युद्ध विराम : कैसा, किसके बीच और कब तक

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भारत और पाकिस्तान के बीच चार दिवसीय ‘युद्ध’ अमेरिका के राष्ट्रपति की ‘युद्ध विराम’ घोषणा के जरिए 10 मई की शाम पांच बजे समाप्त हो गया। युद्ध विराम की घोषणा सबसे पहले अमेरिका के राष्ट्रपति और उसके बाद उनके विदेश मंत्री ने की। यह बात कई सच्चाईयों को एक साथ उगल देती है। उगली सच्चाईयां ऐसी ही हैं कि मोदी सरकार के लिए ये गले की फांस बन गयी हैं। मोदी सरकार असहज है और विपक्षी पार्टियां उसकी फजीहत को और बढ़ा रही हैं। हालांकि औपचारिक तौर पर, सैनिक तौर पर दोनों ही देश अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। 
    
मोदी सरकार की फजीहत बढ़ाने में विदेशी मामलों के जानकार, विद्वानों से लेकर रक्षा विशेषज्ञों (जिनमें से कई सेना के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी हैं) का भी हाथ है। एक ने तो कह ही दिया कि ‘हम जीत के जबड़े से हार छीन कर लाये हैं’। यह भावना उन सब लोगों पर हावी है जो युद्धोन्माद में आकण्ठ डूबे हुए थे। शायद ऐसों के लिए पूर्व सेनाध्यक्ष मनोज नरवाणे ने कहा कि ‘युद्ध न तो रोमांटिक होता है और न ही वह कोई बॉलीवुड की फिल्म होता है’। यह सच है कि भारत के टेलीविजन चैनलों से लेकर सोशल मीडिया ने अपनी उत्तेजक बकवास से इसे बेहद घटिया स्तर की बालीवुड फिल्म बना दिया था। और फिर ऐसे में युद्ध विराम की घोषणा और वह भी सबसे पहले ट्रम्प के द्वारा करने ने, ऐसे सभी लोगों को सन्निपात की अवस्था में पहुंचा दिया। 
    
सन्निपात को आयुर्वेद एक ऐसी जटिल स्थिति बताता है जब किसी मनुष्य का शारीरिक और मानसिक संतुलन वात-पित्त-कफ तीनों दोषों के असंतुलन से बिगड़ जाता है। वह कुछ भी बकने और करने लगता है। भाजपा-संघ के लोगों से लेकर अंधराष्ट्रवादी, युद्धोन्मादी, फासीवादी इस युद्ध विराम से सन्निपात की अवस्था में पहुंच गये। इनके पागलपन का शिकार भारत के विदेश सचिव (जो कि कश्मीरी है) से लेकर हैदराबाद में कराची बेकरी चलाने वाला एक हिन्दू तक बन गया। 
    
सन्निपात के शिकार लोगों का सामना करने के लिए मोदी सरकार ने फौज को आगे कर दिया। यह बहुत दिलचस्प है कि देश का राजनैतिक नेतृत्व सैन्य नेतृत्व के पीछे छुप गया। सेना के अफसरों ने विस्तार से अपनी बात रखी और प्रेस कांफ्रेंस में उठाये सवालों का जवाब दिया। राजनैतिक नेतृत्व का सैन्य नेतृत्व को आगे करना किसी सोची-समझी नीति के बजाय कमजोरी का ही परिचायक है। जिस सरकार ने अपने समर्थकों को सन्निपात में डाला तो उन्हीं समर्थकों ने सरकार को असहज कर डाला। युद्ध विराम के कई घंटों बाद कहीं जाकर प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन किया। 
    
बातों के उस्ताद मोदी जी की बातें सन्निपात के शिकार लोगों का होश वापिस नहीं ला सकतीं। जिस नाम को मोदी जी कभी नहीं लेते हैं वह नाम उनका रात-दिन पीछा करने लगा। वह नाम इंदिरा गांधी का था। नेहरू को रात-दिन कोसने वाले दिल ही दिल में इंदिरा गांधी के प्रशंसक हैं। वे सोच रहे थे मोदी इंदिरा गांधी की तरह पाकिस्तान के दो टुकड़े कर देंगे। उसके कब्जे वाले कश्मीर में कब्जा कर देंगे। यहां तो मोदी जी पाकिस्तान को सबक सिखाने के स्थान पर अमेरिका के इशारों पर नाचने लगे। अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद की भांग जो हिन्दू फासीवादियों ने अपने जिन चेलों को पिलायी थी वही चेले अब गुरू की लानत-मलामत करने लगे।
    
