
आजकल सं. रा. अमेरिका के मुंहफट और भदेष राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों के खिलाफ जंग छेड़ रखी है। यह उन्होंने इन विश्वविद्यालयों में यहूदी-विरोधी भावना को खत्म करने के नाम पर कर रखा है। उनके हमले के सामने कोलंबिया जैसे विश्वविद्यालय आत्मसमर्पण कर रहे हैं तो हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय खड़े भी हो रहे हैं।
अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।
वैसे किसी हद तक यह परिघटना विश्व व्यापी है। यह दुनिया भर में धुर दक्षिणपंथी तथा फासीवादी उभार का अहं हिस्सा है। दुनिया भर में विश्वविद्यालय किसी हद तक उदार सोच का हिस्सा रहे हैं और इसीलिए वे आज धुर दक्षिणपंथियों व फासीवादियों के निशाने पर हैं। अक्सर ही यह हमला यहूदी-विरोधी भावना या अप्रवासियों के नाम पर किया जा रहा है। असल में इसका निशाना उदार और वैज्ञानिक सोच तथा माहौल होते हैं जिन्हें धुर दक्षिणपंथी व फासीवादी अपने रास्ते का रोड़ा समझते हैं। अक्सर इन विश्वविद्यालयों के अभिजात चरित्र का मसला भी उठाया जाता है और उनके खिलाफ कम पढ़े-लिखे गरीब आम जनों को गोलबंद किया जाता है।
दरअसल विश्वविद्यालय अपनी उत्पत्ति के समय से ही अभिजात रहे हैं तथा नामी विश्वविद्यालय आज भी अभिजात ही हैं। ज्यादातर सामान्य विश्वविद्यालय आज बस डिग्री बांटने के केंद्र भर हैं।
जब करीब हजार साल पहले यूरोप में विश्वविद्यालय स्थापित होने शुरू हुए तो वे एकदम अभिजात थे। उनके ज्यादातर छात्र पादरी पेशे से जुड़े होते थे। थोड़े से अन्य सामंती अभिजात छात्र भी होते थे। अध्यापक भी ऐसी ही पृष्ठभूमि के होते थे। पढ़ाई धर्मशास्त्र की होती थी तथा अन्य विषय इसी धर्मशास्त्र के उपांग के तौर पर ही पढ़ाये जाते थे।
समय के साथ जब यूरोप में पुनर्जागरण-प्रबोधन तथा धर्म सुधार आंदोलनों का समाज में व्यापक असर होने लगा तो इन विश्वविद्यालयों की शिक्षा व संरचना पर भी इसका असर पड़ा। प्राकृतिक विज्ञान तथा फिर समाज विज्ञान धर्मशास्त्र से अलग स्वतंत्र महत्व ग्रहण करने लगे। छात्रों व शिक्षकों की सामाजिक पृष्ठभूमि में भी कुछ बदलाव हुआ हालांकि इनकी अभिजात पृष्ठभूमि बनी रही। अब शिक्षा का उद्देश्य पादरी का पेशा नहीं रह गया। शिक्षा व शिक्षा का पेशा अपने आप में लक्ष्य बनने लगे। ज्ञान-विज्ञान अपने आप में लक्ष्य बनने लगे तथा कुछ लोग इसी को समर्पित होने लगे। हालांकि विश्वविद्यालय आर्थिक तौर पर सामंती एवं अन्य अभिजातों पर निर्भर थे तब भी इनका चरित्र बदलने लगा।
इस समय विश्वविद्यालय अपनी प्रकृति से व्यापक ज्ञान-विज्ञान को समेटने वाले थे। विश्वविद्यालय इसलिए विश्वविद्यालय नहीं थे कि वहां दुनिया भर से छात्र आते थे बल्कि इसलिए थे कि वहां दुनिया भर का ज्ञान पढ़ाया जाता था। जब इन पर धर्म की छाया कम होने लगी तो वातावरण भी ज्यादा उन्मुक्त हो गया। 19वीं सदी तक यह माना जाने लगा था कि विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा के केंद्र होते हैं जहां छात्र व अध्यापक मुक्त वातावरण में दुनिया भर के विषयों को पढ़ते-पढ़ाते हैं। तब तक विषयों में ज्यादा कुशलता हासिल करने के लिए विशेषीकरण होने लगा था, तब भी विश्वविद्यालय के छात्र से उम्मीद की जाती थी कि वह भांति-भांति के विषयों का अध्ययन करेगा।
