यह कुफ्र हमारे समयों में ही होना था

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हर साल 9 मई को रूस ‘विजय दिवस’ (विक्ट्री डे) मनाता है। इस साल इस ‘विक्ट्री डे’ परेड में मोदी भी शामिल होंगे। ‘विक्ट्री डे’ में रूस अपनी सैन्य ताकत का खुला प्रदर्शन करता है। यह कुछ-कुछ वैसा है जैसा हमारे देश में ‘गणतंत्र दिवस’ के दिन होता है। सैन्य ताकत का यह नंगा प्रदर्शन क्यों किया जाता है। इसलिए कि हथियारों के नये सौदे हासिल किये जा सकें; अड़ोसी-पड़ोसी देशों को धमकाया जा सके; प्रतिद्वंद्वी देशों पर दबाव बनाया जा सके और अपने देश के भीतर गौरव की भावना व आतंक को कायम किया जा सके। 
    
9 मई को ‘विक्ट्री डे’ इसलिए मनाया जाता था कि इस दिन महान नेता स्तालिन के नेतृत्व में समाजवादी सोवियत संघ की लाल सेना ने हिटलर की फौज को धूल चटा दी थी और बर्लिन में लाल झण्डा फहरा दिया था। नाजीवाद-फासीवाद की सेनाओं पर विजय का यह जश्न सन् 2020 से पहले 24 जून को मनाया जाता था। 
    
पुतिन के शासन काल में यह ‘विक्ट्री डे’ रूसी साम्राज्यवादियों के सैन्य ताकत के नग्न प्रदर्शन का दिन बनकर रह गया है। कहां तो 9 मई या 24 जून फासीवाद की हार का व साम्राज्यवाद की पराजय का प्रतीक दिवस है और अब कहां वह रूस की सैन्य ताकत के नग्न प्रदर्शन का दिन बन गया है। 
    
इतना भी होता तो गनीमत होती अब तो वह इतिहास को हर तरह से कलंकित करने का दिन बन गया है। इस बार हिन्दू फासीवाद का मुखर प्रवक्ता फासीवाद पर विजय का जश्न मनाने वाली परेड का एक रूसी तानाशाह के साथ सलामी लेगा। रूसी साम्राज्यवादी और हिन्दू फासीवादी इतिहास के इस गौरवशाली दिन पर अपनी काली छाया फेंकेगे। अफसोस है। अगर पाश के शब्दों में कहें तो ‘यह कुफ्र भी हमारे समयों में ही होना था’। 

आलेख

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

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पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

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उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।