भारत ने अपनी जीत के दावे भारत के भीतर किये तो ऐसे ही दावे पाकिस्तान ने पाकिस्तान के भीतर किये। असल में दोनों ही जीत गये और दोनों ही हार गये। इनके जीत के दावे कितने सच्चे हैं ये इन दोनों देशों में इनके विरोधी बता रहे हैं। गौर से देखा जाये तो इस युद्ध में दोनों ही देश अमेरिका से हार गये। अमेरिका के राष्ट्रपति ने इस अंदाज में युद्ध विराम की घोषणा की मानो ये उनके इशारों पे नाचने वाली कठपुतलियां हों। बाद में ट्रम्प ने बताया कि दोनों देशों ने लड़ना इसलिए बंद किया कि उन्होंने धमकी दी थी कि वे दोनों देशों के अमेरिका से व्यापार को रोक देंगे। यानी ट्रम्प ने कठपुतलियों को व्यापार नामक डोर काटने की धमकी दे डाली। ट्रम्प जीत गये और मोदी व शरीफ हार गये। हालांकि वे एक-दूसरे से जीत गये थे। भारत के शब्दों में उन्होंने पाकिस्तान को ढंग से सबक सिखा दिया और पाकिस्तान के शब्दों में उन्होंने भारत को हमले का ऐसा तगड़ा जवाब दिया कि वह अब हमले की हिम्मत नहीं करेगा। 
    
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम एफ) ने पाकिस्तान को जब 2.3 बिलियन डालर का नया ऋण दिया तो भारत ने इस ऋण का विरोध करते हुए इस हेतु हुए मतदान में भाग नहीं लिया। चूंकि उक्त ऋण सम्बन्धी मतदानों में विरोध में मत डालने का विकल्प नहीं होता है इसलिए भारत विरोध में मतदान से अनुपस्थित ही रह सकता था। पर भारत को अन्य देशों का साथ नहीं मिला। इसने मसले पर अंतर्राष्ट्रीय रुख स्पष्ट कर दिया। और फिर इसके साथ दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवादियों के समूह जी-7 ने शांति की अपील की। बाद में अमेरिका ने अपने ही दावे किये। हकीकत यही थी भारत और पाकिस्तान अपने-अपने संकीर्ण तात्कालिक हितों की वजह से एक छोटा-मोटा युद्ध लड़ बैठे। लम्बे युद्ध की न तो इनकी तैयारी थी, न आर्थिक हालत थी और न ही इरादा था। इस युद्ध की उम्र चंद दिन की ही होनी थी। बड़बोले ट्रम्प यदि अपनी टांग नहीं भी अड़ाते तो भी यह युद्ध चंद दिनों में ही समाप्त होना था। यही सच है। 
    
बड़बोले ट्रम्प की अमेरिका में इस वक्त फजीहत बढ़ती जा रही है। उसकी साख गिर रही है। भारत-पाकिस्तान मामले ने उसे एक ऐसा मौका दे दिया जिसकी उसे तलाश थी। वह अपने चुनाव प्रचार के दौरान दावा कर रहा था कि गद्दी में बैठते ही वह रूस-यूक्रेन युद्ध और इजरायल-फिलिस्तीन ‘संघर्ष’ को खत्म करा देगा। शांति के नोबेल पुरूस्कार की चाहत रखने वाला धूर्त ट्रम्प जो कि असल में एक मसखरा है। जो पोप की अन्तेष्टि में जाता है और अपने को पोप की पोशाक में पेश करता है और कहता है कि वह भी पोप बनना चाहता है। फिर भारत-पाकिस्तान युद्ध ने उसे वह सब कुछ करने का मौका दे दिया जो उसे कहीं और से नहीं मिल रहा था। वह शांति के रक्षक से सबका भला चाहने वाला पोप तक सब कुछ बन गया। 
    
भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं। और यहां तक जिनके जरिये आतंकी घटनाएं करवाई जाती हैं वे भी धर्मान्ध होकर या फिर चंद रुपये के लालच में बहशी दरिन्दे बनाये जाते हैं। इनके आका अक्सर ही ऐशो-आराम की जिन्दगी जीते हैं और आम मेहनतकशों के भटके हुए बच्चे पहले कातिल बनते हैं और फिर अंत में खुद उनका कत्ल हो जाता है। आतंक का रास्ता मौत का रास्ता बन जाता है। 
    
अब जब युद्ध समाप्त हो गया है। उन्माद का समय बीत रहा है तब विवेक को जागृत करना होगा। यह मजदूरों-मेहनतकशों की ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। और यह उनकी जरूरत है कि वे हर तरह से उन लोगों का विरोध करें जो इस तरह के युद्धों को शुरू करते हैं। इन युद्धों से लाभ उठाने वालों में सिर्फ धूर्त राजनेता और सनकी सेना के जनरल ही नहीं हैं बल्कि राफेल, मिराज जैसे हथियार बनाने वाली साम्राज्यवादी देशों की हथियार कम्पनियां भी हैं। साम्राज्यवादी देश हर वक्त या तो युद्ध में उलझे रहते हैं या फिर नये युद्धों की तैयारी कर रहे होते हैं। ये सभी मजदूरों-मेहनतकशों के दुश्मन हैं। हमें नहीं भूलना होगा कि क्या भारत, क्या पाकिस्तान और क्या धरती पर स्थित किसी भी देश के मजदूर-मेहनतकश हमारे दुश्मन नहीं हैं। हम सब मजदूर-मेहनतकश एक हैं। हमारी जरूरत, हमारा भविष्य सब एक है। हमारी एकता ही दुनिया से सभी तरह के युद्धों का अंत कर सकती है। इसकी शर्त यह है कि दुनिया से पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का पूर्ण खात्मा किया जाए। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद में युद्धों का अनवरत सिलसिला बना ही रहेगा। 

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