19वीं सदी में जनतांत्रिकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई उसका असर विश्वविद्यालयों पर भी पड़ा। अब अभिजात के अलावा मध्यम वर्गीय पृष्ठभूमि के भी छात्र वहां आने लगे। लेकिन तब भी कुल मिलाकर विश्वविद्यालयों का अभिजात चरित्र बना रहा। आबादी के 90 प्रतिशत पृष्ठभूमि के नौजवान तो वहां जाने का सपना भी नहीं देख सकते थे। स्त्रियों या अश्वेतों के भी वहां पहुंच पाने की गुंजाइश बहुत कम थी।
इन आम जनों का विश्वविद्यालयों में प्रवेश 20वीं सदी में ही संभव हो सका। इसकी पहल समाजवादी देशों में हुई और इनके और मजदूर आंदोलन के दबाव में पूंजीवादी देशों में भी आमजन के कुछ नौजवानों को प्रवेश का मौका मिलने लगा। पर नामी विश्वविद्यालयों में इनकी संख्या हमेशा कम रही। इनकी संख्या में तभी इजाफा हुआ जब इनकी भर्ती के लिए विशेष प्रावधान (आरक्षण, वजीफा, इत्यादि) किए गए। हां, यह जरूर हुआ कि समय के साथ कम गुणवत्ता वाले विश्वविद्यालय अस्तित्व में आए जिनमें आम पृष्ठभूमि के छात्रों को ज्यादा मौका मिलने लगा। पर ये ज्यादातर डिग्री बांटने के केंद्र भर बनकर रह गए।
नामी विश्वविद्यालय में भी पढ़ाई-लिखाई के अपेक्षाकृत मुक्त और उदार माहौल के बावजूद शिक्षकों व छात्रों के संबंध तथा आम माहौल उतना उदार नहीं था। पुरानी सोच अभी भी हावी थी। लेकिन 1968 के दुनिया भर के छात्र आंदोलन ने इसे बदल दिया। इस आंदोलन का वास्तविक निशाना पूंजीवादी व्यवस्था नहीं थी, जैसा कि इसके कुछ मुख्य नेताओं ने सोचा था। इसका असल निशाना वह पुरानी सोच व जकड़न थी जो जमाने से चली आ रही थी। कहा जा सकता है कि विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक माहौल में रची-बसी वह सामंती सोच थी जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बस चलती चली जा रही थी। 1968 के छात्र आंदोलन ने इस माहौल में भारी परिवर्तन कर दिया।
इस आंदोलन ने एक और काम किया। इसने विश्वविद्यालयों के आम अभिजात चरित्र पर कोई मूलभूत सवाल खड़े किए बिना इसके भीतर विविधता की अनुपस्थिति को मुद्दा बना दिया। यानी यह मुद्दा तो नहीं बना कि विश्वविद्यालय में मजदूरों के बच्चे क्यों नहीं हैं पर यह मुद्दा जरूर बन गया कि वहां स्त्रियां, अश्वेत, अल्पसंख्यक, इत्यादि क्यों नहीं हैं? बाद में नए सामाजिक आंदोलन के रूप में मुखर हुए ये मुद्दे शुरू में विश्वविद्यालय से ही उठे थे। इन्हें उत्तर आधुनिकतावाद के रूप में दार्शनिक जामा भी मिला।
1968 के बाद की आधी शताब्दी में नामी विश्वविद्यालयों ने अभिजातपन के भीतर विविधता की दिशा में प्रगति की। भारत में तो एक योजना के तहत भारत सरकार ने एक अभिजात विश्वविद्यालय ही स्थापित कर दिया- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे एन यू)। यहां विविधता संरचनात्मक थी यानी छात्रों की भर्ती ही इसी रूप में होती थी। हां यह जरूर किया गया कि एक निश्चित संख्या में छात्र आम पृष्ठभूमि के होते थे।
