौर-तरीके अपनाने पड़ेंगे। नरम-गरम तरीकों से काम नहीं चलेगा। अब तो केवल गरमा-गरम तरीके ही काम करेंगे। 
    
और जब एक बार खुली धौंस-पट्टी पर उतर गये तो आर्थिक सहायता जैसे नरम और छिपे तरीके की क्या जरूरत रह गयी है? तब क्यों बेवजह अमरीकी पैसे को जाया किया जाये? इसे बचाकर एलन मस्क जैसे बड़े पूंजीपतियों की जेब में डाला जा सकता है जिन्होंने ट्रम्प को गद्दी पर बैठाया था। 
    
लेकिन अमरीकी साम्राज्यवादियों की ठीक यही धौंसपट्टी ही उनकी कमजोरी का सबसे बड़ा सबूत है। और चतुर चीनी साम्राज्यवादी इस धौंस-पट्टी से उपजे असंतोष का फायदा उठाने में शायद ही चूकेंगे। आने वाले सालों में ‘यू एस एड’ के बदले ‘चीनी एड’ देखने को मिल सकता है। 

आलेख

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

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पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

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उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।