जर्मनी में धुर दक्षिणपंथी उभार के मायने

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जर्मनी में हुए हालिया चुनाव में जहां दक्षिणपंथी पार्टी सीडीयू 28.5 प्रतिशत वोट पाकर सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सामने आई, वहीं विगत चुनाव में पांचवे नम्बर की पार्टी रही धुर दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी 20.8 प्रतिशत वोट के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। ऑलाफ सोल्ज की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी 16 प्रतिशत वोट के साथ तीसरे नम्बर पर खिसक गई। वहीं ग्रीन गठबंधन को 85 सीटें मिलीं और तथाकथित लेफ्ट पार्टी को 8.77 प्रतिशत वोट के साथ 64 सीटें मिलीं। 
    
जर्मनी के इस चुनाव में धुर दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी का 20 प्रतिशत वोट पाकर दूसरे नम्बर की पार्टी बनना खतरे का संकेत है। यह पार्टी अप्रवासियों खासकर मुस्लिमों का विरोध करती है। महिलाओं तथा एलजीबीटीक्यू पर अपना घृणित दृष्टिकोण रखती है। 2013 में गठन के बाद दूसरे नम्बर की पार्टी के तौर पर अस्तित्व में आना इस बात का भी परिचायक है कि जर्मनी में बढ़ रहे राजनीतिक असंतोष, नेताओं पर अविश्वास, गिरती अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी ने दक्षिणपंथी लोकलुभावन आंदोलनों के लिए जमीन तैयार की है। दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी विश्व रंगमंच पर अपने साम्राज्यवादी विस्तार के लिए लालायित है। यूरोपीय यूनियन का नेतृत्व हालांकि जर्मनी और फ्रांस के पास ही है। फिर भी एक धड़ा यूरोपीय यूनियन के नियमों कायदों से खुद को स्वतंत्र रखने का हिमायती है। वह जर्मन पूंजी विस्तार में इसे बाधा मानता है। इन्हीं धड़ों के समर्थन व सहयोग का ही परिणाम एएफडी का उभार है। हालांकि हिटलर के खात्मे के बाद जर्मनी के जनमानस में फासीवाद विरोधी मनोभाव काफी मजबूत हैं। शायद इसी वजह से सीडीयू नेता ने एएफडी के साथ सरकार न बनाने की घोषणा की है। जर्मनी के साम्राज्यवादियों को यूरोप खासकर पूर्वी यूरोप और दुनिया में अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने सैन्य बजट को लगातार बढ़ाना होगा जैसा कि वह करता भी जा रहा है। और इसके लिए जनता के ऊपर भार डाला जाएगा और उसे ओर भी बुरी स्थिति में धकेला जाएगा। 
    
हालांकि विगत दिनों में दुनिया भर में दक्षिणपंथी पार्टियों का उभार बढ़ा है। 2024 में भी दुनिया के 62 देशों के चुनाव में 25 देशों में दक्षिणपंथी सरकारें आई हैं। अमेरिका में ट्रम्प, इटली में मेलोनी, भारत, फिनलैंड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया आदि देशों के नतीजे दुनिया में बढ़ रहे फासीवादी खतरे की ओर इशारा करते हैं। यह इस बात की ओर भी इशारा करते है कि विश्व पूंजीवाद के पास अब अपने संकट का कोई समाधान नहीं है। बर्बर, मध्ययुगीन मूल्यों की शरण में जाने के लिए वह अभिशप्त सा दिखता है। इतिहास की गति अग्र गति होती है। यह दक्षिणपंथी उभार शायद पूंजीवाद के अस्तित्व को बचाने के अंतिम प्रयास ही साबित होंगे। लेकिन इसके लिए मजदूर वर्ग तथा मुक्तिकामी लोगों को बड़े-बड़े डग भरते हुए आगे बढ़ना होगा। 
 

आलेख

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

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ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।