विश्वविद्यालयों की यह गति दक्षिणपंथियों को स्वीकार नहीं थी। वे लगातार इसका विरोध करते रहे। वे विश्वविद्यालयों को पुराने ढांचे में बनाए रखने का संघर्ष करते रहे। पर समाज की भांति-भांति की गतियों के कारण वे सफल नहीं हो पाते थे। उनके विरोध के बावजूद विश्वविद्यालयों की उपरोक्त गति जारी रही।
अब जब आमतौर पर दक्षिणपंथी तथा खासतौर पर धुर-दक्षिणपंथी व फासीवादी समाज पर हावी हो रहे हैं तो वे अन्य चीजों के साथ विश्वविद्यालयों को निशाना बना रहे हैं। भारत में जेएनयू-जामिया व अमेरिका में कोलंबिया, प्रिंसटन और हार्वर्ड बहुत प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हैं। इन पर हमला कर इन पर काबू पा लेने का मतलब आमतौर पर ही विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक माहौल पर काबू पा लेना होगा। तब उन्हें अपने भर्ती केंद्र के तौर पर ढाला जा सकता है।
मजे की बात है कि इन विश्वविद्यालयों पर हमला करने के लिए धुर-दक्षिणपंथियों व फासीवादियों ने उसी का सहारा लिया है जिसके जरिए वे सत्ता में या सत्ता के करीब पहुंचे हैं। अल्पसंख्यक विरोध, अप्रवासी विरोध, राष्ट्रवाद, इत्यादि उनके प्रमुख हथियार हैं। इसी के साथ वे इन विश्वविद्यालयों के अभिजात चरित्र को निशाना बनाते हैं। वे आम लोगों को बताते हैं कि उनके चुकाए गये कर के बल पर इन विश्वविद्यालयों के अभिजात छात्र व अध्यापक देश व समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं। विश्वविद्यालयी शिक्षा से दूर लोगों को यह बात लुभाती है। भारत में एक निम्न मध्यम वर्गीय व्यक्ति यह नहीं सोचता कि वह या उसके बच्चे जेएनयू की उच्च गुणवत्ता की शिक्षा को अत्यंत कम खर्च में हासिल कर लें। इसके बदले वह चाहता है कि ऐसे विश्वविद्यालय बंद हो जाएं। इसका सीधा सा कारण है कि उसे लगता है कि वह विश्वविद्यालय उसके परिवार की पहुंच से बाहर है।
इन विश्वविद्यालयों का उदार माहौल भी धुर दक्षिणपंथियों और फासीवादियों को इन पर हमला करने व इस हमले के लिए जन समर्थन हासिल करने का मौका देता है। विश्वविद्यालय समाज में सोच के तौर पर अग्रदूत होते हैं और होने भी चाहिए। वहां आगे की सोच से लैस छात्र बाद में समाज में अलग-अलग भूमिकाओं में समाज को आगे ले जाने का काम करते हैं। लेकिन इनकी यह अग्रिम सोच इन्हें समाज से किसी हद तक अलग-थलग भी करती है। ऐसे में धुर दक्षिणपंथियों और फासीवादियों के उभार के दौर में इस अलगाव को दुश्मनी के स्तर तक पहुंचाया जा सकता है। अपेक्षाकृत पिछड़ी चेतना के आम जनों को यह समझाया जा सकता है कि इन विश्वविद्यालयों की अग्रणी सोच समाज में नैतिक प्रदूषण और इसीलिए समाज की तमाम बीमारियों के मूल में है। भारत में ‘जेएनयू संस्कृति’ तथा अमेरिका में ‘वोक संस्कृति’ के खिलाफ सत्ता के सर्वोच्च शिखरों से नफरत प्रसारित की जा रही है।
