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तेलंगाना के नागरकुरनूल जिले में श्रीशैलम बांध से जुड़़ी 44 किमी. लम्बी सुरंग 22 फरवरी की सुबह ढह गयी। सुरंग ढहने के वक्त 2 इंजीनियर, दो मशीन आपरेटर व 4 मजदूर जो सुरंग में रिसाव की मरम्मत कर रहे थे, सुरंग में फंस गये। इन्हें बचाने के लिए बचावकर्मियों को 28 फरवरी तक कोई सफलता नहीं मिली थी। समय बीतने के साथ-साथ इनके सुरक्षित बचने की संभावनायें क्षीण होती जा रही हैं। फंसे हुए लोग झारखण्ड, उ.प्र., जम्मू-कश्मीर व पंजाब के हैं।
श्री शैलम बांध से जुड़ी इस निर्माणाधीन सुरंग से पानी की नहर निकाली जानी थी। इस नहर से विभिन्न कार्यों हेतु जल आपूर्ति होनी थी। 22 फरवरी को सुरंग में रिसाव की मरम्मत की जा रही थी तभी भारी मलबा गिरने से सुरंग बंद हो गयी और मजदूर सुरंग के भीतर फंस गये। मलबा कितना ज्यादा गिरा था इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 5 दिन लगातार मलबा हटाने के बाद भी फंसे लोगों से बचाव दल काफी दूर है।
सुरंग निर्माता जे पी ग्रुप की कम्पनी ने इस हादसे पर जो बयान दिया वह उसकी असंवेदनशीलता को ही दिखलाता है। उसने कहा कि इस प्रकार के कठिन काम में इस तरह से हादसे होना आम बात है।
बताया जा रहा है कि देश के अन्य हिस्सों की तरह यहां भी पहाड़ों को चीरकर सुरंग बनाने से पहले न तो पर्यावरणीय मानकों का ध्यान रखा गया और न ही पहाड़ी चट्टानों का ही अध्ययन किया गया। इसके बाद निर्माण कार्य में सुरक्षा मानकों की भी अनदेखी की गयी। इसी का परिणाम इस सुरंग हादसे के रूप में सामने आया।
जब भी इस तरह का हादसा होता है तो ऐसे प्रोजेक्टों के गलत होने, निर्माता कंपनी की चूकों पर काफी हो हल्ला मचता है। कुछेक प्रोजेक्ट कुछ समय के लिए रोक दिये जाते हैं पर मामला शांत होते ही फिर से इन्हें चालू कर अगले हादसे के होने का इंतजाम कर दिया जाता है। चाहे मामला उत्तराखण्ड के सिलक्यारा सुरंग हादसे का हो या कहीं और का, सब जगह यही कहानी दोहराई जाती है।
पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी सभी तरह के संसाधनों पर बेरोकटोक कब्जा चाहती है। इसके लिए वह पर्यावरण से लेकर सुरक्षा सभी मानकों को ताक पर रख देती है। मजदूरों के जीवन को दांव पर लगा वह मुनाफा कमाने में दिन-रात जुटी रहती है। जिसके चलते फैक्टरी से लेकर खदानों तक में हर वर्ष सैकड़ों मजदूर जान गंवाते रहते हैं। सरकारें-प्रशासन पूंजीपतियों की सेवा में ऐसे हादसों से या तो आंखें मूंदे रहते हैं या फिर बड़ी घटना होने पर कुछ दिखावटी खानापूरी कर अगले हादसे तक आंख मूंद लेते हैं। पूंजीवादी मीडिया ऐसी घटनाओं के वक्त दिन रात लाइव टेलीकास्ट कर अपना मुनाफा पीटने में सारी संवेदना ताक पर रख देता है।
आज के वैज्ञानिक युग में परियोजनाओं में हो रहे हादसों को काफी कम करने की संभावना पैदा हो चुकी है पर इसके लिए परियोजना से पूर्व काफी प्रयोग-अध्ययन की आवश्यकता होगी। इन सब कामों पर पैसा खर्च करने के बजाय पूंजीपति मजदूरों के जीवन को दांव पर लगाना अधिक सस्ता पाते हैं। परिणामतः वे हादसों के घटने का इंतजाम करते हैं। स्पष्ट है कि ये हादसे प्राकृतिक नहीं पूंजी द्वारा की गयी निर्मम हत्यायें हैं।