कुल मिलाकर धुर दक्षिणपंथियों और फासीवादियों द्वारा आज उच्च शिक्षा के संस्थानों, खासकर नामी विश्वविद्यालयों पर काबू पाने का हर संभव प्रयास किया जा रहा है। यह उनकी समग्र परियोजना का हिस्सा है और उनके लिए जरूरी है। यदि उन्हें पूरे समाज को खास दिशा में ढालना है तो उच्च शिक्षा के केद्रों को उसका एक प्रमुख वाहक बनाना होगा। इन्हें उनकी सोच व उस सोच के वाहक पैदा करने वाले केद्रों के रूप में ढालना होगा। केवल सरस्वती शिशु मंदिर से काम नहीं चलेगा जेएनयू को भी इस काम में लगाना होगा।
उच्च शिक्षा के केद्रों पर काबू पाने के लिए धुर दक्षिणपंथी व फासीवादी जो तरीके आजमा रहे हैं उनमें समाजों के हिसाब से फर्क होगा। मोदी जिन तरीकों को आजमा लेते हैं वह ट्रम्प नहीं कर सकते।
भारत में भारतीय समाज के आम चरित्र के अनुरूप मोदी सरकार ने एकदम भौंडे और गैर-कानूनी तरीके अपनाए हैं। जेएनयू पर रात में संघी गुण्डों का हमला इसका प्रतीक भर है। इसी तरह का दूसरा प्रतीक जामिया पर पुलिस का हमला था। इस तरह की खुली गुंडागर्दी से लेकर यूजीसी की ऐसी-तैसी, उसके द्वारा विश्वविद्यालयों की फंडिंग की ऐसी-तैसी, सब जगह संघी जाहिलों की भर्ती, छात्र संघों तथा शिक्षक संघों को अप्रासंगिक बना देना, शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता को नष्ट कर देना, इत्यादि सारे हथियार मोदी की हिंदू फासीवादी सरकार ने अपनाए हैं। इस सबने देश में उच्च शिक्षा का बेड़ा गर्क कर दिया है। रही-सही कसर शिक्षा के निजीकरण ने पूरी कर दी है। डिग्री बांटने वाले शिक्षण संस्थान कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली में उग आए हैं। इसी के साथ प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के बुरे हाल तथा ट्यूशन व कोचिंग के भयंकर व्यवसाय को मिला लिया जाए तो तस्वीर मुकम्मल हो जाती है। इन सबके बाद तो सड़क पर जय श्री राम का नारा लगाने वाले उन्मादियों की भीड़ ही पैदा हो सकती है।
अमेरिकी खैर मान सकते हैं कि उनके यहां हालात न तो उतने बुरे हैं और न होंगे। लेकिन ट्रम्प जैसे जाहिल किस हद तक जा सकते हैं, इसका उन्हें अंदाजा नहीं है। गलतफहमी दूर करने के लिए उन्हें एक बार फिर हिटलर की याद ताजा कर लेनी होगी।
अमेरिका एक विकसित व साम्राज्यवादी देश है। उसकी संस्थाएं भी ज्यादा मजबूत हैं। इसीलिए ट्रंप एंड कंपनी के हमले का प्रतिरोध भी वहां ज्यादा है। यदि ट्रंप की बात मानने के बदले हार्वर्ड विश्वविद्यालय अदालत जाकर उसे चुनौती देता है तो यह इसी बात का सबूत है। लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि कोलंबिया विश्वविद्यालय ने ट्रम्प की बात मान ली और उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया। वहां आगे समर्पण वाली प्रवृत्ति मजबूत होगी या प्रतिरोध वाली यह तो समय ही बताएगा पर धुर दक्षिणपंथी व फासीवादी क्या चाहते हैं इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। चुनौती खुली व स्पष्ट है।